पश्चाताप

गर्मियों के दिन थे। शाम का समय था। सूर्य क्षितिज की ओर बढ़ रहा था। आकाश कुछ लोहित हो चला था। जैसे-जैसे अंधकार बढ़ता जा रहा था, मीनू की बेचैनी बढ़ती जा रही थी। उसका मन असमंजस की स्थिति में था। वह समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या करे? उसके अंदर की सात्विक शक्तियां उसकी कुत्सित मनोवृत्ति का प्रतिरोध कर रही थीं। वह चाहकर भी अपनी उस योजना को िायान्वित नहीं कर पा रही थी, जो उसने अमन के साथ मिलकर बनायी थी। रह-रहकर शेखर का प्यार, उसकी अच्छाइयां उसका हृदय द्रवित कर रही थीं।

“”क्या वह शेखर को मार दे, … अपने पति को, अपने प्यार को… उसी प्यार को, जिसे पाने के लिए कभी उसने अपने घर-परिवार को छोड़ दिया था।”

अचानक बीते दिनों की मधुर स्मृतियां उसके मस्तिष्क-पटल पर एक चलचित्र की भांति उभरने लगीं। स्वतः ही उसके होंठों पर एक निश्छल मुस्कान उभर आयी। न चाहते हुए भी उसके मन में शेखर के प्रति प्यार उमड़ आया। लेकिन न जाने अमन ने उस पर क्या जादू किया था कि आज वह उस देवता को द़गा देने की सोच रही थी, जिसकी वह कभी पूजा करती थी। रह-रहकर अमन का कसावटी, गठीला बदन उसकी आंखों के सामने आ जाता। उसके शरीर की मदमाती गंध उसे अपनी ओर आकर्षित करने लगती और उसके साथ बिताये गये चंद क्षण उन असंख्य पवित्र क्षणों पर भारी पड़ने लगते, जो उसने शेखर के साथ बिताये थे। अमन के बदन के समक्ष उसे शेखर की पवित्र आत्मा बेकार तथा निस्सार प्रतीत होती।

अचानक वासना का तूफान उसके हृदय में उमड़ने लगा। आँखें दृढ़ हो गयीं। आँखों में शैतानी के भाव तैरने लगे। वह पर्स से एक शीशी निकाल कर रसोई की ओर बढ़ने लगी। शीशी को दूध में डालकर वह शेखर का इंतजार करने लगी। नजरें बार-बार घड़ी की ओर जा रही थीं। सात बजने को थे। शेखर आने ही वाला था। हर रोज लगभग इसी समय वह आता है और आते ही चाय पीना उसकी आदत है। उस बेचारे को क्या पता कि आज वह आखिरी बार ऐसा करेगा। इंतजार करते-करते आठ बज चुके। शेखर नहीं आया। वह चहलकदमी करते-करते थक कर बैड पर बैठ गयी और तकिया उठाकर अपने घुटनों पर रख लिया। एक बेचैन इंसान अक्सर ऐसी िायाएं करता ही है। उसे ऐसा लगा कि तकिए के नीचे कुछ है। वहॉं एक कागज पड़ा था, जो सलीके से मोड़कर रखा गया था। उस पर लिखे दो शब्दों को पढ़ते ही वह चौंक पड़ी।

“”प्रिय मीनू!”

वह एक सांस में पढ़ती चली गयी।

“प्रिय मीनू,’

मैंने जीवनभर तुमसे प्यार किया है। यह प्यार ही मेरे जीने का सहारा है। मगर कुछ महीनों से ऐसा लग रहा है कि मेरा यह सहारा भी अब मुझसे छूटता जा रहा है। मेरे प्रति तुम्हारा प्यार औपचारिकता बनकर रह गया है। तुम्हें यह जानकर शायद हैरानी होगी कि मैं तुम्हारे और अमन के रिश्ते को अच्छी तरह जानता हूँ। आज से नहीं, लगभग छः महीने से। मैं यह भी जानता हूँ कि मेरे ऑफिस जाने के बाद अमन हमारे घर आता रहता है। इतना कुछ होने पर भी मैंने कभी तुमसे कुछ नहीं कहा क्योंकि मेरा मानना था कि प्यार हमेशा जीतता है। मेरा प्यार अगर सच्चा है तो तुम स्वयं ही अमन को भूल जाओगी। लेकिन मैं हार गया। मेरा प्यार हार गया। शायद मेरे प्यार में ही कोई खोट है। मैं कोशिश करूंगा कि अगले जन्म में इस खोट को दूर कर सकूं। हॉं, मैंने अपनी सारी संपत्ति तुम्हारे नाम कर दी है। खुश रहो, मुझे पता है कि जब तुम्हें यह पत्र मिलेगा तो शायद तुम पश्र्चाताप से भर जाओगी, अपनी जान देना चाहोगी। मेरी तुमसे अंतिम विनती है कि यदि तुमने मुझसे कभी थोड़ा-बहुत प्यार किया है तो उस प्यार की खातिर ऐसा कदम न उठाना।”

जैसे-जैसे मीनू कागज पर लिखे एक-एक शब्द को पढ़ती जा रही थी, उसकी आँखें नाम होती जा रही थीं। अचानक पत्थर पिघलने लगा। आँसू सैलाब बनकर उमड़ने लगे और उसके मन का सारा ़जहर बह गया। अचानक वह एक झटके से उठी और पागलों की तरह रसोई की तरफ भागने लगी। वह अपनी जीवनलीला समाप्त कर लेना चाहती थी, लेकिन उसे शेखर की अंतिम विनती याद आ गयी। वह फर्श पर गिर पड़ी और फूट-फूटकर रो पड़ी।

अगले दिन शेखर की टेन से कटी लाश मिली। मीनू पागलों की तरह अपना सिर पीटने लगी। मानो सिर पटक-पटक कर जान दे देगी, लेकिन वह मर भी तो नहीं सकती थी। शायद यही उसकी सजा थी। वह दुनिया के लिए एक जीती-जागती मिसाल बन गयी थी कि किसी अपराधी के लिए सबसे बड़ी सजा वह अपराध-बोध है, जिसे वह जीवन-पर्यन्त अपने सीने से लगाए जीता है और तिल-तिल कर मरता है।

–     भारत कुमार “मिट्ठू’

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