क्या यह संतुष्टि कायम रह पाएगी?

नेपाली गणराज्य के पहले प्रधानमंत्री अपने दलबल के साथ पांच दिवसीय भारत दौरा करके वापस लौट गए हैं। उनकी झोली भारत ने इतना भर दिया कि वे गद्गद होकर लौटे हैं। भारत उनके साथ इतनी उदारता दिखाएगा, इसकी कल्पना निश्र्चय ही उन्हें नहीं रही होगी। आखिर माओवादियों के प्रचार अभियान का मुख्य भाग भारत विरोध पर केन्द्रित रहा है। गठबंधन सरकार का नेतृत्व संभालने के बाद भी उनका तेवर पूरी तरह नरम नहीं हुआ था। उनकी यात्रा के ठीक पहले उनकी पार्टी के प्रमुख नेता ने आाामक अंदाज में यह बयान दिया था कि देशहित के मुद्दे को भारत के समक्ष पूरी आाामकता से उठाया जाएगा। प्रचंड, उनकी पार्टी एवं गठबंधन का एक प्रमुख दल कम्युनिस्ट पार्टी ऑफ नेपाल-एमाले 1950 की शांति एवं मैत्री संधि तथा मौजूदा व्यापार एवं परागमन व्यवस्था की व्यापक समीक्षा की मांग कर रहा था। उन्हें लग रहा था कि इसे वे बड़ा मुद्दा बनाएंगे। लेकिन यह क्या? भारत तो इसके लिए मन बनाकर बैठा था। भारत ने कह दिया कि हमें इस पर कोई आपत्ति नहीं है और दोनों देशों के विदेश सचिवों की एक समिति संधि की समीक्षा करेगी। व्यापार एवं पारगमन के मसले पर भी दोनों देशों के वाणिज्य सचिव समीक्षा की शुरुआत करेंगे। जो उनके लिए बड़े मुद्दे थे उन पर भारत इतनी आसानी से राजी हो जाएगा इसकी वहॉं उम्मीद नहीं थी। वहॉं प्रचार यह था कि ये व्यवस्थाएं भारत के लिए नेपाल पर वर्चस्व कायम रखने का आधार हैं जिसमें बदलाव के लिए सैद्घांतिक तौर पर भी वह तैयार नहीं होगा। भारत का रवैया ठीक इसके विपरीत रहा।

प्रचंड ने नेपाल पहुँचते ही इसे अपनी बहुत बड़ी कूटनीतिक सफलता घोषित की। यह स्वाभाविक भी है। वस्तुतः वे जो चाहते थे तत्काल उन्हें सब कुछ तो मिल गया। आखिर यात्रा की सफलता का इससे बड़ा पैमाना और क्या हो सकता है? कोसी के कारण आई बाढ़ वहॉं भारत विरोध का बहुत बड़ा मुद्दा है। इस बात पर आाामक अभियान चल रहा था कि बाढ़ से उत्पन्न क्षति का मुआवजा भारत से मांगा जाए, क्योंकि बांध के रख-रखाव का दायित्व भारत का है। भारत ने अपनी ओर से इसे स्वीकार किया और कोसी से बिहार में मचे कोहराम के बावजूद तत्काल राहत के लिए तुरंत 20 करोड़ रुपया की सहायता दी एवं आगे और भी देने का वायदा कर दिया। इसने बाढ़ से क्षतिग्रस्त पूर्व-पश्र्चिम राजमार्ग की मरम्मत कराने का निर्णय किया। मरम्मत होने तक आवागमन में सुविधा के लिए भारत विराटनगर में कैंप खोलेगा। नेपाल में रसद की समस्या थी तो चावल, गेहूं, चीनी और मक्का के निर्यात पर से लगा प्रतिबंध हटा लेने की घोषणा कर दी। नेपाल की तात्कालिक वित्तीय समस्याओं का ध्यान रखते हुए 150 करोड़ रुपए की साख मुहैया करा दिया। कोसी सहित अन्य नदी परियोजनाओं को भारत विरोधी अंग बनाने वालों के लिए भी यह सुखद आश्र्चर्य का विषय था कि भारत ने केवल बुनियादी ढांचे के पुनर्निर्माण पर ही सहमति व्यक्त नहीं की, बाढ़ नियंत्रण जैसे मुद्दे पर एक त्रिस्तरीय तंत्र स्थापित करने पर सहमति व्यक्त की, जिसमें मंत्री और सचिव के साथ तकनीकी विशेषज्ञ भी होंगे। नेपाल की यही तो मांग थी। इसी प्रकार जल संसाधन का इतना सब कुछ पाने के बाद यदि प्रचंड ने कहा कि मैं एक संतुष्ट व्यक्ति के रूप में नेपाल लौट रहा हूँ, तो यह बिल्कुल स्वाभाविक है। उस समय उन्हें यकीनन इतना सब कुछ पा लेने की आशा नहीं थी। नदी जल के उपयोग के संदर्भ में लिए गए इन निर्णयों का विशेष महत्व है। नेपाल की सबसे बड़ी पूंजी नदियां हैं जिनमें से अधिकांश भारत की ओर आती हैं। ़जाहिर है, दोनों देश मिलकर इसका समुचित लाभकारी उपयोग कर सकते हैं। किंतु माओवादी सहित कुछ दूसरे संगठन 1996 में दोनों देशों की सहमति वाली महाकाली परियोजना को रद्द करने की मांग करते रहे हैं। इसी तरह कोसी से लेकर गंडक परियोजनाओं तक की समीक्षा एवं उन संधियों में बदलाव की भी उनकी मांग है। आगे क्या होगा, अभी कहना मुश्किल है लेकिन इन दो निर्णयों में इसकी गुंजाइश है। स्पष्ट है कि भारत ने प्रचंड की यात्रा के पूर्व इस बार पूरा होमवर्क किया था एवं वहॉं जो भी मांग उठ रही थी उसका संज्ञान लेते हुए स्वयं उनके समाधान की पहल की। एक विचार यह भी है कि प्रचंड ने परंपराओं को तोड़ते हुए भारत आने से पहले चीन जाकर दबाव की जो रणनीति अपनाई वह सफल रही। इस स्थापना पर मतभेद की गुंजाइश है लेकिन प्रचंड के चीन जाने के कारण भारत में चिंता एवं उद्विग्नता का माहौल अवश्य बना था। निश्र्चय ही इस घटना के प्रभाव में हमारे नीति-निर्माताओं ने अपनी नेपाल नीति पर विचार-विमर्श किया और तत्काल जितना संभव था उसकी भावनाओं का ध्यान रखते हुए निर्णय लिया। लेकिन प्रश्र्न्न है कि क्या इसके बाद वाकई नेपाल में भारत विरोधी बयानबाजी बंद हो जाएगी? क्या भारत के संदर्भ में वहॉं के नेताओं का स्वर बदलेगा?

नेपाल के सभी नेता भारत विरोधी राग अलापने वाले नहीं हैं लेकिन नेपाली कांग्रेस सहित मधेशी संगठनों एवं कुछ छोटे दलों को छोड़ दें तो वहॉं के नेताओं के लिए भारत विरोध लोकप्रियता पाने का प्रमुख हथियार रहा है। माओवादियों ने इस हथियार का पूरा उपयोग किया है। एमाले भी यही करती थी, लेकिन उनका संयुक्त स्वर थोड़ा मद्घिम हुआ है। नेपाल के नेताओं की भाषा नेपाल की धरती पर कदम रखते ही बदलती रही है। वे भारत में कुछ और नेपाल में कुछ बोलने के आदी रहे हैं। प्रचंड का जो स्वरूप भारत में दिखा वह स्वाभाविक था, इसे स्वीकार करने में अभी बिल्कुल संदेह है। आखिर जिसने भारत को विस्तारवादी मंसूबों वाला देश कहते हुए वर्षों तक अभियान चलाया हो, जो चुनाव टलने के लिए और फिर सरकार बनाने में गतिरोध के लिए केवल भारत को दोषी करार देता रहा हो, जो अपने बयानों में बिना भारत का नाम लिए यह चेतावनी देता रहा हो कि बाहरी देश हमारे आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप बंद करें, उसका भारत की सदाशयता का अनुभव कर हृदय परिवर्तन हो जाएग। ऐसी उम्मीद कैसे की जाए! इसलिए भारत ने जो कुछ किया वह बिल्कुल उचित है। अऩादिकाल की ऐतिहासिक, सभ्यतागत, सांस्कृतिक एवं सामाजिक घनिष्ठता के कारण दो पड़ोस संप्रभु देशों के सामान्य संबंधों से परे नेपाल के प्रति हमारा मानवीय एवं नैतिक दायित्व भी है। भारत ने इन दायित्वों का पालन करके सही किया है। किंतु प्रचंड को लेकर भारत के राजनीतिक हलकों एवं मीडिया में उत्साहजनक प्रतििायाओं का ठोस आधार नहीं हैं। वस्तुतः मूल्यांकन में जल्दबाजी उचित नहीं है। ठीक है कि लोकतांत्रिक प्रिाया में आने से प्रचंड सहित माओवादियों का स्वभाव कुछ हद तक बदलेगा, वाणी एवं िाया के स्तर पर उनके व्यवहार में थोड़ा संयम का पुट आएगा, लेकिन वे भारत एवं चीन के साथ रिश्तों में परिवर्तन चाहते हैं। प्रचंड ने स्वयं कहा कि द्विपक्षीय संबंधों में ाांतिकारी बदलाव का समय आ गया है। वे नए सिरे से शुरुआत के पक्षधर हैं। ाांतिकारी बदलाव और नए सिरे से शुरुआत का तात्पर्य समझे बगैर अगर हम भावुकता में निष्कर्ष निकालेंगे तो उससे हमारी ही परेशानी बढ़ेगी।

 

– अवधेश कुमार

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