बोल बम… बोल बम… बोल बम का ब्रह्मनाद करते देश के विभिन्न भागों से श्रद्घालु बैद्यनाथ शिव की पूजा करने आते हैं। कोई सुल्तानगंज के रास्ते से, तो कोई भागलपुर के रास्ते से। कोई सुखी है तो कोई दुःखी। कोई सबल है तो कोई निर्बल। कोई लुल्हा है तो कोई लंगड़ा। कोई पैदल तो कोई गाड़ी में। कोई घोड़े पर तो कोई कार में। कोई झांझ पखावज की ताल के साथ, तो कोई रक्षकों द्वारा सुरक्षित धनराशि लेकर। कोई जीवन भर की संचित पूंजी लिए तो कोई निर्धनता में मस्त भिक्षा द्वारा ही मंजिल तय करता हुआ। कोई बाधाओं से पिंड छुड़ाने तो कोई भक्ति-विभोर, कोई धन त्यागने तो कोई बिकवाने, कोई पुण्य कमाने तो कोई पाप धोने। वे बैद्यनाथ ज्योतिर्लिंग का दर्शन कर अपना जन्म सफल मानते हैं।
सावन शुरू होते ही सुल्तानगंज की उत्तरवाहिनी गंगा से जल भर कर कांवरिया “बोल बम’ के उद्घोष के साथ बाबा बैद्यनाथ धाम की ओर चल पड़ते हैं। देश के विभिन्न भागों के अलावा नेपाल तथा मॉरीशस से भी लाखों शिवभक्त यहॉं आते हैं और वे अपने पात्रों में गंगा जल लेकर नंगे पॉंव 104 किलोमीटर की दूरी तय कर देवघर पहुँचते हैं। वहॉं कॉंवर में भरकर लाया गंगा जल बाबा बैद्यनाथधाम के ज्योतिर्लिंग पर अर्पित करते हैं। इस मेले में न कोई ऊँच होता है, न नीच, न कोई गरीब, न कोई अमीर। सब एक-दूसरे की नजर में समान होते हैं। बम और एक ही उनका नारा होता है “बोल बम’।
इस मेले का प्रारंभ स्थल है प्राचीन काल में अंगदेश का एक हिस्सा रहा सुल्तानगंज (भागलपुर)। सुल्तानगंज में गंगा अपनी मैदानी यात्रा पर बढ़ती हुई, उत्तर दिशा की ओर बढ़ती है। अपनी उत्तरवाहिनी स्थिति के कारण यह महत्वपूर्ण मानी जाती है। सुल्तानगंज की गंगा की धारा के मध्य एक आकर्षक मंदिर है, जो अजगैबीनाथ के नाम से जाना जाता है। अब गंगा रूठकर दूर चली गयी है तथा यह मंदिर गंगा के मध्य में नहीं दिखता, लेकिन सावन में जब गंगा उफान लेने लगती है तो अपने पुराने स्वरूप में दिखने लगती है। रूठी गंगा को मनाने के लिए भक्तगण सावन के हर सोमवार को गंगा की महाआरती का आयोजन करते हैं। सुल्तानगंज ही वह जगह है, जहां आकर हिमालयपुत्री मुक्तिदायिनी गंगा जाह्नवी कहलायी। पौराणिक कथा यह है कि महान साधक भागीरथ अपने पूर्वजों के उद्घार के लिए कठिन तपस्या के उपरांत पुण्यदायिनी गंगा को हर्षध्वनि करते हुए स्वर्ग से पृथ्वी पर ला रहे थे। उस समय सुल्तानगंज के निकट जह्नु ऋषि का आश्रम था। ऋषि अपनी तपस्या में लीन थे। भागीरथ की हर्ष-ध्वनि सुनकर उनका ध्यान भंग हो गया। उन्होंने ाोधित होकर आचमन के द्वारा गंगा का पान कर लिया। यह तो अनर्थ हो गया। भागीरथ की कातर प्रार्थना सुन ऋषि पुनः प्रसन्न हो गये। उनके समक्ष यह समस्या खड़ी हुई कि पवित्र गंगा को ऋषि किस मार्ग से बाहर निकालें। अंत में उन्होंने अपनी जंघा चीरकर गंगा को बाहर निकाला। उसी समय से गंगा जाह्नवी कहकर पुकारी जाने लगी।
अजगैबीनाथ मंदिर की छटा निराली दिखती है। मंदिर में स्थापित देवी-देवताओं की प्रस्तर मूर्तियॉं अपने प्राचीन गौरव को दर्शाती हैं। मंदिर के प्रवेश-द्वार के बायीं ओर एक ऊँचे प्रस्तर पर बने हिरण्यकश्यपु का वध करते हुए भगवान विष्णु की नरसिंह अवतार की प्रतिमा काल के थपेड़ों को झेलती हुई आज भी अपनी संपूर्णता में वर्तमान है। मंदिर के उत्तरी भाग में भगवान शिव, गौरा-पार्वती, गणेश, कार्तिकेय आदि की मूर्तियां उत्कृष्ट कला की प्रतीक हैं।
सावन मास शुरू होते ही सुल्तानगंज की नगरी दुल्हन की तरह सज जाती है। हर गली, हर मोड़, हर चौराहों पर बांस की कमानी के बहगीनुमा कांवरों की दुकानें सज जाती हैं। अपनी यात्रा आरंभ करने से पूर्व यात्रीगण कांवर तथा आवश्यक सामानों की खरीद करते हैं। ये शिवभक्त अपनी यात्रा कांधे पर कांवर लेकर करते हैं। इस कारण इन्हें कांवरिया कहा जाता है। कांवरिया सर्वप्रथम गंगातट पर स्नान करते हैं और अजगैबीनाथ मंदिर आकर अजगैबीनाथ महादेव की पूजा करते हैं। फिर मनोयोग और भक्तिपूर्ण सजे-सजाये कांवरों में गंगा का पवित्र जल भरते हैं। इसके उपरांत कांवरों की पूजा की जाती है। फिर शुरू होती है कांवर-यात्रा, जो नंगे पांव नियम और संयम के साथ पूरी करनी पड़ती है। इस कठिन यात्रा में भक्तों को एक ही स्वर में कहना पड़ता है- बोल बम और हर-हर महादेव। अपनी यात्रा का करीब एक तिहाई एक दिन में तय कर बोल बम कांवरिया तीर्थयात्री रामपुर के पास अपना पहला पड़ाव डालते हैं। नहर में स्नान कर अपनी थकान मिटाते हैं और फिर अपनी यात्रा पर चल पड़ते हैं। दूसरे दिन ये शिवभक्त जिलेबिया मोड़ नामक स्थान पर पहुँचते हैं। कुछ तो एक ही दिन में सुल्तानगंज से जिलेबिया मोड़ की यात्रा पूरी कर लेते हैं। जिलेबिया मोड़ से कांवर-यात्रा का पहाड़ी मार्ग शुरू हो जाता है। ऊँची-नीची पहा़डियों और कंकरीले रास्ते देखकर ऐसा लगता है कि भगवान शंकर भक्तों की परीक्षा लेने पर तुले हैं। बावजूद इसके कष्ट सहते हुए भी कांवरिया अपनी डगर की तरफ बढ़ते चले जाते हैं। दुर्गम पहाड़ी और नदी पार करते हुए ये भक्त पुनः मुख्य मार्ग पर आ पहुंचते हैं। जिलेबिया मोड़ की पहाड़ी यात्रा पूरी करने के बाद कांवरिया भक्तगण सुइया नामक स्थान होते हुए कटोरिया पहुँचते हैं। कटोरिया में आकर इस कांवर-यात्रा के तीन चरण पूरे हो जाते हैं। कटोरिया धर्मशाला में भक्तों की उमंग देखते ही बनती है। भजन-कीर्तन से सारा वातावरण गुंजायमान रहता है। कटोरिया के बाद कांवर यात्रा का अंतिम चरण शुरू होता है। इनारावरण गो़डियारी तथा दर्शनीय नामक स्थानों को पार करते हुए भक्तगण देवघर की पुण्यनगरी पहुँचते हैं। यहां होता है उनकी यात्रा का अंतिम पड़ाव और यहां विराजते हैं बैद्यनाथ महादेव।
बैद्यनाथधाम की कथा
बैद्यनाथधाम के नाम से विख्यात देवघर के ऐतिहासिक विवरण का उल्लेख शिवपुराण में है। शिवपुराण का काल त्रेतायुग है, जब राम और रावण हुए थे। यहां के संपूर्ण जीवन के केन्द्र बिंदु बाबा बैद्यनाथधाम शिव के द्वादश ज्योतिर्लिंगों में एक है।
बाबा बैद्यनाथ की कथा भी कुछ कम अनोखी नहीं है। राक्षस राज रावण ने कैलाश पर्वत पर दीर्घकाल तक घोर तपस्या कर शिव से वरदान प्राप्त किया था। वरदान स्वरूप उसे ज्योतिर्लिंग प्राप्त हुआ था, जिसे वह लंका में स्थापित करने ले जा रहा था, ताकि उसके इष्टदेवता भगवान शिव शाश्र्वत रूप से वहां उपस्थित रहें। रावण को शिवलिंग देने से पूर्व भगवान शिव ने एक शर्त लगा दी थी कि लंका ले जाने के ाम में मार्ग में इस शिवलिंग को धरती पर न रखा जाये, अन्यथा पुनः उठाना संभव नहीं होगा। रावण इस शर्त पर सहमत हो गया और शिवलिंग लेकर अपनी यात्रा पर चल पड़ा। लंका में रावण के द्वारा शिव के ज्योतिर्लिंग सदृश अत्यंत प्रभावशाली शक्ति प्राप्त किये जाने पर भगवान विष्णु सहित सभी देवता सशंकित हो गये। अतः इन लोगों ने उसे किसी भी तरह से रोकने के लिए गुपचुप ढंग से विचार किया। वरुण रावण के शरीर में प्रवेश कर गये फलस्वरूप उसे लघुशंका की तीव्र आवश्यकता महसूस हुई। अतः वह रूका और पास में ही खड़े एक ब्राह्मण युवक को देखा। उसने ब्राह्मण युवक को शिवलिंग देते हुए अनुरोध किया, “”जब तक मैं लघुशंका से निवृत्त होकर न लौटूं, तब तक इस शिवलिंग को नीचे न रखना।” रावण को काफी समय लग गया। इधर ब्राह्मण युवा, जो स्वयं भगवान विष्णु थे, ने शिवलिंग को धरती पर रख दिया। रावण जब लौटकर आया तो उस ब्राह्मण युवक पर बहुत ाोधित हुआ। धरती पर रखे शिवलिंग को उठाने का हरसंभव प्रयत्न करने लगा, लेकिन असफल हो गया। शिवलिंग वहीं रह गया। इस कारण उसे रावणेश्र्वर शिव भी कहा जाता है। जिस स्थल पर रावण धरती पर उतरा था, उसे वर्तमान हरलाजोरी मंदिर बताते हैं, और जहॉं शिवलिंग रखा गया वही स्थान देवधर है।
बैजु नामक भील की अनन्य उपासना से प्रसन्न होकर भगवान शंकर ने स्वयं अपना नाम बैजुनाथ रखा, जिसे आगे चलकर बैद्यनाथधाम के नाम से ख्याति मिली। देवधर तो आधुनिक नाम है जिसका शाब्दिक अर्थ है- देवताओं का घर। संस्कृत के ग्रंथों में इसका नाम हृदयपीठ, रावनवन, हरितिकी वन या बैद्यनाथ मिलता है। एक और विलक्षण पर लगभग अज्ञात तथ्य देवधर के विषय में यह है कि शिव का स्थान होने के अतिरिक्त यह एक महत्वपूर्ण शक्तिपीठ भी है। पुराणों में वर्णित है कि देवधर में बैद्यनाथधाम का आविर्भाव सतयुग में हुआ है, जबकि शिवप्रिया सती ने अपना आत्मदाह किया था। कहा जाता है कि शिव की भार्या सती ने अपने पिता प्रजापति दक्ष के द्वारा पति के अपमान के विरोध में यज्ञ के हवनकुंड में आत्मदाह कर लिया था और शिव उनका शव लिए घूम रहे थे। विष्णु ने जब भगवान शिव को दुःख और आाोश में देखा तो अपना सुदर्शन-चा लेकर सती के शव को काटना शुरू किया। शिव तो सारे ब्राह्मांड में अनियंत्रित विक्षिप्तावस्था में विचरण कर रहे थे। इसी ाम में सती का हृदय बैद्यनाथधाम में गिरा। इसलिए यह हृदयपीठ के नाम से जाना जाता है। ठीक उसी स्थान पर बाद में ज्योतिर्लिंग की स्थापना हुई। इसलिए आज भी वैद्यनाथधाम मंदिर में देवी की पूजा-आरती होती है, उसके बाद बैद्यनाथ मंदिर के कपाट खुलते हैं। कामाख्या के बाद तांत्रिक साधना के लिए बैद्यनाथधाम का स्थान आता है।
“आनंद रामायण’ में वर्णित है कि स्वयं भगवान रामचन्द्र गंगा से जल भरकर बैद्यनाथधाम आये थे और भगवान शिव की पूजा-अर्चना की थी। इसी लोक-मान्यता को लेकर कांवरिया सुल्तानगंज से बैद्यनाथधाम की यात्रा करते हैं। सदियों से यह अहर्निश सिलसिला जारी है। अब तो श्रावणी मेला महामेले का रूप धारण कर लिया है।
– कुमार कृष्णन
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