प्रशासनिक सुधार आयोग की आतंकवाद के खिलाफ कठोर कानून बनाने की सिफारिश संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन (संप्रग) की वैचारिक राजनीति का शिकार हो गयी और इसी के साथ धारावाहिक बम विस्फोटों के बाद संप्रग सरकार की आतंकवाद की धार को कुंद करने के सभी बयानों का नतीजा भी धराशायी हो गया। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने धारावाहिक बम विस्फोटों के बाद मंत्रिमंडल की बैठक बुलाकर आतंकवादियों के खिलाफ प्रशासनिक सुधार आयोग की सिफारिश के अनुसार कड़े कानून बनाने की बात कही थी और एक संघीय जॉंच एजेंसी बनाने की भी आवश्यकता जतायी थी। लेकिन दो दिन बाद ही संप्रग सरकार ने अपने बयानों से पल्ला झाड़ लिया और साफतौर पर घोषणा कर दी कि पोटा जैसे कठोर कानूनों की ़जरूरत नहीं है। देश के मौजूदा कानून आतंकवाद की समस्या से निपटने के लिए काफी हैं। संघीय जॉंच एजेंसी के गठन के प्रश्र्न्न को भी ठंडे बस्ते में डाल दिया गया। तर्क यह दिया जा रहा है कि पोटा कानून के वक्त भी आतंकवादी घटनाएं घटी थीं। इसलिए पोटा जैसे कानून बना देने के बाद भी आतंकवाद की घटनाएं नहीं रुकेंगी। अगर ऐसा है तो फिर संप्रग सरकार को यह बताना चाहिए कि आतंकवाद की समस्या का समाधान क्या है? कब तक निर्दोष जिन्दगियां आतंकवाद की खूनी हिंसा का शिकार होती रहेंगी? देश की सुरक्षा महत्वपूर्ण नहीं है? क्या आतंकवादी कठोर कानूनों के अभाव में अपनी दहशतगर्दी नहीं चला रहे हैं? आतंकवादियों के खिलाफ कठोर कार्रवाई नहीं होने के कारण ही हम आतंकवाद का स्थायी तौर पर शिकार हैं। यह तय माना जाना चाहिए कि जब तक कठोर कानून नहीं बनेंगे, नीतियां स्पष्ट नहीं होंगी तब तक हम आतंकवाद का आसान शिकार बनते रहेंगे। वैचारिक समझ तुष्टीकरण पर आधारित है। यह प्रचारित करने का प्रयास किया जा रहा है कि उपेक्षा और उत्पीड़न के कारण मुस्लिम युवक आतंकवाद की ओर जाने के लिए गुमराह हो रहे हैं। मुसलमानों को वास्तविक विकास के मौके नहीं मिले हैं। पर यह समझ संप्रग सरकार और तथाकथित धर्मनिरपेक्ष शक्तियों का तुष्टीकरण ही स्पष्ट करता है। यह सही है कि मुस्लिम वर्ग कम विकसित है। जहॉं तक उत्पीड़न की बात है, तो देश में ऐसे कई वर्ग हैं जिन्हें विकास के मौके आरक्षण की नीति के बाद भी नहीं मिले हैं और उनका सर्वाधिक उत्पीड़न भी हुआ है। दलित और आदिवासी समुदाय के लिए आरक्षण के संरक्षण के बाद भी उनका विकास क्या अन्य लोगों की तुलना में बेहतर हुआ है? क्या आज खासकर आदिवासी समाज हाशिये पर नहीं है? क्या दलितों को धार्मिक और सामाजिक उत्पीड़न का शिकार बनने के लिए बाध्य नहीं किया जाता है? सबसे बड़ी बात यह है कि हमारे लोकतंत्र की व्यवस्था में विरोध का अधिकार सुरक्षित है। लोकतांत्रिक तौर पर विरोध का रास्ता यह वर्ग आखिर क्यों नहीं अपना रहा है? इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि मुस्लिम वर्ग के पिछड़ेपन में खुद उनका धार्मिक आधार कम जिम्मेदार नहीं है। शिक्षा की कमी और धार्मिक कट्टरता तथा दकियानूसी का फैला हुआ जंजाल एक बड़ा कारण है, जिससे निकलने की कोशिश यह वर्ग कब करेगा, कोई नहीं जानता।
स्पष्ट यह भी हो गया है कि आतंकवाद से सिर्फ अनपढ़ नहीं बल्कि पढ़े-लिखे मुस्लिम युवक जुड़े हुए हैं। पिछले दो साल में आतंकवाद की जितनी घटनाएं घटी हैं उनसे जुड़े सभी युवक पढ़े-लिखे और संपन्न मुस्लिम परिवारों से हैं। ब्रिटेन में हवाई अड्डे को उड़ाने का असफल प्रयास करने वाला एमबीबीएस डिग्रीधारक था। दिल्ली के धारावाहिक बम ब्लास्ट का मास्टर माइंड तौकीर खुद हाईटेक नौजवान है और काफी संपन्न परिवार से है। गरीब और मेहनतकश मुस्लिम वर्ग आतंकवाद से जुड़ा हुआ नहीं है। अपवाद में कुछ नाम हो सकते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि देश में जिस तरह देवबंद की कट्टरता परवान चढ़ रही है उससे आतंकवाद को खाद और पानी ही मिलता है। आज देश में एक नहीं बल्कि कई देवबंद अस्तित्व में आ चुके हैं जिनका एकमात्र मकसद कट्टरता का जहर बोना और धार्मिक असहिष्णुता फैलाना है। संज्ञान में लेने वाली बात यह है कि इस निमित्त खासकर अरब देशों की संलिप्तता भी ़िजम्मेदार है। मदरसों में अरब देशों का पैसा लग रहा है। अरब देश भारत में जनमत को प्रभावित करने के खेल में लगे हुए हैं। ईरान, लीबिया जैसे देशों के खेल से संबंधित सभी तथ्य सुरक्षा एजेंसियों के पास मौजूद हैं।
देश के संविधान में सुरक्षा की व्यवस्था राज्य सरकारों की जिम्मेदारी है। कई राज्य ऐसे हैं जिन्होंने आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून बनाने की कोशिश की है, पर केन्द्र सरकार ने उनके प्रस्तावों को रद्दी की टोकरी में डालने का काम किया है। गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने विधानसभा से पारित कराकर केन्द्र की स्वीकृति के लिए आतंकवाद विरोधी कानून भेजा है। इस कानून को स्वीकृति देने के बजाय रोक कर रखा गया है। मायावती तो केन्द्र सरकार के रुख से इतनी नारा़ज हो गयीं कि वह अपने द्वारा भेजे गये कानून को वापस लेने के लिए बाध्य हो गयीं। संप्रग सरकार का तर्क यह है कि ऐसे कानूनों का दुरुपयोग होता है। देश में ऐसा कौन-सा कानून है जिसका दुरुपयोग नहीं होता है? यह माना जा सकता है कि पोटा या टाडा जैसे कानूनों का दुरुपयोग हुआ है लेकिन दुरुपयोग रोकने की जगह कड़े कानूनों को समाप्त करना कहॉं तक सही है? दुरुपयोग के डर से कड़े कानून नहीं बनने देना सीधे तौर राष्ट के सम्मान के साथ खिलवाड़ है। टाडा और पोटा जैसे कानूनों से क्या सिर्फ एक वर्ग विशेष पर ही कार्रवाई हुई थी? क्या पोटा में वाइको जैसा नेता बंद नहीं था? अगर कोई वर्ग आतंकवाद के साथ चलेगा और निर्दोष लोगों की ़िंजदगी से खेलेगा तो उसके खिलाफ कार्रवाई कैसे रोकी जा सकती है?
दुनिया में पोटा से भी कई गुणा कड़े कानून बने हैं। अमेरिका-ब्रिटेन जैसे देशों ने अपनी-अपनी सुरक्षा को चाकचौबंद किया है। अमेरिका और ब्रिटेन में आतंकवादी क्यों नहीं फिर से हमला करने में सफल हो रहे हैं। इसलिए कि उनकी नीतियां स्पष्ट हैं। वे आतंकवाद की मांद में जाकर कार्रवाई करने की शक्ति रखते हैं। उनकी सुरक्षा एजेंसियां आतंकवाद की घटना घटे, इसके पहले ही आतंकवादियों को कानून का पाठ पढ़ाने के लिए तत्पर रहती हैं। इसलिए कि सुरक्षा एजेंसियों में राजनीतिक घुसपैठ और दबाव नहीं होता है। पक्ष और विपक्ष राष्टीय मुद्दे और संकट में एक साथ होते हैं। आंतरिक और बाह्य सुरक्षा एजेंसियों में तालमेल की कोई कमी नहीं है। लेकिन हमारे देश में सुरक्षा एजेंसियों में न तो कोई तालमेल है और न ही किसी ़िजम्मेदारी के हनन पर कार्रवाई का डर। डर नहीं होने से ़िजम्मेदारी का अहसास कैसे होगा? कारगिल घुसपैठ और एक पर एक आतंकवादी घटनाएं सुरक्षा एजेंसियों की नाकामी रही है। लेकिन आज तक एक भी सुरक्षा एजेंसी के प्रमुख पर कार्रवाई नहीं हुई। इतना भर ही नहीं है। सुरक्षा एजेंसियों के बीच तालमेल का अभाव भी है। अगर सुरक्षा एजेंसियां तथ्यपरक रिपोर्ट दे भी देती हैं तब भी आतंकवादी बच निकलते हैं। इसलिए कि कार्रवाई का ़िजम्मा पुलिस का होता है। राज्यों की पुलिस अभी भी परंपरागत रवैये से बाहर नहीं निकली है और न ही वह राजनीतिक दबावों से मुक्त है।
देश में जब तक सिमी और इंडियन मुजाहिदीन की समर्थक पार्टियां सत्ता में रहेंगी तब तक आतंकवाद की खौफनाक घटनाएं इसी तरह से जारी रहेंगी। केन्द्रीय मंत्रिमंडल के कुछ दबंग नेता क्या सिमी के समर्थक नहीं हैं? क्या उनके सिमी समर्थक बयानों को खारिज किया जा सकता है? मोइली की अध्यक्षता वाली प्रशासनिक सुधार आयोग की रिपोर्ट के अनुसार आतंकवाद के खिलाफ कड़े कानून बनाने से इनकार कर संप्रग सरकार ने ़जाहिर कर दिया कि उनकी नीतियां तुष्टीकरण पर आधारित हैं और उनके लिए निर्दोष लोगों की जिंदगी का कोई मायने नहीं है। यह राष्ट के सम्मान और सुरक्षा के साथ समझौता है और इसके पीछे एकमात्र वोट की राजनीति है।
– विष्णु गुप्त
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