गोस्वामी तुलसीदास का राम के प्रति अनुराग

goswamy-tulsidasभेद-अभेद, आत्मा-अनात्मा आदि बातों में समन्वय स्थापित करते हुए, गोस्वामी तुलसीदास ने भव-सागर तरने के लिए केवल “राम-नाम’ को ही परम साधन माना है।

गोस्वामी तुलसीदास जी के मतानुसार प्राणी को अपने सहज-सरल, स्वाभाविक रूप, आकार, ज्ञान अथवा उसके प्रति लगाव का आभास तभी होता है, जब अनात्म और आत्मा का पूर्ण मिलन हो जाता है और दोनों को अपनी उपस्थिति में एकता तथा समता का भास होने लगता है। इस परमानन्द अवस्था में उसे अलौकिक तथा दिव्यानन्द की प्राप्ति हो जाती है।

देह जनि विकास सब त्यागै,

तब फिरि निज स्वरूप अनुरागै।

निरमल निरामय एकरस

तेहि हर्ष सोक न व्यापई (विनय पत्रिका,पद 136)

राम के प्रति अनुराग उत्पन्न होने से ही भेद में अभेद की भावना जाग्रत हो सकती है। रामभक्ति के आश्रितोपरान्त ही भ्रम का अन्त होता है। राम-भक्ति सुलभ भी है और भौतिक, दैहिक तथा दैविक तापों द्वारा जनित भय को दूर करने वाली भी।

रघुपति भक्ति सुलभ सुखकारी,

सो भव ताप शोक भय हारी।

विनु सत्संग भक्ति नहीं होई,

ते तब मिलै द्रवै जब सोई।

जब द्रवै दीन दयालु।

राघव साधु-संगति पाइए।।

जेहि दरस परस सम गमादिक

पाप रासि न साइये।।

जिनके मिले सुख-दुख समान,

अमान तादिक गुन भये।

मद मोह लोभ विषाद ाोध,

सुबोध तैं सहजहि गये।।

(विनय पत्रिका पद 136(10)

राम-भक्ति प्राप्त करने का सरल मार्ग अनेकानेक रचनाओं में प्रदर्शित किया गया है। यह मार्ग सन्त-सेवा के अतिरिक्त और कुछ नहीं है।

।। 1।।

सेवत साधु द्वेत भय लागे,

श्री रघुवर चरन लौ लागे।

।। 2।।

जो तेहिं पंथ चलै मन लाई,

तो हरि काहे न होहिं सहाई।

जो मारग श्रुति साधु दिखावै,

तेहि पथ चलत सबै सुख पावै।।

पावै सदा सुख हरिकृपा,

संसार आसा तजि रहै।

सपने हूं नहिं द्वेत दरसन,

बात कोटिक को कहै।।

द्विज देव गुरु हरि संत विनु,

संसार पार न पाइये।।

यह जान तुलसीदास त्रास,

हरन रमापति गाइये।।

।। 3।।

साधु कृपा बिनु मिलहि न

करिय उपाय अनेका। (विनय पत्रिका)

राम से विमुख होने पर कैसे भी यत्न किये जायें, इस भव-सागर से मुक्ति नहीं मिल सकती। इसीलिए गोस्वामीजी संसार जनित विकारों को त्यागकर सर्व सुखदायी राम की कृपा पर ही आश्रित रहने का मार्ग अपनाने की सम्मति देते हैं-

अजहूं विचार विकार तजि,

भजु राम जनसुखदायकं।

भव-सिन्धु दुस्तर जल रथं,

भजु चाधर सुरनायकं।।

बिनु हेतु करुनाकर उदार,

अपार माया तारनं।

कैवल्यपति पगपति रमापति,

प्रानपति गति कारनं।।

इस राम-नाम को ही परम साधक मानकर गोस्वामीजी इस भव-सागर से पार होना चाहते थे। उनका कहना है कि संसार रूपी समुद्र से तरने के लिए सन्तों के पवित्र चरण ही नौका हेतु और अविद्या के नाश करने वाले तथा आनन्द की राशि देने वाले “हरि’ ही हैं-

संसय समन दुख,

सुख-निधान हरि एक।

तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में इसी मार्ग की परिपुष्टि की है। उनका कहना है कि अनेक शास्त्र अपने-अपने मत का प्रतिपादन करते हैं, परन्तु इन मतों के अनुसार माने हुए पंथ अनुकरणीय न होकर दुविधाजनक ही प्रतीत होते हैं। उनके गुरु द्वारा जो राम-नाम का पथ प्रदर्शित किया गया है, वही सर्वश्रेष्ठ है। यहां तक कि वे पंचाग्नि तापना, जल शयन करना, सारे तीर्थों की पैदल यात्रा करना, अन्नादि ग्रहण किये बिना ही पर्यटन करना, कृच्छ, महाकृच्छ, चांद्रायणादि व्रत का साधन करना, शास्त्रोक्तदान व इच्छित दान देना, अनेक ढंग से यज्ञादि करना भी इस राम-नाम के समकक्ष तुच्छ मानते हैं। ये सब प्रसाधन इस एक साधन के समक्ष विफल ही जान पड़ते हैं। इस अनन्यनिष्ठा को हृदयंगम कर लेने पर गोस्वामीजी जप, तीर्थ, उपवास, यज्ञादि को ही नहीं अपितु अनेकानेक मतों तथा पंथों को “शब्दारण्यं महाजलं चित्त भ्रमण कारणं’ ही कहकर चल देते हैं। विशेषतः इस कलियुग में उन्हें और किसी का भरोसा ही नहीं है।

नाहिन आवत आन भरोसो,

यहिं कलिकाल सकल साधन

तरु है श्रम फलनि फरोसो।।

तप, तीरथ, उपवास, दान, मख

जेहि जो रूच करोसो।

पायेहि पै जानिवो करम फल

भरि-भरि वेद परोसो।।

अगम विधि जप जाग करत नर

सरत न काग खरोसो।

सुख सपनेहूं न जोग सिधि साधन

रोग वियोग धरो सो।

बहुमत सुनि बहु, पंथ पुराननि

जहां-तहां झगरो सो।

गुरु कहो राम भजन नीको कोहि

लगत राज डगरो सो।।

तुलसी बिनु परतीति प्रीति फिरि

पचि मेरे भरोसो

राम-नाम बोहित भव सागर

चाहैं तरन तरोंसो।।

अर्थात मुझे एक राम की शरण के अतिरिक्त अन्य कहीं किसी प्रकार का भरोसा नहीं है। इस कलियुग में जितने साधन रूपी वृक्ष हैं, उनमें केवल परिश्रम रूपी फल लग रहे हैं। (कलि के ाूर हाथों से कुछ बचता ही नहीं) यह ऐसा समय है, जबकि तपस्या, तीर्थाटन, दान व्रत्यादि का फल केवल प्राप्त होने पर ही जाना जा सकता है। कारण मनुष्य शास्त्रोक्त विधि से जप, तप, यज्ञादि करते भी हैं, पर उनकी स्वयं की ाूरता के प्रभाव से उनका फल कुछ नहीं होता। योग-सिद्घ साधन द्वारा सुख प्राप्त नहीं होता। वह भी शरीर के रोग अथवा कुटुम्ब वियोग के कारण निष्फल हो जाता है। इस युग में शास्त्रों के अनेक मत सुनकर और पुराणों में विभिन्न पंथों को देखकर यह सब केवल एक झगड़ा-सा प्रतीत होता है, कोई निश्र्चित मार्ग नहीं दिख पड़ता। इसलिए मेरे गुरु ने मुझे जो राम-नाम का मंत्र दिया है, वही मेरे लिए राज-मार्ग के समान है। गोस्वामी तुलसीदासजी अन्त में केवल राम-नाम को ही जहाज बतलाते हुए कहते हैं कि इस भव-सागर के पार होने का केवल एक साधन है, और वह है राम-नाम।

तुलसी के साधन मार्ग का बड़ा ही स्वच्छ एवं विशद रूप निखरा है। गुरु द्वारा बतलाए हुए मार्ग राम-भजन के विषय में पद्म पुराण में कहा गया है-

न तप्पराणं नहिं यत्र रामो यस्यां, न रामो न च संहिता सा।

स नेतिहासो नहिं यत्र रामः काव्यं न तत्स्यान्नदि यत्ररामः।।

इसी विचार को लेते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी विनय पत्रिका में लिखते हैं-

ध्यान भक्ति साधन अनेक, सब सत्य, झूठ कछु नाहिं।

तुलसीदास हरिकृपा मिटै भ्रम, वह भरोस मन माही।

अर्थात् ज्ञान, भक्ति आदि अनेकानेक साधन उपलब्ध हैं, परन्तु इनके सत्य होते हुए भी अविद्यानाश केवल हरिकृपा से ही होता है।

तुलसीदासजी का साधन मार्ग केवल “द्विज देवगुरु, हरिसंत’ के चरणों की सेवा ही है, उनका कहना है – “जो मारग स्तुति साधु दिखावे, तेहि पथ चलत सर्व सुख पावै।’ इसे हम केवल भक्ति मार्ग ही कह सकते हैं, जिसमें मोक्ष ही सर्वोपरि है। इसके अतिरिक्त गोस्वामीजी ने परमानन्द की प्राप्ति के पन्द्रह साधन बताए हैं, जो इस प्रकार हैं-

  1. पक्ष के प्रथम दिन प्रतिपदा के समान प्रथम साधन है- प्रेम।
  2. द्वितीया के समान दूसरा साधन अपने-पराये का भेद त्यागकर पृथ्वी मंडल का विचरण और अज्ञान, माया, अहंकार प्रभृति को हटाकर श्री रघुनाथजी का चिन्तन।
  3. तृतीया के समान त्रिगुणात्मक प्रकृति (सत्व, रज, तम) का त्याग।
  4. चतुर्थी के समान अन्तःकरण चतुष्ठाय (मन, बुद्घि, चित्त, अहंकार) का परित्याग।
  5. पंचमी के समान पचेन्द्रियों (शब्द, स्पर्श, रस, गंध, रूप) से मुक्ति।
  6. षष्ठमी के समान षट् वर्ग (काम, ाोध, लोभ, मोह, मद, मार्त्सय) पर विजय।
  7. सप्तमी के समान सात धातुओं (त्वचा, रक्त, मांस, आस्थ, मंद, शुा) के बने शरीर से परोपकार।
  8. अष्टमी के समान अष्ट प्रकृति (पृथ्वी, जल, तेज, वायु, आकाश, मन, बुद्घि, अहंकार) से मुक्त हृदय की शुद्घि।
  9. नवमीं के समान नौ दरवाजों की नगरी शरीर में रहकर अपना उपकार।
  10. दशमी के समान दसों इंद्रियों का संयम।
  11. एकादशी के समान एक चित्त से भगवत् सेवा व आराधना।
  12. द्वादशी के समान दान-दक्षिणा द्वारा परोपकार।
  13. त्रयोदशी के समान तीनों अवस्थाओं में (जाग्रति, स्वप्न, सुषुप्ति) को त्यागकर भगवद् भजन।
  14. चतुर्दशी के समान मेरे-तेरे के भाव का नाश।
  15. पूर्णमासी के समान विषयों से विरक्ति तथा शांति, अभिमान शून्यता तथा ज्ञान में आसक्ति।

द्वैतवाद के अनुसार जगत ब्रह्म का एक अंश है, परन्तु तुलसीदासजी जगत को ब्रह्म का प्रतिरूप ही मानते हैं। द्वैतवाद के अनुसार अचिन्त्य शक्ति का काम विष्णु भगवान में है और गोस्वामीजी के अनुसार इसका निवास स्थान राम है। कहने का तात्पर्य यह है कि गोस्वामी तुलसीदासजी द्वारा प्रतिपादित साधना-मार्ग अति प्रशस्त, व्यापक, अनुकरणीय तथा सुलभ है। इस मार्ग पर चलकर साधक भगवदानुग्रह की ही आकांक्षा करता है। उसे वर्णाश्रम धर्म, वेद, पुराण, शास्त्र आदि अनेकानेक पंथ तथा मत सर्वथा थोथे जान पड़ते हैं। उसे अपने मार्ग में ही सद्विचारों तथा सद्गुणों की संतुलित अभिव्यंजना हुई जान पड़ती है। इस मार्ग पर चलकर भक्त अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है फिर भी दास्यभाव का परित्याग करता। यह भाव उसके हृदय में निरन्तर बना रहता है, उसे पूर्ण जगत भगवद्रूप गोचर होता है।

-डॉ. दुर्गा शर्मा

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