अवसरवाद भले ही कितना भी घटिया शब्द माना जाता हो, लेकिन भारतीय राजनीति में इसे एक आवश्यक दुर्गुण के रूप में ही स्वीकार किया जा रहा है। आज जब केंद्र में सरकार विश्र्वास प्रस्ताव प्राप्त कर चुकी है तो भाजपा एवं उसके सहयोगी दल खुलेआम यह आरोप लगा रहे हैं कि सांसदों को करोड़ों रुपये देकर खरीदा गया है। इसमें कोई संदेह नहीं कि इस सौदे में दोनों ही पक्ष दोषी होते हैं। खरीदने वाला और बिकने वाला, दोनों संविधान और प्रजातंत्र के खिलाफ अपराध करते हैं। लेकिन जनतांत्रिक भारत का अब तक का इतिहास इस बात का साक्षी है कि ऐसे किसी अपराधी को कोई सजा नहीं भुगतनी पड़ी। सत्ता और उससे जुड़े लाभों का परदा अवसर का लाभ उठाने वाले राजनेताओं की आँखों पर हमेशा पड़ा रहा। इसीलिए कभी किसी को अवसरवादी बनते या अवसरवादी कहलाते शर्म भी नहीं आयी।
सांसद खरीदने के आरोप की सच्चाई के बारे में तो अभी कुछ नहीं कहा जा सकता, लेकिन इस खरीदारी का आरोप लगाने वाली भाजपा ने कर्नाटक में दल-बदल कानून की धज्जियां उड़ाकर जिस तरह से विधायक “खरीदे’ हैं, वह हमारी राजनीति का एक काला पक्ष ही उजागर करता है। हाल के चुनावों में कर्नाटक में भाजपा को स्पष्ट बहुमत नहीं मिल पाया था। बहुमत के लिए तीन सदस्यों की आवश्यकता थी उसे। भाजपा ने छह निर्दलीयों का समर्थन जुटाकर बहुमत तो प्राप्त कर लिया, लेकिन दल-बदल कानून के चलते ये निर्दलीय भाजपा में शामिल नहीं हो सकते थे। इसका मतलब यह हुआ कि यह निर्दलीय कर्नाटक सरकार के लिए एक लटकती तलवार ही थे। जब चाहे वे समर्थन वापस ले सकते थे और कर्नाटक में भाजपा सरकार अल्पमत में आ सकती थी। केंद्र में वामपंथियों ने यही भूमिका अपनायी है। सरकार सुरक्षित बनाये रखने के लिए कर्नाटक में अवसरवादियों की तलाश शुरू हुई। भाजपा को कांग्रेस के तीन और जनता दल (सेक्युलर) के दो विधायक मिल भी गये। निर्वाचित प्रतिनिधि दलबदल नहीं कर सकते, इसलिए इन पांचों विधायकों ने चुनाव जीतने के दो महीने के भीतर ही विधानसभा की सदस्यता से इस्तीफा दे दिया। दलबदल विरोधी कानून को अंगूठा दिखाते हुए इन विधायकों ने अवसर का लाभ उठाया। कर्नाटक की भाजपा सरकार ने बिना किसी हिचक के (या बेशर्म होकर?) अवसरवादी विधायकों को पद दे दिये, तीन को मंत्री बना दिया गया है और एक को स्लम क्लीयरेंस बोर्ड का चेयरमैन बना दिया गया है। क्या यह खरीदारी नहीं है?
कर्नाटक की कांग्रेस पार्टी ने यही आरोप लगाया है। पार्टी ने राज्यपाल से मांग की है कि वे इस मामले की सीबीआई से जॉंच करायें। म़जे की बात यह है कि भाजपा केंद्र में कांग्रेस पर इसी तरह का आरोप लगा रही है। जांच की बात तो अभी नहीं की गयी, लेकिन “पहले लाल सलाम अब दलाल सलाम’ कहकर भाजपा के शीर्ष नेता लालकृष्ण आडवाणी ने जो बात सांकेतिक रूप में कही उसे पार्टी के नेता एबी बर्द्घन के 25 करोड़ प्रति सांसद की दर से खरीदारी के आरोप का समर्थन करके स्पष्ट कर रहे हैं।
यह तो साफ है कि मिली-जुली सरकारों वाले समय में विश्र्वास मत अथवा अविश्र्वास मत किसी साफ-सुथरी राजनीति का उदाहरण आसानी से नहीं बन सकता। लेकिन कर्नाटक के हाल के अनुभव सहित पिछले सारे अनुभव यही बताते हैं कि हमारी राजनीति में अब खरीदना-बेचना न शर्म की बात समझी जाती है और न कोई गुनाह। विभिन्न विधानसभाओं में कई बार हम विधायकों की खरीद-फरोख्त के किस्से सुनते रहे हैं। झारखंड मुक्ति मोर्चे के सांसदों द्वारा पैसा लेकर वोट देने की बात भी अब जग-जाहिर है। सांसदों द्वारा पैसे लेकर संसद में सवाल पूछने तक के उदाहरण देश देख चुका है। और हमने यह भी देखा है कि ऐसे किसी भी उदाहरण से हमारे राजनीतिक दलों और हमारे निर्वाचित प्रतिनिधियों पर कोई असर नहीं पड़ता। यदि विश्र्वास मत हासिल करने के लिए कांग्रेस ने किसी तरह की नाजायज सौदेबाजी की, तो निश्र्चित रूप से यह एक अपराध है और प्रजातंत्र के नाम पर एक धब्बा भी। लेकिन क्या ऐसा ही अपराध या धब्बा कर्नाटक में भाजपा की सरकार के नाम के साथ भी नहीं जुड़ रहा?
देश यह भी जानता है कि यह अपनी तरह का पहला उदाहरण नहीं है। हर स्तर पर निर्वाचित प्रतिनिधियों की खरीद-फरोख्त के किस्से अर्से से सुनते आ रहे हैं। दल-बदल विरोधी कानून जैसी व्यवस्थाएं भी ऐसे ही मामलों से निपटने के लिए की गयी थीं। सत्ता और सम्पत्ति का लालच देकर सरकारें बनाने-बिगाड़ने के खेल भी देश बहुत देख चुका है। इस तरह की हर कार्रवाई अनैतिक भी होती है, आपराधिक भी और दुर्भाग्यपूर्ण भी। लेकिन इससे कहीं अधिक दुर्भाग्यपूर्ण बात यह है कि अवसरवादी राजनीति के उदाहरण कम नहीं हो रहे- और न ही इस तरह गलत आचरण हमारे सामाजिक सोच में राजनीतिज्ञों को गलत ठहराता है। सारे कानूनों को अंगूठा दिखाकर सत्ता का सुख हथियाने वाला कोई भी राजनेता जनता के गुस्से का शिकार आखिर क्यों नहीं बनता? क्यों हमने इस अनैतिक ओर आपराधिक स्थिति को स्वीकार कर लिया है?
सदन से इस्तीफा देकर मंत्री पद हथियाने वाले कर्नाटक के विधायकों को छह महीने के भीतर चुनाव जीत कर अपनी कुर्सी बचानी होगी। यह कानून है। ये विधायक और उन्हें मंत्री बनाने वाले भी आश्र्वस्त दिखते हैं कि वे चुनाव जीत जायेंेगे। पहले भी हम कई राज्यों में इस तरह के कई उदाहरण देख चुके हैं। सवाल यह उठता है कि ऐसे अवसरवादी और अनैतिक प्रतिनिधियों को मतदाता स्वीकार कैसे करता है? सत्ता के लिए अपना दल छोड़ कर चोर दरवाजे से कुर्सी तक पहुँचने वाले सिद्घांतहीन अवसरवादी राजनीतिज्ञों को नकारता क्यों नहीं मतदाता?
इस संदर्भ में बने सारे कानून कुल मिलाकर अपर्याप्त सिद्घ हो रहे हैं। मिली-जुली सरकारों की विवशता ने भी राजनीति को और भ्रष्ट तथा और सिद्घांतहीन बनने की प्रिाया को सहज और ते़ज ही बनाया है। राजनीतिक दलों को और राजनेताओं को सत्ता की राजनीति में सब कुछ जायज लगने लगा है। ऐसे में जागरूक मतदाता ही कुछ कर सकता है- गलत आचरण करने वाले प्रतिनिधियों के खिलाफ आवाज उठाने का दायित्व भी मतदाता का ही है। यदि किसी जनतंत्र में मतदाता वोट देने को ही अपने कर्त्तव्य की इति समझ लेता है तो यह जनतंत्र को नकारना ही है। जनतंत्र को सफल बनाने की सबसे बड़ी शर्त मतदाता की जागरूकता है- और आज हमें स्वयं से पूछना है कि हम कितने जागरूक हैं।
– विश्वनाथ सचदेव
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