पांचवीं महाविद्या भुवनेश्वरी

देवी भागवत में वर्णित मणिद्वीप की अधिष्ठात्री देवी हृल्लेखा (ठी) मंत्र की स्वरूपाशक्ति और सृष्टिाम में महालक्ष्मी स्वरूपा- आदिशक्ति भगवती भुवनेश्र्वरी भगवान शिव के समस्त लीला-विलास की सहचरी हैं।

जगदम्बा भुवनेश्र्वरी का स्वरूप सौम्य और अंगकांति अरुण है। भक्तों को अभय और समस्त सिद्घियॉं प्रदान करना इनका स्वाभाविक गुण है। दशमहाविद्याओं में ये पॉंचवें स्थान पर परिगणित हैं। देवी-पुराण के अनुसार मूल प्रकृति का दूसरा नाम ही भुवनेश्र्वरी है। ईश्र्वर रात्रि में जब ईश्र्वर के जगद्रूप व्यवहार का लोप हो जाता है, उस समय केवल ब्रह्म अपनी अव्यक्त प्रकृति के साथ शेष रहता है, तब ईश्र्वर रात्रि की अधिष्ठात्री देवी भुवनेश्र्वरी कहलाती हैं।

अंकुश और पाश इनके मुख्य आयुध हैं। अंकुश नियंत्रण का प्रतीक है और पाश राग अथवा आसक्ति का। इस प्रकार सर्वरूपा मूल प्रकृति ही भुवनेश्र्वरी हैं, जो विश्र्व को वमन करने के कारण वामा, शिवमयी होने से ज्येष्ठा तथा कर्म-नियंत्रण, फलदान और जीवों को दंडित करने के कारण रौद्री कही जाती हैं। भगवान शिव का वाम भाग ही भुवनेश्र्वरी कहलाता है। भुवनेश्र्वरी के संग से ही भुवनेश्र्वर सदाशिव को सर्वेश होने की योग्यता प्राप्त होती है।

महानिर्वाण तंत्र के अनुसार संपूर्ण महाविद्याएँ भगवती भुवनेश्र्वरी की सेवा में संलग्न रहती हैं। सात करोड़ महामंत्र इनकी सदा आराधना करते हैं। दशमहाविद्याएँ ही दस सोपान हैं। काली तत्व से निर्गत होकर कमला तत्त्व तक की दस स्थितियॉं हैं, जिनमें अव्यक्त जगत् से ामशः लय होकर काली रूप में मूल प्रकृति बन जाती हैं। इसलिए इन्हें काल की जन्मदात्री भी कहा जाता है।

दुर्गासप्तशती के ग्यारहवें अध्याय के मंगलाचरण में भी कहा गया है कि ” मैं भुवनेश्र्वरी देवी का ध्यान करता हूँ, उनके श्री अंगों की शोभा प्रातःकाल के सूर्य देव के समान अरुणाभ है। उनके मस्तक पर चंद्रमा का मुकुट है। तीन नेत्रों से युक्त देवी के मुख पर मुस्कान की छटा छाई रहती है। उनके हाथों में पाश, अंकुश, वरद एवं अभय मुद्रा शोभा पाते हैं।

इस प्रकार बृहन्नीलतंत्र की यह धारणा पुराणों के विवरणों से भी पुष्ट होती है कि प्रकारान्तर से काली और भुवनेशी दोनों में अभेद है। अव्यक्त प्रकृति भुवनेश्वरी ही रक्तवर्णा काली हैं। देवी भागवत के अनुसार दुर्गम नामक दैत्य के अत्याचार से संतप्त होकर देवताओं और ब्राह्मणों ने हिमालय पर सर्वकारण स्वरूपा भगवती भुवनेश्र्वरी की ही आराधना की थी।

उनकी आराधना से प्रसन्न होकर भगवती भुवनेश्र्वरी तत्काल प्रकट हो गईं। वे अपने हाथों में बाण, कमल-पुष्प तथा शाक-मूल लिए हुए थीं। उन्होंने अपने नेत्रों से अश्रुजल की सहस्त्रों धाराएँ प्रकट कीं। इस जल से भूमंडल के सभी प्राणी तृप्त हो गए। समुद्रों तथा सरिताओं में अगाध जल भर गया और समस्त औषधियॉं सिंच गईं।

अपने हाथ में लिए गए शाकों और फल-मूल से प्राणियों का पोषण करने के कारण भगवती भुवनेश्र्वरी ही “शताक्षी’ तथा “शाकम्भरी’ नाम से विख्यात हुईं। इन्होंने ही दुर्गमासुर को युद्घ में मारकर उसके द्वारा अपहृत वेदों को देवताओं को पुनः सौंपा था। उसके बाद भगवती भुवनेश्र्वरी का एक नाम दुर्गा प्रसिद्घ हुआ।

भगवती भुवनेश्र्वरी की उपासना पुत्र प्राप्ति के लिए विशेष फलप्रद है। रुद्रयामल में इनका कवच, नील सरस्वती तंत्र में इनका हृदय तथा महातंत्रार्णव में इनका सहस्त्रनाम संकलित है।

मंत्र

ॐ ऐं ह्रीं श्रीं स्वाहा।

यंत्र

कुण्डलिनी शक्ति जागरण में महाविद्या भुवनेश्र्वरी का मणिपुर चा पर संधान किया जाता है।

You must be logged in to post a comment Login