दिल्ली पुलिस ने एक व्यक्ति को इसलिए गिरफ्तार किया है कि वह सूचना के अधिकार का सहारा लेकर उन लोगों को ब्लैकमेल कर रहा था जिन्होंने या तो अवैध रूप से मकानों आदि का निर्माण किया था या सरकारी भूमि पर अतिामण किया था। वह उन सरकारी अधिकारियों को भी ब्लैकमेल कर रहा था जिन्होंने ऐसे गैर कानूनी कामों में रिश्र्वत खाकर उनकी मदद की थी। पुलिस के अनुसार उसे जब ऐसे गलत कामों की जानकारी मिलती थी तो वह सूचना के अधिकार के तहत संबंधित विभाग से जानकारी मांगता था और गलत काम की आधिकारिक पुष्टि हो जाती थी तो मामला पुलिस को सौंप देता था। उसकी प्रामाणिक सूचना पर कई बार कार्यवाही भी हुई है और गलत काम करने वालों को सजा भी मिली। कुछ लोगों के अनुसार उस इलाके के गलत काम करने वाले लोग और भ्रष्ट अधिकारी उससे डरने लगे थे। आसपास के लोग उसे एक जुझारू नागरिक और ईमानदार समाजसेवक मानने लगे थे। इसलिए सबने एकजुट होकर उसे फंसाया है। ये दोनों ही बातें सही या गलत हो सकती हैं। लेकिन इस घटना ने सूचना के अधिकार पर एक प्रश्र्न्नचिह्न अवश्य लगा दिया है कि क्या एक लंबे संघर्ष के बाद प्राप्त सूचना का अधिकार भी ब्लैकमेलिंग का हथियार बन चुका है?
यह कड़वा सच है कि भारत की सरकारी व्यवस्था में ऊपर से नीचे तक भ्रष्टाचार भरा हुआ है। इसी भ्रष्टाचार को रोकने के लिए विधानसभाओं और संसद के दोनों सदनों में निर्वाचित जन प्रतिनिधियों को सरकार से जानकारी हासिल करने के लिए सदन में प्रश्र्न्न पूछने का अधिकार संविधान में प्रदान किया गया था। यह साबित हो चुका है कि राजनीति में देश की सेवा के नाम पर घुस आए कुछ जनप्रतिनिधियों ने अपने इस अधिकार को धन कमाने और ब्लैकमेलिंग का माध्यम बना डाला है।
जन प्रतिनिधियों के बाद प्रश्र्न्न पूछने और भ्रष्टाचार को आम जनता के सामने बेनकाब करने का अघोषित अधिकार मीडिया के पास है। मीडिया को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ माना गया है। उसे जनता का ऐसा वाचडॉग भी माना जाता है कि जो उसके हितों के विरुद्घ काम करने वालों की जानकारी प्रदान करता है। भले ही उसकी कितनी भी आलोचना की जाए लेकिन मीडिया की खबर पर आम आदमी विश्र्वास करता है।
वैसे तो सरकारी भ्रष्टाचार पर नजर रखने के लिए कई एजेंसियां बनाई गई हैं लेकिन इस काम में सबसे अधिक सफलता मीडिया ने ही प्राप्त की है। बहुत से लोगों ने मीडिया को भी ब्लैकमेलिंग का माध्यम बना लिया है। इसीलिए जब मीडिया किसी नेता, काले धंधेबाज या सरकारी कर्मचारी के भ्रष्टाचार को उजागर करता है तो वह मीडिया पर ब्लैकमेलिंग का आरोप लगा कर बच निकलने की कोशिश करते हैं।
सरकारी कामकाज और उसमें हो रहे भ्रष्टाचारों की जानकारी हासिल करने के अधिकार इतनी एजेंसियों के पास होने के बावजूद आम नागरिक इस अधिकार से वंचित था। हालांकि संविधान की धारा 11 सी में आम आदमी को सरकारी कामकाज की जानकारी प्राप्त करने का अधिकार दिया गया है लेकिन उसमें गोपनीयता की बात जोड़कर उसे निरर्थक बना दिया गया है। देश में सूचना का अधिकार आम नागरिकों को प्रदान करने की मांग काफी जद्दोजहद के बाद स्वीकार की गयी और कुछ शर्तों के साथ उसे कानूनी जामा पहना दिया गया। इस अधिकार के कानून बनने के बाद कुछ दिनों तक तो भ्रष्टाचारियों में घबराहट रही लेकिन बहुत जल्द ही उन्होंने इससे बचने के रास्ते तलाश कर लिए। इस सूचना के अधिकार का उपयोग करने वालों से इतनी फीस वसूलनी शुरू कर दी गई कि लोगों के हौसले ही पस्त हो गए। एक मामले में जानकारी मांगने वाले को डेढ़ लाख रुपये का बिल भेज दिया गया। इसके अलावा अब उन्होंने इस अधिकार के तहत जानकारी मांगने वालों को ब्लैकमेलर कहना भी शुरू कर दिया है। जिसकी परिणति दिल्ली में एक समाजसेवक की गिरफ्तारी के रूप में सामने आई है।
भारत का आम आदमी सामान्यतः अपने अधिकारों को हासिल करने में उदासीन रहता है। लोग सरकारी कर्मचारियों से उलझने या उनकी शिकायतों के बजाय मुंहमांगी रिश्र्वत देकर काम निकालना सही समझते हैं और यही सारे भ्रष्टाचार की जड़ है। चाहे सूचना के अधिकार जैसे कितने भी कानून क्यों न बना दिए जाएं, जब तक आम नागरिक उसके इस्तेमाल के लिए तैयार नहीं होगा, सब बेकार साबित होंगे। अगर कुछ मुट्टी भर लोग इस कानून के सहारे भ्रष्टाचार के खिलाफ लड़ते भी हैं तो उन्हें बहुत कम सफलता हासिल हो पाती है। हमारे देश में भ्रष्टाचारी इतने संगठित हैं और उनकी सेना इतनी विशाल है कि लोग उनके मजबूत किले में आसानी से सेंध नहीं लगा सकते हैं। इन हालात में जब तक जनता में जागरूकता पैदा न हो और इस कानून के तहत जानकारी प्राप्त करने की प्रिाया सहज और सरल न बनाई जाए, सूचना के अधिकार का कोई लाभ इस देश से भ्रष्टाचार हटाने में नहीं हो सकता।
– जी.डी. गोयल
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