जीवन गीता

कैकय देश के राजा सहस्त्रचित्य प्रजा के कल्याण के लिए सदैव तत्पर रहते थे। विद्वानों और संतों के सत्संग के कारण उन्होंने अपना जीवन धर्मानुसार बिताने का संकल्प लिया था। एक संत ने उन्हें बताया था कि धर्मशास्त्रों के मुताबिक, विद्वान ब्राह्मणों एवं शिक्षकों के माध्यम से ही देश की प्रजा अच्छे संस्कार प्राप्त करती है। विद्वान राज्य की शोभा होते हैं। इसलिए उनकी सेवा और सुरक्षा राजा का सर्वोपरि धर्म है।

उम्र होने पर राजा सहस्रचित्य अपने पुत्र को शासन सौंप तप के लिए वन में चले गए। वहॉं एक कुटिया में रह कर तप-साधना और धर्मशास्त्रों का अध्ययन करने लगे। एक दिन उनकी कुटिया के समीप स्थित आश्रम को आग ने घेर लिया। उसमें बच्चों को शिक्षा देने वाले एक विद्वान ब्राह्मण रहा करते थे। आग से वह घिर गए थे। राजर्षि सहस्त्रचित्य ने जैसे ही “बचाओ-बचाओ’ की आवाज सुनी, उन्होंने अपनी आँखें खोलीं। देखा, सामने का आश्रम आग की लपटों से घिरा है। वह भागे-भागे वहॉं पहुँचे। आग का घेरा लांघ कर वह अंदर पहुँचे और विद्वान ब्राह्मण को गोदी में बिठा कर बाहर ले आए। आग ने राजर्षि के शरीर को बुरी तरह झुलसा दिया था। राजा का अंत निकट आ गया था। तब भगवान ने प्रकट होकर कहा, “राजा, तुमने धर्म के मर्म को समझ कर एक विद्वान की रक्षा में अपने प्राण दिए हैं। अपने कर्त्त्तव्यपालन के पुण्यों से तुम उत्तम लोक में स्थान पा गए हो।’

You must be logged in to post a comment Login