गांधी जी ने लिखा है कि प्रत्येक व्यक्ति के लिये खादी पहनना सर्वोच्च अनिवार्यता है। गांधी जी का प्रत्येक भारतीय से आग्रह था कि वह रोज कताई करें और घर में कताई कर बुने वस्त्र ही पहनें। उनका यह आग्रह अनुचित या अत्युत्साही राष्टभक्ति से नहीं उपजा था बल्कि भारत की नैतिक और आर्थिक स्थितियों के यथार्थवादी मूल्यांकन पर आधारित था।
कुछ लोग गांधीजी की अवधारणा को गलत संदर्भ में प्रचारित करते हैं कि उन्होंने हाथ से काते वस्त्र पहनने पर इसलिए जोर दिया क्योंकि वे मशीनों के खिलाफ थे। यथार्थ से हटकर उनकी आलोचना नहीं की जा सकती। वे मानते थे कि दरिद्रता दूर भगाने और काम तथा धन का संकट कभी पैदा न होने देने के लिये हाथ से कताई कर बने वस्त्र पहनना ही तात्कालिक उपाय है। उनका कहना था, “चरखा स्वयं ही एक बहुमूल्य मशीन है…।’
एकमात्र सवाल यह है कि भारत की गरीबी और तंगहाली दूर करने के उत्कृष्ट व्यावहारिक साधन कैसे विकसित किये जा सकते हैं। कल्पना कीजिए एक राष्ट की, जो प्रतिदिन औसतन पॉंच घंटे काम करता है… कौन-सा ऐसा काम है जो लोग अपने दुर्लभ संसाधनों के पूरक के रूप में आसानी से कर सकते हैं? क्या किसी को अब भी संदेह है कि हाथ से कताई करने का कोई विकल्प नहीं है?
यहॉं उच्च नैतिक उपदेश अथवा भावात्मक नैतिकता का प्रचार करने की बात नहीं है। लोग अगर इसे समझें तो यह एक व्यावहारिक अर्थव्यवस्था है, एक ऐसी अर्थव्यवस्था जिसका महत्व बाद के अर्थशास्त्रियों ने समझा। शायद साइबर (कम्प्यूटर) प्रौद्योगिकीविदों को महात्मा के आर्थिक सिद्घांतों में व्यावहारिक बुद्घिमत्ता दिखाई न दे, किन्तु उनके विचार पूरी तरह प्रौद्योगिकी विषयक आशावाद के उज्ज्वल जगत और प्रगति की उस विचारधारा से जुड़े हुए हैं, जो अक्सर गरीबी दूर करने के प्रौद्योगिकी विषयक समाधान में प्रमुख आर्थिक सिद्घांतों की विफलताओं को समझने में नाकाम रही है।
गांधी जी का व्यावहारिक अर्थव्यवस्था में पूरा विश्र्वास था, क्योंकि उनका लक्ष्य किसी एक सिद्घांत या प्रणाली की श्रेष्ठता सिद्घ करना नहीं था, बल्कि उन गरीबों की कठिनाइयों का व्यावहारिक समाधान तलाश करना था, जो आधिपत्यपूर्ण आर्थिक सिद्घांतों के दुष्परिणाम झेल रहे थे। करोड़ों लोगों की गरीबी दूर करने के साधन के रूप में चरखे को प्रचारित करने की गांधीजी की बुद्घिमत्ता के बारे में अनेक लोगों ने सवाल उठाये हैं। किन्तु गांधीजी स्वयं अमल में लाये बिना किसी भी सिद्घांत का प्रतिपादन नहीं करते थे और पहले किसी भी सिद्घांत की व्यावहारिकता और गुणकारिता स्वयं सुनिश्र्चित करते थे।
अर्थव्यवस्थाओं को लोगों से अलग-थलग करने और लोगों पर ध्यान न देकर अर्थभितियों, सांख्यिकीय आरेखों और लकीरों, सकल घरेलू उत्पाद और बढ़ोत्तरी के प्रतिशत के महत्व देने के पीछे जो बुद्घिहीनता है, उसे उजागर करने के लिये विश्र्व परिदृश्य का अध्ययन ़जरूरी है। परम्परागत अर्थशास्त्रियों ने गांधीजी को कभी अर्थशास्त्री नहीं माना, लेकिन वे उन चिन्तकों में से एक थे जिन्होंने आधुनिक अर्थव्यवस्था की ज्ञान-मीमांसा पर सबसे पहले प्रश्र्न्नचिह्न लगाया।
गांधीजी का आग्रह था कि चरखे अथवा स्थानीय महत्व के अन्य उपकरणों पर आधारित और आधुनिक तकनीकी की आवश्यकताओं को ध्यान में रखते हुए कुटीर उद्योग विकसित किये जायें। आज के संदर्भ में इलेक्टॉनिक सेक्टर, खेती के औजारों का निर्माण, कार्बनिक उर्वरक, बायोगैस और कचरे से बिजली उत्पादन जैसी गतिविधियों को कुटीर उद्योगों से जोड़ा जा सकता है। गांधी जी ने अनेक नाम गिनाये थे, जिन्हें ग्राम स्तर पर सहकारी आधार पर चलाया जा सकता है।
चरखे और घर में कताई कर बुने वस्त्र पहनने के प्रति गांधीजी के आग्रह के पीछे निर्धनतम व्यक्ति के बारे में उनकी चिंता झलकती है। उन्हें करोड़ों लोगों की भूख की चिंता थी। उनका कहना था, “हमें उन करोड़ों लोगों के बारे में सोचना चाहिए जो पशुओं से भी बदतर जीवन जीने के लिये अभिशप्त हैं, जो अकाल की आशंका से ग्रस्त रहते हैं और जो लोग भुखमरी की अवस्था में हैं।’ आज शूशपीटर, स्मिथ या सेन, लेनिन या गालब्रिथ, मार्क्स या माओ चाहे किसी भी विचारधारा का प्रभुत्व रहे, इससे गरीबों को कुछ लेना-देना नहीं है। उन्हें जरूरत इस बात की है कि दुनिया की रूपरेखा गरीबों, (हम में सबसे नीचे जीवन जीने वालों) को ध्यान में रख कर तैयार की जाए, उनके लिये “अंत्योदय’ का महत्व है। जो लोग इस समस्या के लिये गांधीजी के उपायों की युक्तिसंगतता को स्वीकार नहीं करते, वे भी इस तथ्य की अनदेखी नहीं कर सकते कि दुनिया के एक तिहाई लोगों की आर्थिक तंगहाली आज भी उतनी ही है जितनी कि 20वीं शताब्दी में थी। इसलिए चरखा और खादी को इसी परिप्रेक्ष्य में देखा जाना चाहिए।
– डॉ. विनय कुमार शर्मा
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