भारतीय संस्कृति में पर्वों एवं त्योहारों की एक समृद्घ परंपरा है। इसी परंपरा में पर्युषण महापर्व जैन-धर्म का एक महान पर्व है। आज के सुविधावादी एवं भौतिकवादी युग में इस तरह के त्याग, तपस्या, आत्मशुद्घि, क्षमा आदि विशिष्ट कार्य के लिए एक पर्व की परंपरा का उत्तरोत्तर विकास की ओर अग्रसर होना आश्र्चर्य का विषय है। आज जबकि हर व्यक्ति भोगवाद एवं सुविधावाद की ओर अग्रसर हो रहा है। ऐसे समय में एक संपूर्ण समाज आत्मशुद्घि एवं अपनी प्रज्ञा के विकास के लिए सिाय रहता है, यह अपने आपमें अजूबा ही है।
पर्युषण-पर्व विशुद्घ आध्यात्मिक पर्व है, जिसके अंतर्गत क्षमा, सहिष्णुता और मैत्री की आराधना का विशेष महत्व है। “पर्युषण’ का शाब्दिक अर्थ है – चारों ओर से सिमटकर एक स्थान पर निवास करना या स्वयं में वास करना। यह पर्व एक तरह से स्वास्थ्य का पर्व भी है, जिसके अंतर्गत व्यक्ति आधि, व्याधि और उपाधि की चिकित्सा कर समाधि तक पहुँच सकता है। यह पर्व आत्मा को मांजने का पर्व है। भीतरी सौंदर्य की परख का अनूठा माध्यम है। यह एक आईना है, जो मनुष्य को अपना असली चेहरा देखने का अवसर देता है।
पर्युषण पर्व भादव महीने में 8 दिनों तक मनाया जाता है। यह माह प्राकृतिक सौंदर्य से भरा होता है, जिसमें न केवल जैन, बल्कि जैनेत्तर लोग भी अतिरिक्त पूजा-पाठ पर ध्यान केंद्रित करते हैं। पर्युषण में जैन-परंपरा और जैन-साधना पद्घति को अधिकाधिक जीवन में उतारने का प्रयत्न किया जाता है। ाोध, अहंकार, नफरत, घृणा आदि कषायों को शांत करके चित्त को निर्मल बनाकर शुभ-संकल्पों को जाग्रत करने का प्रयत्न किया जाता है।
पर्युषण-पर्व की साधना/आराधना करने का अर्थ है व्यक्ति द्वारा पीछे मुड़कर स्वयं को देखने की ईमानदार कोशिश। यह प्रतिामण का एक प्रयोग है। अतीत की गलतियों को देखना और भविष्य के लिए उन गलतियों को न दोहराने का संकल्प यही इस पर्व का अर्थ है। यह पर्व व्यक्ति को आत्मिक, नैतिक एवं चारित्रिक दृष्टि से उन्नत जीवन की ओर अग्रसर करता है। इस पर्व की आराधना करने वाले व्यक्ति के चरित्र पर लोगों की आँखें टिकती हैं, अंगुली नहीं उठती। यह टूटते जीवन मूल्यों एवं बिखरती आस्थाओं को विराम देते हुए, जीवन को नये संकल्पों के साथ जीने के लिए अग्रसर करता है।
संवत्सरी महापर्व मन की गांठों को खोलने का अत्युत्तम अवसर है। आत्म-निरीक्षण इसका सबल साधन है। अकृत के प्रति अनुताप का भाव जागना जीवन की सर्वोच्च सफलता है। यह सचमुच आत्म-स्नान की प्रिाया है। इससे मन स्वस्थ, निरामय और प्रसन्न बन जाता है। मानसिक भार और तनाव से मुक्त होने के लिए क्षमा-याचना श्रेष्ठ उपाम है। आंतरिक शक्ति के अभ्युदय में कषाय मुक्त जीवन-शैली का विशिष्ट योगदान है। आचार्य विजय वल्लभ सूरीश्वर जी महाराज ने मैत्री एवं क्षमा को उजागर करते हुए लिखा है कि सागर की तरह खारापन अपने में रखकर बादलों के रूप में मधुरता का सबमें वितरण करो, वर्षण करो।
सचमुच, क्षमा का अर्थ ही है भीतरी व्यक्तित्व का बदलाव, अपने ही अज्ञान का बोध। धर्म के इन जीवांत क्षणों में बस इसी अनुभूति को जोड़े रहें कि मैत्री हमारी संस्कृति है और यह संपूर्ण मानवीय संबंधों की व्याख्या है। इसे हम खंडित नहीं होने देंगे।
– कीर्ति
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