धर्मांतरण मुद्दा जरूर है लेकिन…

धर्मांतरण एक मुद्दा है और ऐसा भी नहीं है कि यह मुद्दा एकाएक पैदा हो गया है। कई-कई संदर्भों में यह मुद्दा पिछली कई शताब्दियों से देश की राजनीति के केन्द्र में रहा है। देश में इस्लामी सत्ता की स्थापना के बाद बड़े पैमाने पर तलवार के बल पर हिन्दुओं को इस्लाम स्वीकार करने के लिए विवश किया गया। बाद में अंग्रे़जी सत्ता स्थापित हो जाने के बाद लोभ-लालच के आधार पर बड़े पैमाने पर ईसाई मिशनरियों ने दलितों और आदिवासियों को अपने संप्रदाय में शामिल करने का काम किया। ़खुद महात्मा गांधी ने इन मिशनरियों को तब ऐसा न करने के लिए आगाह करते हुए जबरन अथवा प्रलोभन के जरिये कराये जा रहे धर्मांतरण पर रोक लगाने संबंधी एक राष्टीय कानून की वकालत की थी। अतएव मौजूदा समय में देश के कई हिस्सों में हो रहे धर्मांतरण विरोधी आन्दोलन में उपजी अराजकता और हिंसा की भर्त्सना करते हुए भी उन ईसाई मिशनरियों को भी सर्वथा निर्दोष होने की “क्लीन-चिट’ नहीं दी जा सकती। क्योंकि इस अराजक हिंसा, जिसमें उनके धर्म-स्थल, संस्थान और उनके समर्थकों के घर जलने लगे हैं, की पैदाइश की जिम्मेदारी बहुत हद तक उनकी भी है।

इस दृष्टि से उड़ीसा और कर्नाटक में ईसाईयों और उनके संस्थानों पर कथित तौर पर हमलावर होने वाली हिन्दुत्ववादी जमातें अगर कहती हैं कि अराजक हिंसा के पीछे धर्मांतरण एक मुद्दा है तो वे आधा सच ़जरूर कह रही हैं। धर्मांतरण एक मुद्दा ़जरूर है लेकिन एक मात्र मुद्दा नहीं है। अगर वह मुद्दा है भी तो उसे लागू करने के लिए देश के संविधान और कानून-व्यवस्था की धज्जियॉं उड़ाने का अधिकार किसी व्यक्ति या जमात को नहीं दिया जा सकता। उन्हें यह भी समझना चाहिये कि कथित तौर पर उनके नेतृत्व में अथवा प्रोत्साहन से जो अराजक हिंसा का तांडव रचा जा रहा है, उससे उनका पक्ष मजबूत होने की जगह कमजोर ही होता है। अगर वे अपने को राष्टवादी मानते हैं तो उन्हें यह भी मानना होगा कि वे राष्ट की नींव कमजोर करने का ही काम कर रहे हैं। उन्हें हर हाल में यह सोचना होगा कि ऐसा करते हुए जेहादी आतंकवादियों और नक्सलवादियों से वे अपने को विलग कैसे कर पायेंगे? कभी-कभी सही मुद्दा भी तब गलत हो जाता है जब उसकी प्रस्तुति गलत ढंग से की जाती है।

इस स्थिति में मुद्दे की सार्थकता या तो गलत अर्थ देने लगती है अथवा अपना वास्तविक अर्थ खो देती है। देश में एक लोकतांत्रिक व्यवस्था है और देश में संविधान का राज है। यह तभी तक कायम है जब तक हम इस व्यवस्था के प्रति आस्थावान हैं। इस बात की अवहेलना नहीं की जा सकती कि राष्टीय अखंडता भी तभी तक सुरक्षित है जब तक देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था महफूज है। हर उस कृत्य को इस दृष्टि से अराष्टीय ही कहा जाएगा जो इस लोकतांत्रिक व्यवस्था का दलन करते हुए हिंसा के बल पर अपनी बात को मनवाने की कोशिश करता है। इस तरह की परिस्थितियों का फायदा उठाकर चुनाव जीता जा सकता है, सत्ता भी हासिल की जा सकती है, लेकिन राष्ट-निर्माण तो कत्तई नहीं किया जा सकता। अपनी-अपनी राजनैतिक प्रतिबद्घताओं का इ़जहार करते समय उड़ीसा और कर्नाटक के सत्ताधारियों को यह भी सोचना चाहिये कि उन्हें किसी पार्टी का एजेंडा नहीं लागू करना है क्योंकि शपथ उन्होंने संविधान की ली है। उन्हें उस “राजधर्म’ को प्रमुखता देनी होगी जिसकी सीख कभी राजग सरकार के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने गुजरात-दंगों के संदर्भ में मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी को दी थी।

एक उपयोगी सुझाव

गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी ने बढ़ती आतंकवादी गतिविधियों पर अंकुश लगाने के तहत कुछ उपयोगी सुझाव दिये हैं। इन सुझावों पर अमल कर आतंकवाद को समाप्त भले न किया जा सके लेकिन इसे नियंत्रित ़जरूर किया जा सकता है। पहली बात तो उन्होंने यह कही है कि इसका मुकाबला करने के लिए राष्टीय स्तर पर एक समन्वित नीति के तहत रणनीतिक योजना बनायी जानी चाहिए। दूसरी बात उन्होंने यह कही है कि गुप्तचर सेवा का कैडर देश में उसी स्तर का तैयार किया जाना चाहिए जिस स्तर का आईएएस और आईपीएस का कैडर तैयार किया जाता है। उनका यह भी कहना है कि मेरे इन सुझावों पर सकारात्मक प्रतििाया व्यक्त करने के बावजूद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने इसे जो तवज्जो दी जानी चाहिए वह नहीं दी। मोदी ने अब अपनी ओर से इसे साकार रूप देने के तहत गुजरात में दो नये विश्र्वविद्यालयों की स्थापना का निर्णय लिया है। एक विश्र्वविद्यालय तो आधुनिक तकनीक का प्रशिक्षण देने वाला फोरेंसिक विश्र्वविद्यालय होगा और दूसरा रक्षा-शक्ति विश्र्वविद्यालय होगा, जिसमें नौजवानों को मानसिक और शारीरिक रूप से आतंकवाद के खिलाफ लड़ने के लिए तैयार किया जाएगा। मोदी के दिये गये ये सभी सुझाव बहुत हद तक आतंकवाद के खिलाफ हमारी लड़ाई को मजबूत बनाने में कारगर सिद्घ हो सकते हैं। यह सही है कि आतंकवादी घटनाओं ने सबसे अधिक हमारे सुरक्षा बलों का मनोबल तोड़ा है। एक तो इन बलों को राजनीतिक दबावों के बीच रह कर काम करना पड़ता है, दूसरे इनमें आपसी समन्वय का भी अभाव है। सामान्य आदमी अब अपनी जिन्दगी का नियंता आतंकवादियों को मानने को मजबूर है। लेकिन राजनीति सब कुछ से बेपरवाह अपनी फितरत से बा़ज नहीं आ रही। कहते सब हैं कि आतंकवाद जैसे मुद्दे पर राजनीति नहीं होनी चाहिए लेकिन कर सब रहे हैं। इस दिशा में मोदी के सुझाव को उपयोगी माना जा सकता है, बशर्ते इसमें राजनीतिक ईमानदारी हो।

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