असम में घुसपैठ कोई नई परिघटना नहीं है। अंग्रेजों के शासनकाल से ही राज्य में बाहर से लोग आकर बसते रहे हैं। अंग्रे़जों ने चाय बागानों में भारी पैमाने पर मजदूरों को तैनात करने के लिए ठेकेदारों की मदद से छोटा नागपुर, बिहार, उड़ीसा और मध्यप्रदेश से मजदूरों को मंगवाया था। उन मजदूरों को कम मजदूरी दी जाती थी। धीरे-धीरे उन राज्यों से आए मजदूर चाय बागानों के आसपास खाली जमीन पर बसते चले गए। चाय बागानों में काम करने के अलावा वे खेती भी करने लगे और धीरे-धीरे असम के मूल निवासियों के साथ घुलते-मिलते गए। अब राज्य की आबादी में चाय श्रमिकों की महत्वपूर्ण उपस्थिति है जो चाय जनजाति का दर्जा पाने के लिए आंदोलन भी करते रहे हैं।
ग्वालपाड़ा और सिलहट इलाके के भूमिहीन लोग भी असम में बसते चले गए। पूर्वी बंगाल के मौमनसिंग जिले के ह़जारों भूमिहीन बांग्लादेशी असम में आकर बस गए। बाद में वे लोग कांग्रेस के व्यापक वोट-बैंक बन गए और कांग्रेस उनके हितों की सुरक्षा करने लगी। असम में नेपाल से भी लोगों का प्रवजन होता रहा। हालांकि असम में नेपाल से आए लोगों की तादाद ज्यादा नहीं है और वे छोटे समूहों में आकर बसते रहे हैं। उन्हें स्थानीय आबादी के लिए कभी चुनौती नहीं माना गया चूंकि ये आसानी से स्थानीय आबादी के साथ घुलते रहे हैं। पूर्वोत्तर के सात राज्यों में होने वाली घुसपैठ का दुष्परिणाम सबसे ज्यादा असम को ही भुगतना पड़ रहा है। असम को छोड़कर अन्य छह सीमावर्ती राज्यों में जाकर बसना भौगोलिक कारणों से कठिन है। उन राज्यों की सीमाओं पर पहाड़ियां हैं और यातायात व्यवस्था दुर्गम है। लेकिन असम की सीमाएं खुली हुई हैं और इसे पूर्वोत्तर का द्वार कहकर पुकारा जाता है। असम में यातायात व्यवस्था बेहतर है और नदी मार्ग से बांग्लादेशी नागरिकों को असम पहुँचने में कोई कठिनाई नहीं होती।
सन्1971 के बांग्लादेश युद्घ के बाद से मुस्लिम घुसपैठियों की तादाद में अप्रत्याशित रूप से वृद्घि होती गई। भारतीय सेना की मदद से बांग्लादेश की स्थापना हुई। भारत के साथ दोस्ताना संबंध होने का फायदा उठाते हुए बांग्लादेशी नागरिक आसानी से असम और पश्र्चिम बंगाल में आकर बसते चले गए। उन्होंने आसानी के साथ भारतीय नागरिकता भी हासिल कर ली और वे चुनावों में मताधिकार का प्रयोग करने लगे। शुरू में किसी भी राजनीतिक दल ने इस मुद्दे की तरफ ध्यान नहीं दिया। मतदाता सूची में अप्रत्याशित रूप से संदिग्ध नागरिकों के नाम जुड़ते गए और प्रशासन मूक दर्शक बना रहा। 1979 में अखिल असम छात्र संघ (आसू) की अगुवाई में विदेशियों का बहिष्कार करने के लिए आंदोलन शुरू हुआ। यह आंदोलन 1985 तक चलता रहा। 15 अगस्त, 1985 को केन्द्र सरकार और आसू के बीच असम समझौता हुआ। विदेशी नागरिकों की शिनाख्त करने और उन्हें बाहर निकालने के संबंध में असम समझौते में एक अनुच्छेद जोड़ा गया। मगर संसद में कांग्रेस ने अपने बहुमत का उपयोग करते हुए असम में विदेशी नागरिकों की पहचान करने के लिए आईएसडीटी नामक पृथक कानून बना दिया, जिसके आधार पर किसी भी विदेशी नागरिक को बहिष्कृत करना असंभव हो गया।
आईएसडीटी में प्रावधान रखा गया कि संदिग्ध विदेशी व्यक्ति अपनी नागरिकता की पुष्टि करेगा। इसके अलावा प्रिाया जटिल बना दी गई ताकि किसी भी विदेशी घुसपैठिए की शिनाख्त संभव न हो सके। स्वाभाविक रूप से इसे “काला कानून’ कहकर असम के जन संगठनों ने इसका विरोध किया और एक याचिका पर विचार करते हुए उच्चतम न्यायालय ने 2005 में इस कानून को समाप्त कर दिया। लगभग 22 वर्षों तक यह कानून लागू रहा और इस दौरान भारी तादाद में बांग्लादेश से आए नागरिक स्थायी रूप से असम में बसते चले गए। कांग्रेस के वोट बैंक होने के नाते उन्हें आसानी से राशन कार्ड मिलता रहा और रातोंरात भारतीय नागरिकता भी मिलती रही। हाल ही में प्रकाशित जनगणना की रिपोर्ट से पता चला है कि असम के कई जिलों में अप्रत्याशित रूप से मुस्लिम नागरिकों की संख्या बढ़ गई है। इस रिपोर्ट से अवैध घुसपैठ के खतरे का स्पष्ट संकेत मिल रहा है। कई जनसंगठन आशंका व्यक्त कर रहे हैं कि आने वाले समय में असम के मूल निवासी अल्पसंख्यक बन जाएंगे। इस खतरे को भांपते हुए आसू ने नए सिरे से अवैध घुसपैठ के खिलाफ आंदोलन शुरू करने का फैसला किया है।
असम में जहॉं सत्ताधारी दल बांग्लादेशियों के हितों की सुरक्षा करते रहे हैं वहीं प्रतिबंधित उग्रवादी संगठन उल्फा भी बांग्लादेशियों के हितों की सुरक्षा करता रहा है। बांग्लादेशियों को राज्य से खदेड़ने के लिए उल्फा का जन्म हुआ था। विडंबना की बात यही है कि यही उल्फा बांग्लादेशियों का रक्षक बन गया क्योंकि उसके प्रमुख नेताओं को बांग्लादेश ने शरण दे रखी है और वे बांग्लादेश के इशारे पर कार्य करने के लिए मजबूर हो चुके हैं।
असमिया समाज की एकजुटता को राजनीतिक साजिश के तहत खत्म किया जा रहा है। छोटे-छोटे समुदाय अपनी पहचान के लिए हिंसक आंदोलन करने पर उतारू हो चुके हैं। राज्य सरकार इस तरह की फूट को बढ़ावा देती रही है। अलग-अलग समुदायों के लिए स्वायत्तशासी परिषदों का गठन किया गया है। विदेशी घुसपैठ को रोकने के लिए कोई कदम नहीं उठाया गया है। असम समझौते के 22 साल गुजर जाने के बावजूद भारत-बांग्लादेश सीमा पर बाड़ लगाने का काम पूरा नहीं किया गया है। राष्टीय नागरिक पंजीयन को अद्यतन कर फोटो पहचान-पत्र जारी करने की आसू की मांग की तरफ सरकार ने गौर करने की ़जरूरत नहीं समझी है। सरकार की उदासीनता से स्पष्ट है कि वह जानबूझकर घुसपैठ को प्रोत्साहित कर रही है और असम के मूल निवासियों के सामने अस्तित्व का संकट गंभीर होता जा रहा है।
– दिनकर कुमार
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