किसी शायर ने कहा है-
जिंदगी जिंदादिली का नाम है,
मुर्दे क्या खाक जिया करते हैं।
वास्तव में न सिर्फ जीवंतता से जीना ही जीना है, बल्कि जीवंतता जीने की एक कला है। जिसे कोई भी अपने आचरण का हिस्सा बना सकता है, लेकिन होता इसके उल्टा है। लोग जीते नहीं हैं, बल्कि जिंदगी गुजारा करते हैं। बातचीत में भी अक्सर कहते हैं,””बस कट रही है।” वास्तव में जिंदगी के प्रति यह बुझा और निढाल रवैया ही बुढ़ापा है। यही बुढ़ापे की असली समस्या है। महिलाओं के संदर्भ में खासतौर पर यह देखने में आता है कि वह जब प्रौढ़ावस्था के दौर से गुजर रही होती हैं, तो खुद को बड़ा उपेक्षित एवं अकेला महसूस करती हैं। उनमें अक्सर जीने की चाह और इसका तरीका बदल जाता है। उन्हें जीवन उद्देश्यहीन लगने लगता है।
दरअसल होता यह है कि उम्र के इस पड़ाव तक आते-आते बच्चे आत्मनिर्भर हो जाते हैं। पति 99 के फेर में व्यस्त हो जाते हैं, अब तक घर सारी सुख-सुविधाओं से भरा-पूरा होता है, लेकिन प्रौढ़ महिलाओं के लिए यही चुनौती भरा समय होता है। उन्हें समझ में ही नहीं आता कि वह करें तो क्या? उनकी उपयोगिता क्या है? अब उन्हें अपने इन सवालों का संतोषजनक जवाब नहीं मिलता, तो वह स्वयं को बूढ़ा और बेकार समझकर नीरस और उबाऊ जीवन जीने लगती हैं या फिर उनके द्वारा उम्र के तकाजे का वास्ता दे दिया जाता है। जबकि यह सब अपनी-अपनी सोच एवं मानसिकता पर निर्भर करता है।
उम्र के छठे दशक से गुजर रहीं मेरी एक पड़ोसी कांता गुरुवक्षाणी बहुत ही होशियार एवं स्मार्ट हैं। वह अपने को किसी न किसी कार्य में व्यस्त रखती हैं। उनकी व्यवस्थित दिनचर्या है। कहीं किसी तरह का यदि व्यवधान आ भी जाए तो वह बड़ी सहजता से स्थिति संभाल लेती हैं। सिलाई, कढ़ाई, पेंटिंग, नृत्य, लेखन आदि में वह निपुण हैं। आंखों की वजह से थोड़ी परेशानी होती है, पर वे चश्मे की सहायता से काफी कुछ कर लेती हैं।
कांता जी की तीन बहुएं हैं। बहुएं ही रसोई संभाले हुए हैं, फिर भी वह खुद के निर्देशन में बहुओं से कार्य करवाती हैं। उनकी दक्षता और चतुराई के कारण कई कार्यों में पड़ोसी भी उनकी सलाह लेते हैं और आज के दौर के कार्यों को वे छोटों से सीखने में नहीं हिचकिचातीं। कोई नयी चीज देख कर उसे करने का उनका उत्साह और उमंग देखकर यही लगता है कि उन पर उम्र का कोई असर नहीं है। अभी दो महीने पहले ही कांता जी ने ई-मेल और साइबर चैटिंग करना सीखा है। हुआ दरअसल यह कि उनकी बड़ी बेटी कनाडा में सेटल है। उसके बच्चों के अक्सर ई-मेल आते हैं। वह घर के बच्चों को उनसे इंटरनेट के माध्यम से संपर्क करते देखतीं और मन मसोसकर रह जाती थीं कि काश वह भी ऐसा कर पातीं। लेकिन इस पर उन्होंने ज्यादा दिनों तक अफसोस नहीं जताया। मुहल्ले के एक इंस्टीट्यूट में एडमिशन ले लिया और आज वह धड़ल्ले से ई-मेल करती हैं। अब उनका अपनी बेटी तथा उसके परिवार से सीधा संपर्क रहता है।
इसके विपरीत 48 वर्षीय शीला, जिनके विवाह को 27 वर्ष बीत चुके हैं, बेटा और बेटी दोनों के विवाह एवं जिम्मेदारियों से निबट कर जीवन को एक बोझ की तरह ढोये जा रही हैं। उनका रहन-सहन उनके विचार तन से भी ज्यादा बूढ़े प्रतीत होते हैं। किसी मिलने वाले से बेहद उदास होकर मिलना उन्हें नजरअंदा़ज कर देने के लिए काफी होता है। ऐसी महिलाएं न तो खुश रहती हैं, न ही दूसरों को खुश रहने देती हैं। खुद का दुखड़ा रो-रो कर औरों को भी दुःखी करती रहती हैं। लेकिन जो महिलाएं पहले से ही यह विचार लेकर चलती हैं कि किस उम्र में उन्हें क्या करना है, वही उम्र के हर पड़ाव को ठीक ढंग से जी पाती हैं।
58 वर्षीय गौरा पंत एक सुशिक्षित एवं भद्र महिला हैं, पति विदेश सेवा में थे। जब वह ब्याह कर आयी थीं तब बड़ी ही साधारण-सी युवती थीं, पर उम्र बढ़ने के साथ-साथ उन्होंने खुद को संवारा, सारी कलाओं को सीखा, यहां तक कि 45 वर्ष की उम्र में गाड़ी चलाना भी सीखा। अब अपने आप को खुश रखते हुए दूसरों का मन भी प्रसन्नता से भर देती हैं। दोनों समय घूमना, टहलना उनकी दिनचर्या में शामिल है। उनकी ताजगी देख कर दूसरे लोग भी वैसा ही बनने की चाह रखते हैं।
यह सही है कि ढलती उम्र के हिसाब से शरीर शिथिल हो जाता है, पर जो लोग मन से शिथिल होते हैं, वे ज्यादा बूढ़े नजर आते हैं। भले ही वह कितना ही मेकअप करके खुद को सजाएं-संवारें पर विचारों का प्रत्यक्ष असर व्यक्तित्व पर पड़ता है।
इंसान चाहे तो खुद को 70-75 सालों तक मन से ठीक रहते हुए, दूसरों के लिए प्रेरणा बन सकता है। यह बात सच है कि इस उम्र में हाथ-पैर कम, जबान अधिक चलती है। ऐसे में बोलने पर थोड़ा नियंत्रण रखते हुए दिमाग को सिाय रखना चाहिए। पुस्तकें पढ़ना, दूसरों को सहायता पहुंचाना और घर में जितना सहयोग बन पड़े करना.. ये सब बातें उन्हें स्वस्थ जीवन जीने में सहायक बनाती हैं।
खुद को सहेज कर रखना, अपने खाने-पीने का ध्यान रखना आपके स्वास्थ्य को तो ठीक रखेगा ही, साथ ही आप के मन में अधिक सालों तक जीने की चाह भी पैदा करेगा। यह सच है कि जीवन जीना भी एक कला से कम नहीं है। कहा भी जाता है कि मन के हारे हार है और मन के जीते जीत।
मन तो आपका अपना है। आप इसे जोश और उत्साह से जी सकते हैं। यदि पढ़ने-पढ़ाने का शौक है तब नाती-पोते को पढ़ा सकते हैं और काफी ऐसे शौक हैं जिन्हें आप जवानी में समयाभाव के कारण नहीं कर पाये, वे अब पूरे कर सकते हैं। पति-पत्नी घूमने जाएं, हंसें-हंसायें, चुहलबाजी, मजाक करें। जब भी अकेला एवं उपेक्षित महसूस करें, खुद को िायाशील बनायें, व्यस्त रखें, अकारण ाोध एवं चिड़चिड़ेपन से बचें तब जीवन खुशनुमा हो जायेगा और आप अच्छा महसूस करेंगे।
– ए.के. सिंह
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