टाटा समूह के चेयरमैन रतन टाटा ने पश्र्चिम बंगाल से बहुचर्चित नैनो कार परियोजना को हटाए जाने का दुखद फैसला आखिरकार ले ही लिया। हालांकि रतन टाटा के इस निर्णय का आभास उसी समय होने लगा था जबकि इस संयंत्र में उत्पादन कार्य एक माह पूर्व ही ठप्प हो गया था। इतना ही नहीं बल्कि इस संयंत्र की कई मशीनें भी सिंगूर से स्थानांतरित होनी शुरू हो गई थीं। और इन सबसे महत्वपूर्ण बात यह थी कि सिंगूर में नैनो संयंत्र हेतु भूमि अधिग्रहण को लेकर होने वाले हिंसक प्रदर्शनों से ऊब कर रतन टाटा ने साफ शब्दों में यहां तक कह दिया था कि उन्हें अपने पन्द्रह सौ करोड़ रुपये के निवेश के अधर में लटकने की कोई परवाह नहीं है बल्कि हमारे लिए इससे अधिक ़जरूरी है हमारे संयंत्र से जुड़े कर्मचारियों के जानमाल की सुरक्षा की चिंता। परन्तु इन सबके बावजूद यह आस बंधी थी कि संभवतः पश्र्चिम बंगाल के राज्यपाल गोपालकृष्ण गांधी की मध्यस्थता के परिणामस्वरूप अथवा राज्य के मुख्यमंत्री बुद्घदेव भट्टाचार्य की कोशिशों की वजह से शायद रतन टाटा नैनो संयंत्र सिंगूर में ही कायम रखें। परन्तु दुर्भाग्यवश ऐसा नहीं हो सका।
सिंगूर से नैनो संयंत्र को हटाए जाने के निर्णय को मात्र किसी छोटे घटनााम के रूप में नहीं देखा जाना चाहिए। यह घटना किसी एक राज्य से किसी एक उद्योग के हटाए जाने की घटना मात्र नहीं है। बल्कि यह एक ऐसी बड़ी दुखद घटना है जिसका नकारात्मक प्रभाव राज्य की अर्थव्यवस्था पर कई दशकों तक पड़ने की पूरी संभावना है। विदेशी पूंजी निवेश को आमंत्रित किए जाने के आज के वैश्र्विक वातावरण में प्रत्येक देश तथा प्रत्येक राज्य अपने क्षेत्रों में बड़े उद्योग आमंत्रित करना चाहता है। परन्तु एक बड़ा भारतीय उद्योग समूह होने के बावजूद टाटा समूह को जिस प्रकार की ओछी राजनीति का शिकार होना पड़ा है, इसके परिणामस्वरूप सम्भवतः अब कई दशकों तक कोई बड़ा उद्योग समूह पश्र्चिम बंगाल का शायद रुख भी नहीं करना चाहेगा। और बड़े दुख की बात है कि इसकी जिम्मेदार पश्र्चिम बंगाल की सरकार नहीं बल्कि राज्य की विपक्षी पार्टी तृणमूल कांग्रेस व इसकी नेता ममता बनर्जी होंगी।
ज्ञातव्य है कि दो वर्ष पूर्व पश्र्चिम बंगाल सरकार ने टाटा उद्योग समूह की नैनो कार परियोजना हेतु लगभग 1000 एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। लगभग दस हजार किसान मुआवजा लेकर अपनी जमीन टाटा को देने के लिए तैयार थे। जबकि 2000 किसानों ने मुआवजा न लेने का निर्णय लिया और अंततः ममता बनर्जी ने इसे एक बड़े आन्दोलन का रंग दे दिया था। परिणामस्वरूप टाटा कर्मचारियों व इंजीनियरों पर अनेक बार जानलेवा हमले किए गए। और इन सबसे दुखी होकर सितम्बर के प्रारम्भ में नैनो का उत्पादन बंद कर दिया गया।
दरअसल नैनो कार दुनिया की सबसे सस्ती कार के रूप में भारतीय सड़कों पर लाने का रतन टाटा का वादा है। कम से कम लागत में इस कार का निर्माण किया जा सके, इसके लिए भी टाटा समूह कई महत्वपूर्ण रणनीति बना रहा है। कच्चे माल की खरीद से लेकर उत्पादन तक तथा इसके विाय तक अनेक ऐसे बिन्दुओं पर टाटा की नजर है जिससे कि नैनो के उत्पादन पर कम से कम खर्च आ सके और आम लोगों को एक लाख रुपये की कार देने का अपना वादा टाटा पूरा कर सके। इसी सिलसिले की एक महत्वपूर्ण कड़ी के रूप में टाटा समूह की यह योजना थी कि सिंगूर में लगने वाले नैनो कार मुख्य संयंत्र के साथ ही नैनो कार परियोजना से संबंधित सहायक उद्योग भी लगाए जाएं ताकि नैनो के सहायक कलपुर्जों को दूर से लाने-ले जाने के भारी-भरकम खर्च व इस पर व्यय होने वाले समय को बचाया जा सके। परन्तु ममता बनर्जी की तथाकथित गरीबोन्मुखी राजनीति के समक्ष टाटा की यह मजबूरी समझ में नहीं आई। फलतः 2000 किसानों के तथाकथित अधिकारों की लड़ाई का झण्डा बुलंद कर ममता बनर्जी ने पूरे देश के उन करोड़ों गरीबों व मध्यम वर्ग के लोगों का दिल दुखाया है जोकि यथाशीघ्र नैनो के सड़कों पर आने की प्रतीक्षा कर रहे थे तथा अपने जीवन की पहली कार खरीदने का सपना संजोए बैठे थे।
आज भारत का लगभग प्रत्येक राज्य नैनो कार परियोजना उद्योग को अपने यहां स्थापित करने हेतु लालायित है। कई राज्यों के मुख्यमंत्रियों द्वारा रतन टाटा को न्यौता भी दिया जा चुका है। परन्तु फिलहाल टाटा समूह द्वारा इस संबंध में अभी कोई अंतिम निर्णय नहीं लिया गया है। निश्र्चित रूप से जिस राज्य में भी नैनो संयंत्र लगेगा, उस राज्य की अर्थव्यवस्था पर तो इसका प्रभाव पड़ेगा ही, साथ ही साथ राज्य के लाखों लोग भी सीधे तौर पर इस परियोजना का लाभ उठा सकेंगे। शायद यही वजह है कि पश्र्चिम बंगाल के उद्योग मंत्री निरुपम सेन को रतन टाटा के नैनो परियोजना के सिंगूर से हटाए जाने के फैसले पर प्रतििाया देते हुए यहां तक कहना पड़ा कि “यह राज्य के लिए एक काला दिन है।’ सेन ने यह भी स्वीकार किया है कि इस घटना के बाद राज्य में अब नए निवेश को आकर्षित करना बड़ा मुश्किल होगा।
प्रश्न यह है कि क्या कभी देश से ऐसी ओछी व घटिया राजनीति का अंत हो सकेगा? गरीब किसानों को झूठी हमदर्दी दिखाकर देश की अर्थव्यवस्था को ठेस पहुंचाने का यह सिलसिला आखिर कब तक चलता रहेगा। पश्र्चिम बंगाल की गिनती देश के उन गिने-चुने कमजोर राज्यों में होती है जिन्हें विकसित किए जाने की बहुत स़ख्त जरूरत है। नए-नए उद्योग विशेषकर बड़े उद्योग स्थापित होने से ही इन राज्यों में रोजगार की संभावनाएं बढ़ सकती हैं तथा राज्य का विकास सुनिश्र्चित हो सकता है। परन्तु जब तक गरीब किसानों के नाम पर घड़ियाली आंसू बहाने वाले नेता किसी भी राज्य में मौजूद हैं तब तक शायद न तो वहां बड़े उद्योग स्थापित किए जा सकते हैं और न ही राज्य के विकास की कल्पना की जा सकती है।
इस प्रकरण में यदि टाटा समूह, पश्र्चिम बंगाल सरकार व तृणमूल कांग्रेस के मध्य चली खींचतान, राजनीति एवं संघर्ष को गौर से देखा जाए तो यह देखने को मिलेगा कि पश्र्चिम बंगाल सरकार द्वारा वामपंथी सरकार होने के बावजूद तथा गरीबों व मजदूरों की रहनुमाई करने वाली सरकार होने के बावजूद इस बात का प्रयास किया गया कि राज्य के विकास के दृष्टिगत् किसी भी तरह से नैनो कार परियोजना को पश्र्चिम बंगाल में ही रोका व चलाया जा सके। स्वयं रतन टाटा भी यही सोचकर पश्र्चिम बंगाल में नैनो संयंत्र को स्थापित करने के पक्षधर थे कि इसके माध्यम से राज्य के लोगों का कल्याण हो सकेगा। परन्तु ममता बनर्जी ने तो मानो नैनो संयंत्र न चलने देने को अपनी प्रतिष्ठा का प्रश्न ही बना लिया था।
यदि देश को विकास के रास्ते पर ले जाना है तो इस देश की राजनीति को पाक-साफ रखना होगा। इस देश के विकास, कल्याण तथा देश के गरीबों हेतु टाटा के घराने ने अब तक जितना कुछ किया है, क्षेत्रीय नेता उसका मुकाबला करना तो दूर उसकी कल्पना भी नहीं कर सकते। नैनो कार के उत्पादन की सोच ही स्वयं इस बात का प्रमाण है कि रतन टाटा गरीबों के लिए कैसी सोच रखते हैं तथा सिंगूर से नैनो संयंत्र का हटाया जाना भी यह सोचने के लिए काफी है कि ममता बनर्जी देश के गरीबों के लिए तथा पश्र्चिम बंगाल के बेरोजगारों के लिए कैसी सोच रखती हैं।
– निर्मल रानी
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