समाज में सभी नगरिक ज्ञानवान, शीलवान, संस्कारवान हों, इंद्रिय-संयम, अर्थ-संयम, समय-संयम और विचार-संयम का सतत अभ्यास करते हों और सर्वत्र सत्कर्मों, सुविचारों एवं सुख-शांति की अभिवृद्घि हो। ऐसा आदर्श निष्ठ समाज बनाए रखने का उत्तरदायित्व ऋषियों ने ब्राह्मण वर्ण पर ही डाला है।
ब्राह्मणों व विद्वानों का सबसे पहला कर्त्तव्य यही है कि वे स्वयं सावधान व सजग रहें। ज्ञान-विज्ञान के गूढ़ तत्वों को समझ कर नीति और अनीति में भेद करके सत्य विद्या को जानें। जब तक स्वयं ही सही मार्ग ज्ञात न होगा तो दूसरों का सही मार्गदर्शन किस प्रकार से संभव हो सकेगा। संसार में जीवन के दो मार्ग हैं – कठोपनिषद में उन्हें श्रेयश्र्च, प्रेयश्र्च मनुष्यमेतस्तता कहा गया है। श्रेय मार्ग वह है, जो कल्याण करने वाला है और दूसरा प्रेय मार्ग, जो अच्छा लगने वाला है, इंद्रियों को सुख देने वाला है।
हमारा मन इस प्रेय मार्ग की ओर अधिक भागता है। स्वादेंद्रियां तरह-तरह के स्वादिष्ट भोजन मांगती हैं और स्वास्थ्य व संयम की मर्यादा को नष्ट करती हैं। इसी प्रकार अन्य सभी इंद्रियां भी बाह्य सुख-साधनों में ही उलझी रहती हैं और आत्मा-परमात्मा को भूलकर मनुष्य अनेकानेक दुष्प्रवृत्तियों में फंसा रहता है।
दोष-दुर्गुणों में फंसकर मनुष्य एक ऐसे नशे में डूब जाता है कि चाह कर भी वह उनके चंगुल से स्वयं को मुक्त नहीं कर पाता। उसकी आत्मा उसे धिक्कारती है, पर वह आंखें फेर कर दुर्व्यसनों की चाशनी में मक्खी के समान फंसता जाता है। धीरे-धीरे उसका मनोबल टूटता है और वह स्वयं को असहाय अवस्था में पाता है। वह अपना जीवन तो बर्बाद करता ही है, अन्य व्यक्तियों के लिए भी नरक का वातावरण बना देता है।
ऐसा नहीं है कि सांसारिक बातों को पूरी तरह से तिलांजलि देकर सारे मनुष्य वैरागी-संन्यासी हो जायें। संसारवाद और आध्यात्मवाद दोनों में ही उचित समन्वय होना चाहिए। तभी लोगों की शारीरिक, मानसिक व आत्मिक उन्नति संभव होगी। तभी देश में स्वर्गीय वातावरण बनेगा और लोग स्वस्थ, दीर्घायु, प्राणवान, चरित्रवान, समर्थ और सुखी होंगे। राष्ट की कीर्तिपताका सर्वत्र फहराएगी।
ब्राह्मण वही है जो तप, त्याग, संयम, ज्ञान, उदारता एवं लोकहित जैसी प्रवृत्तियों को कूट-कूट कर अपने अंदर भरते हैं और एक मजबूत बांध की तरह सुदृढ़ आधार पर खड़े होते हैं। फिर वे एक वाशिला की तरह जनमानस की धारा को उचित दिशा में मोड़ने के लिए दृढ़तापूर्वक अड़ जाते हैं। वे जो भी क्षेत्र चुन लेते हैं, उसी में अपने श्रेष्ठ व्यक्तित्व, उच्च आदर्श एवं प्रचंड पुरुषार्थ द्वारा लाखों-करोड़ों मनुष्य के भीतर असुरता और स्वार्थपरता को घटाकर देवत्व को बढ़ाने में सफलता प्राप्त करते हैं।
ब्राह्मण का धर्म है समाज को जागृत बनाये रखना।
यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च समयञ्जौ चरतः सह।
तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेषं यत्र देवाः सहाग्निना।।
(यजुर्वेद 20/25)
भावार्थ – जहां ज्ञान द्वारा सत्कर्मों को जागृत रखना जरूरी है, वहां शस्त्र द्वारा दुष्टों का संहार भी आवश्यक है। ज्ञान और कर्म के संयोग से ही सर्वांगपूर्ण आध्यात्मिक जीवन बनता है। ब्राह्मण वर्ण का ज्ञान और क्षत्रिय वर्ण का तेज जहां साथ-साथ रहेगा, वह समाज सदैव फलता-फूलता रहेगा।
गीता में भगवान ने कहा है कि समय-समय पर वह पृथ्वी पर अवतार लेते रहे हैं। किसलिए? परित्राणाय साधुनां विनाशाय च दुष्कृतां ही उनका लक्ष्य रहा है। संसार में सत्कर्मी साधु व्यक्तियों की रक्षा करना और दुष्ट, दुराचारी, पापी लोगों का संहार करना। समझाने-बुझाने से बात न बने, साम-दाम, दण्ड-भेद किसी भी तरह उनको सीधे रास्ते पर न लाया जा सके, तो उनका संहार करना ही धर्म है। “निशिचरहीन करौं महि’ ही संसार को सुखी बनाने का मूलतंत्र है। इसी से रामराज्य की स्थापना हुई थी।
यह आवश्यक नहीं है कि परमात्मा तीर-कमान लेकर या बांसुरी बजाता हुआ ही अवतार ले और वही धरती को पापी-राक्षसों से मुक्ति दिलाये। वह तो हर समय, हर स्थान पर उपस्थित रहता है। हमारे शरीर के रोम-रोम में, कण-कण में, रग-रग में वह विद्यमान है। उस परमात्मा का पवित्र अंश ही हमारी आत्मा है। हम ही उसके प्रतिनिधि हैं, दुलारे राजकुमार हैं, उसके असंख्य अनुदान व वरदान हमें प्राप्त होते हैं। हमें ही अपनी प्रवृत्ति व क्षमता का संसार में सत्कर्मों के प्रसार और दुष्कर्मों के नाश करने हेतु उपयोग करना चाहिए। यही सच्चा मानव धर्म है। ज्ञानयोग और कर्मयोग की साधना साथ-साथ करने में ही मानव शरीर की उपयोगिता है। अन्यथा हममें और पशुओं में क्या अंतर रह जाएगा?
मनुष्य और पशु में सिर्फ इतना ही अंतर है कि पशु किसी मर्यादा में बंधा हुआ नहीं है। मनुष्य के ऊपर हजारों मर्यादाएँ और नैतिक नियम बांधे गये हैं और सारी जिम्मेदारियां लादी गयी हैं। जिम्मेदारियों और कर्त्तव्यों को पूरा करना उसका धर्म है। शरीर के प्रति हमारा कर्त्तव्य है कि उसे हम निरोग रखें। मस्तिष्क के प्रति हमारा कर्त्तव्य है कि उसको सद्गुणी बनायें। देश, धर्म, समाज और संस्कृति के प्रति हमारा कर्त्तव्य है कि उन्हें भी समुन्नत बनाने के लिए भरपूर ध्यान रखें। लोभ और मोह के पाश से अपने आपको छुड़ाकर अपनी जीवात्मा का उद्घार करना, यह भी हमारा कर्त्तव्य है और भगवान ने जिस काम के लिए मनुष्य-योनि में जन्म दिया है, उस काम को पूरा करना भी हमारा कर्त्तव्य है। अपने ज्ञान और प्रतिभा की उत्तरोत्तर वृद्घि करते हुए तदनुसार श्रेष्ठ आचरण करना भी हमारा पवित्र कर्त्तव्य है। यही ज्ञानयोग व कर्मयोग की सच्ची साधना है। असली ईश्र्वर-भक्ति है। यही मानव को मानवता की गरिमा प्रदान करती है।
वर्ण-व्यवस्था में चारों वर्णों को समाज के उत्थान हेतु सम्मिलित रूप से कार्य करने का विधान था, जिसे हम भूलते जा रहे हैं। इस ज्ञान के अंकुश द्वारा ही समाज तेजस्वी, वर्चस्वी बनता है, उन्नति करता है और फलता-फूलता है।
You must be logged in to post a comment Login