तर्क-वितर्क चाहे कितने ही पेश किए जाएं लेकिन इस हकीकत से इनकार करना कठिन है कि पाकिस्तान की आईएसआई (इंटर सर्विस इंटेलिजेंस) अपने आप में कानून है। दूसरे व स्पष्ट शब्दों में आईएसआई अपनी मर्जी की करती है और कम से कम पाकिस्तान की सिविलियन हुकूमत की वह एक बात भी नहीं सुनती है। यह बात एक बार फिर साबित हुई जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री यूसुफ ऱजा गिलानी ने आईएसआई को गृह मंत्रालय के अधीन लाने का आदेश दिया, लेकिन कुछ ही घंटों में उन्हें अपने फैसले को बदलना पड़ा।
गौरतलब है कि बीती 26 जुलाई को प्रधानमंत्री गिलानी ने एक आदेश जारी किया कि आईएसआई और इंटेलिजेंस ब्यूरो को “तत्काल प्रभाव’ से गृह मंत्रालय के अधीन किया जा रहा है। अब गृह मंत्रालय ही इन दोनों एजेंसियों के प्रशासनिक, वित्त और कामकाज को देखेगा। यह हुक्म देने के बाद गिलानी लंदन होते हुए वाशिंगटन की यात्रा पर निकल गये।
लेकिन जब गिलानी लंदन में थे, रावलपिंडी से उनके पास दो इमरजेंसी कॉल पहुंचीं। इनके मिलते ही गिलानी ने अपना फैसला बदल दिया और फौरन ही एक दूसरा आदेश जारी किया गया जिसका मकसद यह था कि आईएसआई पूर्व की भांति बेरोकटोक अपना काम करती रहेगी और उस पर किसी किस्म की पाबंदी नहीं लगाई जायेगी। अक्तूबर, 1999 में सेना प्रमुख परवेज मुशर्रफ ने तत्कालीन प्रधानमंत्री नवाज शरीफ का तख्ता पलटकर सत्ता की बागडोर पर अपना कब्जा बनाया था, उसी समय से आईएसआई मुशर्रफ को रिपोर्ट कर रही है। लेकिन इस साल मार्च में नई सरकार ने हुकूमत संभाली और आईएसआई पर कब्जा जमाने का संघर्ष शुरू हो गया।
बहरहाल, इस एक घटना से न सिर्फ इस बात का अंदाजा हो जाता है कि पाकिस्तान की सत्ता में आईएसआई सबसे म़जबूत एजेंसी है बल्कि यह तथ्य भी स्पष्ट हो जाता है कि उसके कामकाज का तरीका बेहद संदिग्ध है जिस पर से पाकिस्तान की सेना पर्दा नहीं उठाना चाहती। ध्यान रहे कि जैसे ही गिलानी ने पहला आदेश जारी किया, पाकिस्तान के राष्टपति परवेज मुशर्रफ ने फौरन ही पाकिस्तान के सेना प्रमुख जनरल अशरफ कयानी से संपर्क स्थापित किया और पाकिस्तान की नवगठित साझा सरकार के पर कतरने की योजना बनायी।
दरअसल, आईएसआई के डायरेक्टर जनरल पाकिस्तान सेना के एक कार्यरत जनरल हैं। इसी से अनुमान लगाया जा सकता है कि आईएसआई पाकिस्तानी सेना का हिस्सा है और उसी के लिए काम करती है। पिछले तजुर्बों से भी यह स्पष्ट है कि आईएसआई पाकिस्तानी सियासत को सेना के पक्ष में मोड़ने का काम करती है। इसके अलावा वह चुनावों में धांधली करती है और राजनीतिक पार्टियों के बीच चुनावपूर्व गठबंधन भी उसी की मर्जी से व इशारे पर होते हैं। तथाकथित जेहाद के नाम पर अफगानिस्तान और कश्मीर से लेकर पूरी दुनिया में जो आतंक फैलाया जा रहा है, उसके पीछे भी आईएसआई का हाथ ही माना जाता है। शायद यही वजह है कि अमेरिकी राष्टपति पद के दावेदार बराक हुसैन ओबामा का कहना है कि “पाकिस्तान (पढ़ें आईएसआई) ही अफगानिस्तान और कश्मीर घाटी में मुजाहिदीनों का समर्थन कर रहा है जिसकी वजह से इन क्षेत्रों में आस्थरता फैली हुई है।’
गिलानी के उक्त आदेशों से यह भी जाहिर हो जाता है कि पाकिस्तान में नई चुनी हुई सरकार और पुरानी व्यवस्था के बीच जबरदस्त घमासान चल रहा है। नई सिविलियन सरकार बदलते अंतर्राष्टीय माहौल के तहत कुछ नया करना चाहती है जिससे पाकिस्तान की छवि व अर्थव्यवस्था में सुधार आये, जिसके लिए आईएसआई पर लगाम कसना आवश्यक है। इसी को मद्देनजर रखते हुए पाकिस्तान पीपुल्स पार्टी के सह-अध्यक्ष आसिफ अली जरदारी ने हाल ही में कहा था कि आईएसआई को गृह मंत्रालय के अधीन करने का अर्थ सिविलियन राज की ओर कदम बढ़ाना होगा। यह बात इस लिहाज से भी सही लगती है क्योंकि एक लोकतंत्र में हर एजेंसी को, चाहे वह आईएसआई हो या आईबी, उसे संसद के प्रति जवाबदेह होना चाहिए और संविधान के दायरे में रहकर ही उसे अपना काम करना चाहिए। जब खुफिया एजेंसियां संसद के प्रति जवाबदेह नहीं होती हैं तो वह निर्दोष नागरिकों या सरकार के विरोधियों को परेशान करती हैं। इसमें शक नहीं है कि फिलहाल आईएसआई सरकार के अदंर सरकार बनकर काम कर रही है। पाकिस्तान की मौजूदा सिविलियन सरकार इस स्थिति को बदलना चाहती है।
लेकिन दूसरी ओर राष्टपति मुशर्रफ, सेना प्रमुख कियानी वगैरह पुरानी स्थिति को बरकरार रखना चाहते हैं। हालांकि ़जाहिरा तौर पर तो उनका कहना यह है कि आईएसआई बहुत बड़ा संगठन है जिसके वित्तीय, प्रशासनिक और कार्यक्षेत्र से निपटना गृह मंत्रालय के बूते की बात नहीं है, लेकिन असल बात यही है कि यह लोग आईएसआई को सेना के अधीन ही रखना चाहते हैं ताकि पाकिस्तानी सियासत पर सेना की ही पकड़ बरकरार रहे। ़जाहिर है कि इनका तर्क बहुत ही अटपटा है क्योंकि अगर किसी देश की सरकार एक एजेंसी को चाहे वह कितनी ही बड़ी क्यों न हो, अपने काबू में नहीं रख सकती तो भला सेना कैसे रख सकती है?
यह प्रश्न इसलिए भी प्रासंगिक है क्योंकि आईएसआई इतनी बड़ी और मजबूत हो गयी है कि सेना की भी पकड़ उस पर पूरी तरह से नहीं है। ध्यान रहे कि जब गिलानी का पहला आदेश आया था तो आईएसपीआर (इंटर सर्विसे़ज पब्लिक रिलेशन) के डायरेक्टर जनरल मेजर जनरल अतर अब्बास ने सवाल किया था कि सेना प्रमुख और अन्य रक्षा अधिकारियों को विश्र्वास में लिये बगैर सरकार ने आईएसआई को गृह मंत्रालय के अधीन करने का आदेश कैसे जारी कर दिया? यहां यह बताना भी जरूरी है कि पाकिस्तान के तालिबान नेता बैतुल्ला महसूद ने हाल ही में फाता क्षेत्र में एक प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन किया था। इस प्रेस कांफ्रेंस के बारे में न पाकिस्तान सरकार को और न ही पाकिस्तान के सेना प्रमुख को कुछ मालूम था। स्पष्ट है कि आईएसआई ने इन दोनों को ही अंधेरे में रखा क्योंकि यह बात हजम नहीं हो सकती कि प्रेस कांफ्रेंस की खबर आईएसआई को भी न थी। अमेरिकी खुफिया एजेंसियों का तो यहां तक भी कहना है कि महसूद की प्रेस कांफ्रेंस का आयोजन ही आईएसआई ने किया था।
पाकिस्तान में फिलहाल जो सत्ता व्यवस्था कायम है उसमें ऐसी कोई सूरत नहीं है कि एक कार्यरत जनरल गृह मंत्रालय को रिपोर्ट करे। जैसा कि ऊपर कहा गया है, आईएसआई का प्रमुख एक कार्यरत जनरल है, इसलिए सिविलियन सरकार और सेना के बीच यह संघर्ष तो होना ही था। लेकिन जिस तरह पाकिस्तान में सेना अपने पैर मजबूती से जमाये हुए है उससे यह नहीं लगता कि निकट भविष्य में गिलानी या कोई दूसरा सिविलियन प्रधानमंत्री आईएसआई को अपने कब्जे में कर सकेगा और पाकिस्तान व दुनिया को आईएसआई की दहशत से मुक्ति प्रदान करा सकेगा।
– डॉ. एम.सी. छाबड़ा
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