पू. आचार्य भगवन का जन्म गुजरात में स्थित लाखेणी गांव में विाम संवत् 1961 को फाल्गुण मास की शुक्ल पूर्णिमा अर्थात होली के दिन रात्रि 11 बजे के पश्चात हुआ था। उनके पिता का नाम अमरचंद भाई एकाणी और माता का नाम संतोक बाई था। भडियाद गांव में अमर चंद भाई नगर सेठ की पदवी से अलंकृत थे।
पू. आचार्य श्री का जन्म नाम पोपटलाल था। वे कुशाग्र बुद्घि के धारक थे। धर्म व संस्कार उनमें कूट-कूट कर भरे थे। सभी व्यसनों के त्यागी थे। सुसंस्कार, विनय, नम्रता, गंभीरता, मधुर भाषी, सेवा-परायण व करुणा आदि गुणों से उनका जीवन सुवासित था। तत्कालीन समय में उन्होंने मैटीक की परीक्षा उत्तीर्ण की थी। फूल की सुवास के समान जीवन व्यतीत करने वाले बालक का नाम स्कूल के प्रधान अध्यापक ने चंपक लाल रख दिया था।
इनकी युवावस्था में अवसर देखकर माताजी संतोक बाई ने इनसे शादी की बात छेड़ी। तब चंपकलाल ने उनसे कहा, “”माताजी, मैंने जीवनभर ब्रह्मचर्य-व्रत के पालन की प्रतिज्ञा धारण कर ली है। अब मैं संसार का त्यागकर संयम (दीक्षा) लेना चाहता हूं। बस मुझे संयम ग्रहण की अनुमति दें।” माता की ओर से उन्हें नकारात्मक उत्तर मिला। उन्होंने कहा, “”बेटा, भले ही संसार में रहकर धर्म कार्य करो, किंतु दीक्षा की बात कर हमें दुःखी मत करो।” चंपकलाल ने मौन-व्रत धारण कर लिया। धार्मिक अभ्यास प्रारंभ कर एकांतवास में रहने लगे। लगभग ऐसे छः वर्ष व्यतीत हो गए। एक बार रोग ग्रस्त रहने के कारण कमजोर हो गये। बाड़े में शौच के लिए गये, तो चक्कर खा कर गिर पड़े। ऐसी स्थिति में उन्हें अचानक मृत्यु आने का भान हुआ। उनके मन में यह बात उपजी कि इस देह का कोई भरोसा नहीं है। अब मुझे संसार में रहना नहीं है। माता एवं अन्य परिजनों से अनुमति प्राप्त कर वे चातुर्मास विराज रहे पू. श्री विनयचंद्र जी म.सा. मुनिराज की शरण में पहुँच गए।
विनयचंद जी म.सा. ने उन्हें संयम का पाठ पढ़ाकर संयमी जीवन में आरुढ़ कर दिया। उनकी सादगी पूर्ण दीक्षा एक मिसाल थी। दीक्षा ग्रहण करने के दूसरे ही दिन से दो-दो उपवास किए, जिसके पारने में घी, दूध, तेल, गुड़-मेवा, मिठाई का पूर्ण त्याग किया। केवल पांच घरों से जो मिल जाये, वही पदार्थ ग्रहण कर लिया करते थे।
संयम धारण करने के पश्र्चात गुरु चंपकलाल ने जैन-आगमों का तलस्पर्शी ज्ञान प्राप्त किया। वे एक प्रकांड पंडित थे। उनकी लेखन-कला भी जबरदस्त थी। सारे समाज में उनके पांडित्य व साधना की चर्चा होती थी। उनके ज्ञान की जीवंत-जागृत मशाल जैसे उनके प्रवचनों से श्रोताओं को नयी रोशनी प्राप्त होती थी। उनकी समझाने की तर्कशक्ति अलौकिक थी, जिससे सभी जनों के अंतर के समाधान हो जाते थे। विशाल भक्त गण के लिए पू.श्री. परम आराध्य एवं श्रद्घालोक के वे अमर देवता थे। संयम िायाओं में पूर्ण चुस्त थे। अपनी आचार संहिता के पालन में वे सदा जागृत बने रहते थे। शिथिलाचार के वे पूर्ण विरोधी थे। आत्म-कल्याण एवं धर्म आराधना करने-कराने में अपनी सभी प्रकार की शक्तियॉं लगा देते थे। इन गुणों से वे अद्वितीय शासन प्रभावक बन गए। । गुणीजनों को देखकर पू.श्री. परम आनंद एवं हर्षित हो जाते थे, क्योंकि वह स्वयं ही गुणों के प्रकाश पुंज एवं भंडार थे।
वि. संवत् 2020 की माघ शुक्ल तीज के दिन हजारों नर-नारियों एवं चतुर्विध संघ ने मिलकर आचार्य पद की चादर आपको समर्पित की थी। आप उस दिन से चतुर्विध संघ के सकल नायक बने। पंचाचार का पालन स्वयं करते और अन्य के लिए भी इसे प्रेरणादायक बनाते ही रहते थे। आप धर्म आराधना का ऐसा अनूठा वातावरण जमा देते थे, जिससे वहां की भूमि धर्म ध्यान व तप की तीर्थ स्थली हो जाती थी। इस उत्कृष्ट ध्यान योगी का जीवन पूर्ण प्रतिभाशाली गौरवमय था।
– पारसमुनि जी म.सा.
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