“कश्मीर में हिन्दू या मुस्लिम का प्रश्न नहीं है। हम इस किस्म की भाषा इस्तेमाल नहीं करते।’ यह बात 1948 में शेख मुहम्मद अब्दुल्ला ने कही थी, लेकिन 2008 में आठ सप्ताह के भीतर ही श्राइन भूमि विवाद ने जम्मू कश्मीर को नफरत से भर दिया। अब देखना यह है कि क्या बीती 31 अगस्त को श्री अमरनाथ जी यात्रा संघर्ष समिति और जम्मू-कश्मीर सरकार के बीच जो समझौता हुआ है, उससे यह नफरत दूर होगी? हालांकि यह समझौता संकट का पूरा समाधान नहीं करता, लेकिन जम्मू की प्रतििायावादी लपटों को इसने बुझाया है और पीडीपी को छोड़कर सभी राजनीतिक पार्टियों ने समझौते का स्वागत किया है। पीडीपी ने इसे एकतरफा समझौता कहा है जिसमें कश्मीर के स्थानीय लोगों की भावनाओं को मद्देनजर नहीं रखा गया है। लेकिन नेशनल कांफ्रेंस के प्रमुख और पूर्व मुख्यमंत्री डॉ. फारुख अब्दुल्ला ने “अच्छे संकेत’ के तौर पर समझौते का स्वागत करते हुए कहा है कि राज्य में दो समुदायों के बीच जो नफरत पनप रही थी, उसका स्वागतयोग्य समाधान हो गया है।
डा. अब्दुल्ला के इस बयान से स्पष्ट है कि वे स्वार्थी तत्वों की बजाय राज्य के अवाम से मुखातिब होने के महत्व को समझते हैं। डा. अब्दुल्लाह के शासन कौशल पर बहस की जा सकती है, लेकिन इस बात को सराहा जाना चाहिए कि वे धर्मनिरपेक्षता और लोकतांत्रिक भावना का परिचय दे रहे हैं, जिसकी जम्मू-कश्मीर ही नहीं पूरे देश को बेहद जरूरत है।
गौरतलब है कि 4 चा की वार्ता के बाद श्री अमरनाथ जी यात्रा संघर्ष समिति और राज्य सरकार के बीच 31 अगस्त को समझौता हुआ। इसके तहत वन्य विभाग की 40 हेक्टेयर भूमि को अलग कर दिया गया है जिसके इस्तेमाल का एक्सक्लूसिव अधिकार श्राइन बोर्ड को होगा। लेकिन भूमि पर श्राइन बोर्ड का मालिकाना हक नहीं होगा और न ही वह उस पर कोई स्थायी निर्माण कर सकेगा।
समझौते के तहत श्राइन बोर्ड इस भूमि पर यात्रा के दौरान जरूरत के हिसाब से अस्थायी निर्माण करा सकेगा जिसमें शामिल हैं- प्रीफैब्रीकेटेड रहने के कमरे और शौचालय सुविधाएं, निजी एजेंसियों (राज्य के स्थानीय, स्थायी नागरिकों) द्वारा टेंट लगाना, दुकानें लगाना, टट्टू वालों व पिट्ठू वालों को सुविधाएं प्रदान करना, हेल्थ केयर व मेडिकल सुविधाएं सुनिश्र्चित करना, निजी व्यक्तियों व ग्रुपों जिन्हें बोर्ड ने लाइसेंस दिया हो उनके द्वारा मुफ्त लंगर लगाना, और हेलीकॉप्टर ऑपरेशन/वाहन पार्किंग के लिए जगह उपलब्ध कराना और अन्य इंतजाम करना।
इस बात पर भी सहमति हुई कि यात्रा के दोनों रूटों पर इंतजाम करने की जिम्मेदारी यात्रा के दौरान बोर्ड की रहेगी। इनमें वह सब इंतजाम शामिल हैं जिनका प्रावधान श्री अमरनाथ जी श्राइन एक्ट 2000 में है।
अगर गौर से देखा जाए तो इस समझौते में कोई नई चीज नहीं है। यात्रा के दौरान यह सब काम श्राइन बोर्ड ही कर रहा था और सुरक्षा का इंतजाम राज्य सरकार के हाथ में था। अब भी यही स्थिति रहेगी, सिर्फ इस फर्क के साथ कि इस काम के लिए जो भूमि निर्धारित की गई है, उसके उपयोग का एक्सक्लूसिव अधिकार श्राइन बोर्ड को होगा। इसलिए यह कहना गलत न होगा कि कश्मीर घाटी की अवाम को भी इस समझौते पर कोई आपत्ति नहीं है।
लेकिन यहां यह बताना आवश्यक है कि दहशतगर्दी के सबसे भयंकर दौर में भी अमरनाथ यात्रा स्थानीय लोगों की मदद से ही सफलतापूर्वक पूरी होगी। अब स्थानीय व्यापारियों को यह डर है कि श्राइन बोर्ड उन्हें यात्रा की इकॉनॉमी से अलग रखेगा और दूसरी जगह के व्यापारियों की मदद करेगा। इसलिए जरूरी है कि श्राइन बोर्ड और राजनीतिक पार्टियां स्थानीय लोगों की इन चिंताओं को दूर करें और यह सुनिश्र्चित करें कि अमरनाथ यात्रा में स्थानीय व्यापारियों की वही भूमिका रहेगी जो कि पहले से रहती आयी है। गौरतलब है कि अमरनाथ यात्रा साम्प्रदायिक सौहार्द की जबरदस्त मिसाल है। अमरनाथ गुफा की खोज एक मुस्लिम चरवाहे ने की थी और आज तक चढ़ावे का एक-तिहाई हिस्सा उसके परिवार को दिया जाता है।
घाटी के स्थानीय व्यापारियों की चिंताओं को अगर दूर कर दिया जाए तो न सिर्फ पीडीपी जैसी पार्टियां वोट के लिए भावनाओं से खिलवाड़ न कर सकेंगी बल्कि अमरनाथ यात्रा का हर साल शांतिपूर्ण संपन्न होना भी सुनिश्र्चित हो जाएगा।
लेकिन अमरनाथ पर समझौते का अर्थ यह नहीं है कि जम्मू-कश्मीर में स्थिति परिवर्तित हो जाएगी। घाटी में जो फिलहाल आाोश है, उसकी शुरूआत निश्र्चित रूप से भूमि विवाद के कारण हुई, लेकिन अब मुद्दे भूमि से आगे बढ़ गए हैं। कर्फ्यू और गिरफ्तारियों से लोगों को अस्थायी तौर पर ही सड़कों से दूर रखा जा सकता है। स्थायी शांति तभी संभव है जब विवाद में शामिल सभी पार्टियों को विश्र्वास में लिया जाए। इसलिए नई दिल्ली को अब ऐसी योजना बनानी चाहिए जिसमें घाटी के राजनीतिक नेतृत्व को शामिल किया जाए। श्राइन बोर्ड को भी पहले की तुलना में अधिक प्रतिनिधिक बनाया जाए ताकि जम्मू और घाटी के लोगों के बीच फासला कम हो और एक-दूसरे के प्रति जो भ्रांतियां हैं, वह भी दूर हो जाएं। यह सही है कि यह भ्रांतियां व डर कुछ वास्तविक और कुछ काल्पनिक हैं, लेकिन हिंसा रोकने और शांति स्थापित करने के लिए इनका दूर किया जाना ला़जमी है।
अमरनाथ समझौते की ज्यादातर बातें वहीं हैं जो पूर्व मुख्यमंत्री गुलाम नबी आजाद की सरकार ने सुझाई थीं, लेकिन 26 मई के उस फैसले पर आजाद सरकार की सहयोगी पार्टी पीडीपी और इस योजना की शुरूआती प्रस्तावक नेशनल कॉन्फ्रेंस ने और साथ ही हुर्रियत ने ऐसा हंगामा खड़ा किया कि आजाद सरकार को अपना फैसला वापस लेना पड़ा और वह गिर भी गई। इस पर जम्मू में आंदोलन हुआ और घाटी में भी लोक-सड़कों पर उतरे। जम्मू-कश्मीर के इतिहास में पहली बार ऐसा हुआ जब दोनों क्षेत्र एक-दूसरे के खिलाफ खड़े नजर आए और इस संघर्ष में दर्जनों लोगों की जानें गईं। अब इस समझौते को जम्मू की जीत के रूप में देखा जा रहा है जो कि सही नहीं है। दरअसल, यह समझौता उसी सौहार्द को मजबूती प्रदान करता है जिसके कारण सदियों से घाटी के स्थानीय निवासी अमरनाथ यात्रियों को सहयोग व सहायता देते आ रहे हैं। इस दृष्टि से देखा जाए तो यह समझौता जम्मू की जीत भी है और कश्मीर घाटी की भी, बल्कि सही मायनों में तो यह शांति और सौहार्द की जीत है। अब जरूरत गलतफहमियों को दूर करने की है, खासकर घाटी में। ध्यान रहे कि आजाद सरकार के फैसले पर ़जरा-सी गलतफहमी ने जम्मू के लोगों को 63 दिनों तक आंदोलन और 39 दिनों तक संपूर्ण बंदी के लिए मजबूर कर दिया था, इसलिए यह समझौता जो शांति की खबर देता है और स्वागतयोग्य भी है, के संदर्भ में ऐसे प्रयास आवश्यक हैं जो गलतफहमियों के लिए कोई गुंजाइश न छोड़ें।
– शाहिद ए. चौधरी
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