नमोऽस्तु सर्पेभ्यो

संस्कृत की विख्यात कहावत है – पयःपानं भुजंगानां केवलं विषवर्द्घनम् अर्थात् सांपों को दूध पिलाना उन्हें अधिक विषैला बनाना है। परन्तु, ऐसा प्रतीत होता है कि यह कहावत कोई अत्याधिक पुरानी नहीं है, क्योंकि अति प्राचीन काल से सर्पों के विषय में दोनों प्रकार के मत प्रचलित रहे हैं। पहला, सर्प विषैला प्राणी है, अतः स्वप्राण-त्राण के लिए इसकी जान लेना जायज है। दूसरा, यह है तो भयंकर जीव, परंतु देवोचित् पूजा द्वारा इसे प्रसन्न रखने में ही अपना हित है। कोई आश्र्चर्य नहीं कि इसीलिए आज भी भारत में सर्पों के प्रति दोनों ही प्रकार की मनोवृत्तियॉं विद्यमान हैं। सबल लोग तो दंड-प्रहार से उनका संहार करने के लिए तैयार हो जाते हैं और निर्बल लोग उनके सम्मुख दूध आदि रखकर, हाथ जोड़कर कहते हैं-“”नाग देव, इसका पान कीजिए और अपने घर जाइए।” ये वृत्तियां भारत में ही नहीं, दूसरे देशों में भी दिखायी देती हैं। प्राचीन यूनान में रूहों (अदृश्य आत्माओं) को इसलिए भेंट दी जाती थी कि वे चली जाएँ और किसी को न सताएँ। आज भी भारत में भूतों को भगाने के लिए भारी भेंटें अर्पित की जाती हैं।

वैदिक युग के लोगों का कई प्रकार के सर्पों से पाला पड़ता था, अतएव उनके नाम वेदों में सहज ही उपलब्ध हैं। अथर्ववेद (8.10.29) में तक्षक व धृतराष्ट नाम के नागों का उल्लेख है। वैदिक संध्या के “मनसा-परिामा’ के छः मंत्रों (अथर्ववेद, 3.27) में असित (काला), तिरश्र्चिराजी (टेढ़ी धारियों वाला), पृदाकु (पृत्-पृत् की ध्वनि करने वाला), स्वज (लिपट जाने वाला), कल्माषग्रीव (चितकबरी गर्दनवाला) तथा शिवत्र (सफेद) इन छः प्रकार के सर्पों का उल्लेख है। इन्हें ामशः पूर्व, दक्षिण, पश्र्चिम, उत्तर, निचली व ऊपरी दिशा का रक्षक माना गया है तथा नमस्कार योग्य बताया गया है।

यजुर्वेद के कई मंंत्रों में सर्पों के निवास स्थान भी निर्दिष्ट हैं तथा उन्हें नमस्कार भी किया गया है। उदाहरणार्थ –

नमोऽस्तु सर्पेभ्यो ये के च पृथिवीमनु।

ये अंतरिक्षे ये दिवि तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः।।

(यजुर्वेद, 13.6)

भावार्थ- उन सर्पों को नमस्कार हो, जो पृथ्वी पर स्थित हैं। जो सर्प अंतरिक्ष में और जो द्यौ में हैं, उन सर्पों को भी नमस्कार हो।

या श्षवो यातुधानानां ये वा वनस्पतिननु।

ये वा ऽ वटेषु शेरते तेभ्यः सर्पेभ्यो नमः।।

(यजुर्वेद, 13.7)

भावार्थ- जो सर्प राक्षसों के वरण-तुल्य हैं या वृक्षों से लिपटे रहते हैं, या जो बिलों में सोते हैं, उन सर्पों को नमस्कार हो।

सर्पों का शत्रु रूप तो सर्व-सम्मत है ही। भूतल पर लाखों मनुष्य, पशु-पक्षी प्रतिवर्ष सांपों के काटने से अकाल ही काल के गाल में चले जाते हैं। अतः कोई आश्र्चर्य नहीं कि कई वैदिक ऋषियों ने अन्य हिंसक प्राणियों के समान सर्पों के संहार पर भी बल दिया –

शं नो भवंतु वाजिनो हवेष्णु देवतातामितद्रव स्वर्काः।

जम्भयन्तोऽहिं वृकं रक्षांसि सनेम्यस्मद भूभवन्नमीवाः।।

(ऋग्वेद, 7.38.7, यजुर्वेद, 9.16)

भावार्थ- वाजी नाम के देवता हमारे आठान पर हमारा कल्याण करें। वे सांपों, भेड़ियों और राक्षसों को कुचल डालें तथा हमारे सारे रोगों को दूर करें।

लगभग ऐसी ही प्रार्थना अथर्वा ऋषि ने पृथ्वी देवी से की है (अथर्ववेद, 12.1.46)। ऐसे विषैले विविध सांपों के विष का जड़ी-बूटियों से भी इलाज किया जाता था।

तिरश्र्चिराजे रसितात् पृदाकोः परिसंभृतम्।

तत्कंकपर्वणो विषमियं वी रूदनीनशत्।।

(अथर्ववेद, 7.5.61)

भावार्थ- इस जड़ी-बूटी ने टेढ़ी धारियों वाले, काले, कुत्सित शब्द वाले तथा कंकपर्वा नाम वाले सांपों से शरीर में आये हुए विष को नष्ट कर दिया है।

यजुर्वेद (30.8) तथा अथर्ववेद (11.9.16, 27) में सर्पों को गंधर्वों तथा अप्सराओं की श्रेणी का, मानवोत्तर प्राणी माना गया है।

इस संदर्भ में अथर्ववेद का यह मंत्र भी दृष्टव्य है –

नमोऽस्त्वसिताय नमस्तिरश्र्चिराजये।

स्वजाय बभ्रवे नमो नमो देवजनेभ्यः।।

(अथर्ववेद, 6.56.2)

भावार्थ- काले सर्प को नमस्कार, टेढ़ी धारियों वाले सर्प को नमस्कार, चिपटने वाले भूरे सर्प को नमस्कार तथा अन्य देवताओं को नमस्कार।

यद्यपि इस मंत्र में “सर्प’ शब्द नहीं है तथापि इसी सूक्त के प्रथम मंत्र में “अहि’ (सर्प) विद्यमान है। यही असित, तिरश्र्चिराजी, स्वज आदि शब्द संध्या के मनसा परिामा मंत्रों में विभिन्न सर्पों के लिए आये हैं।

यद्यपि “नमस्कार’ भी पूजा का एक प्रकार ही है तथापि देखना चाहिए कि क्या देवताओं के समान सर्पों के लिए भी बलि, पूजा, आहुतियों आदि का भी कहीं उल्लेख मिलता है या नहीं। इस विषय में सूत्र-ग्रंथ, जो वैदिक साहित्य के ही अंग माने जाते हैं, हमारी सहायता करते हैं।

ये सर्पाः पार्थिवा य आंतरिक्ष्या

ये दिव्या ये दिश्यास्तेभ्य,

इमं बलिमाहार्ष तेभ्य इमं बलिभुपाकरोमि।

(आश्र्वलायन गृह्य सूत्र 2.1.9)

भावार्थ- जो सांप पृथ्वी, अंतरिक्ष, द्यौ व दिशाओं में हैं, उनके लिए मैं यह बलि लाया हूं तथा उनके लिए यह बलि प्रस्तुत करता हूं।

जब सर्प, भयवश देवता मान लिये गये, तब उनसे स्वकामना पूर्ति के लिए प्रार्थनाएँ भी की जाने लगीं –

गन्धर्वाप्सरसः सर्पान् देवान् पुण्यजनाम्।

दृष्टनदृष्टानिष्णामि यथा सेनाममूं हनन्।।

(अथर्ववेद, 8.8.15)

शत्रु-सेना के नाश के इच्छुक भृग्वगिरा ऋषि कहते हैं, “”मैं गंधर्वों, अप्सराओं, सर्पों, देवताओं, पुण्यात्माओं को, चाहे वे दृश्य हों या अदृश्य, प्रेरित करता हूँ कि वे उस (शत्रु की) सेना को मार डालें।

प्रश्र्न्न उठता है कि क्या ऐसी पूजाएँ प्राचीन भारत में ही प्रचलित थीं या अन्यत्र भी पायी जाती थीं? उत्तर यह है कि प्राचीन काल में प्रायः सभी देशों में ऐसे रीति-रिवाज व िाया-कलाप पाये जाते थे, जो आज के वैज्ञानिक युग में हमें विलक्षण लगते हैं, परंतु प्राचीन लोगों को उनमें कोई अनोखापन प्रतीत न होता था। जैसे, प्राचीन यूनान में यज्ञों को अपवित्रता से बचाने हेतु, मक्खियों के लिए बलि दी जाती थी ताकि वे आकर यज्ञों को दूषित न करें।

उपर्युक्त विवेचन से यही निष्कर्ष निकलता है कि वैदिक-युग में सर्पों को शत्रु समझ कर मारा भी जाता था तथा उनकी देववत पूजा-अर्चना भी की जाती थी।

– निर्विकल्प विश्र्वहृदय

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