महाराष्ट के एक प्रखर साधक, विद्याव्यसनी, शास्त्रों के पारंगत विद्वान के रूप में सदाशिव ब्रह्मेंद्र माने जाते हैं। उनके गुरु बड़े करुणावत्सल एवं परमज्ञानी थे। उनकी दृष्टि सदैव शिष्यों को गढ़ने की ओर होती थी। सदाशिव ब्रह्मेंद्र ने एक बार एक प्रकांड विद्वान् को शास्त्रार्थ में पराजित किया। उस व्यक्ति ने गुरु से सदाशिव की सराहना की, ज्ञान की प्रशंसा की। उन्हें अच्छा लगा कि गुरु प्रसन्न हुए। एक वाहियात किस्म का आदमी आया। उसने सदाशिव ब्रह्मेंद्र की उनके समक्ष खूब आलोचना की, सारी बुराइयां सुना दीं। इस पर वे चिढ़ गये और गुरु के समक्ष जाकर उसकी खूब बुराई की।
बोले, क्या अधिकार है, उसे ऐसा बोलने का?” गुरु ने कहा, जो जिठा निंदा करती है, वह कभी भी मंत्र-साधना नहीं कर सकती। वह भगवन्नाम जप के योग्य नहीं है। वह तो जैसा है, है। पर तुमने क्यों किसी की निंदा की? मौन तो रह सकते हो। भले ही प्रशंसा न करो, पर निंदा में मौन हो जाओ।” शिष्य को गुरु की बात तीर की तरह चुभ गयी। उसने अपने जीवन में एक ाांतिकारी परिवर्तन लाकर दिखाया। पतंजलि योगसूत्र पर उनकी टीका अभी भी सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। वस्तुतः हमें दूसरों के दोष देखने, उनकी चर्चा करने का कोई अधिकार नहीं है। हमें दोष देखने वालों के भी दोष नहीं देखने चाहिए। यही हमारी सच्ची परीक्षा है।
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