इतना सब कुछ सहन करने के उपरांत भी निशा पिछले तीन साल से एक ऐसे व्यक्ति के ऑफिस में बड़े ही धैर्य एवं शालीनता से अपना कार्य करती रही है, जिसके पिता ने उसके पिता का जीवन तबाह कर दिया। वह निशा के बारे में जितना अधिक सोचता, उसकी परेशानी बढ़ती ही जा रही थी।
न्याय के तकाजे से तो उसके पिता के गुनाहों की सजा उन्हें ही मिलनी चाहिए थी, लेकिन बचपन में उसे मिले आर्यसमाजी संस्कार उससे कुछ त्याग और बलिदान की अपेक्षा रखते हैं। अब उसे ही कुछ करना होगा। उसके पिताजी द्वारा तबाह किये गये परिवार को हमेशा के लिए इस त्रासदी से उबारने का उसे केवल एक ही रास्ता सूझ रहा था और वो था, निशा को अपनी अर्धांगिनी बना लेना। वह जानता था कि उसके पिता कभी भी उसके इस निर्णय को स्वीकार नहीं करेंगे, लेकिन कठोर निर्णय लिए बिना इस मामले में न्याय संभव ही नहीं होगा।
आज रविवार का दिन है। वह काफी देर तक सोया रहा। शायद कल दिन भर उसके मन में विचारों की जो उथल-पुथल मची हुई थी, उसी वजह से उसे रात नींद भी देरी से आयी। खिड़की से आ रही सूर्य की रोशनी उसे जो नया संदेश दे रही थी, उसे समझकर वह तुरंत ही उठ बैठा और दैनिक कार्यों से निवृत्त हो सबसे पहले उसने अपनी मॉं को अपने मन की बात बतायी। मॉं ने बचपन से ही उसे निर्णय लेने की स्वतंत्रता दी थी। इसलिए आशीर्वाद देते हुए उन्होंने सिर्फ इतना ही कहा, “”केवल भावुकता और जल्दबाजी में जीवन के महत्वपूर्ण फैसले नहीं लिये जा सकते। यदि तुमने निशा को इस घर की बहू बनाने का फैसला कर लिया है तो अपने निर्णय पर दृढ़ रहना। निशा दूसरी बिरादरी की लड़की है। हमारा समाज, छोटी जात की लड़की के साथ की जा रही इस शादी को आसानी से मान्यता नहीं देगा।
सामाजिक विरोध को झेलने का जज्बा है तो मेरा आशीर्वाद हमेशा तुम्हारे साथ है।
मॉं की बातों से उसका हौसला बढ़ गया।
वह निशा के घर की ओर चल पड़ा। निशा अचानक उसे अपने सामने पाकर निशा अवाक्-सी रह गयी। “”कौन है, बेटी?” भीतर से आई मॉं की आवाज ने उसे चौंका दिया और उसने उसे अंदर आने को कहा।
निशा का घर देखकर ऐसा लगा कि उनका जीवन बहुत ही सादगीपूर्ण है, कुछ ही देर में मॉं-बेटी दोनों आ गयीं। उसने आगे बढ़कर निशा की मॉं के चरण-स्पर्श किये। निशा ने अपनी मॉं को सब कुछ बता दिया होगा। यही सोचकर उसने बिना किसी औपचारिकता के सीधी बात करने की सोची।
“”मैं आपके परिवार का अपराधी हूँ मॉं और इस अपराध के बोझ से मुक्त होने के लिए आज आपके चरणों में उपस्थित हुआ हूँ।”
“”यदि निशा सहमत है तो मैं निशा से शादी करना चाहता हूँ।” उसकी बात सुनकर निशा अवाक्-सी रह गयी। उसके मुंह से बोल ही नहीं निकल पाये।
निशा कुछ कहने को हुई, तभी वह उसे रोकते हुए कहने लगा, “”निशा कोई जल्दी नहीं है। भली-भांति सोचने के पश्र्चात् ही मैंने यह निर्णय लिया है। इस सड़ी-गली सामाजिक व्यवस्था को ठीक करने की दिशा में जो प्रयास करना है, उसमें हम जैसे युवाओं को ही आगे आना होगा अन्यथा समाज का यह परम्परावादी एवं रूा़र्ंिढवादी तानाबाना हम युवाओं के अस्तित्व को कभी भी स्वीकार नहीं कर पाएगा।” बिना अधिक समय गंवाए निशा ने अपनी सहमति के तौर पर सिर झुका लिया और चाय-नाश्ते का प्रबन्ध करने चली गयी।
ज्यूं ही निशा के साथ उसने अपने घर में प्रवेश किया, तो पिता जी की रौबदार आवाज गूंज उठी, “”एक जालसाज और नीची जाति वाले व्यक्ति की बेटी इस घर की बहू कभी नहीं बन सकती।” मां ने उन्हें शांत रहने का इशारा किया, लेकिन वे नहीं माने और अपना आदेश सुना दिया।
उसे मजबूरन सच्चाई बतानी, “”जालसाज, निशा के पिता नहीं वरन् आप और आपके साथी हैं, जिन्होंने षडयंत्र पूर्वक एक निर्दोष व्यक्ति की सेवा छीनी है और मुझे इस मामले की पूरी सच्चाई पता चल चुकी है। समूचे प्रकरण की समीक्षा के लिए मैंने उच्च न्यायालय में अपील करने की सोची है।”
यह सुनते ही उसके पिताजी ाोधवश कांपने लग गये। बड़ी मुश्किल से उन्हें शांत किया गया।
उसने कहना जारी रखा, “”पिताजी, जरा सोचिए, आप अपने पुत्र को स्वयं आपके दुष्कर्म रूपी बोझ के कर्ज तले दबाकर इस दुनिया से विदा लेना चाहेंगे या अपने कर्मफल का प्रायश्र्चित कर बचा हुआ जीवन सुखपूर्वक जीना चाहेंगे। यह निर्णय आपको अभी और इसी समय करना है।”
“”समाज और देश की नजरों में न्याय किया जाये तो आपका कृत्य सजा के योग्य है। लेकिन वो सजा केवल आपके शरीर को ही मिलेगी जो कि आपके द्वारा किये गये गुनाहों को देखते हुए बहुत नाकाफी रहेगी। निशा को बहू के तौर पर अपनाकर ही आप सही अर्थों में अपने दुष्कर्म का फल प्राप्त कर सकते हैं। इससे बढ़कर आपके लिए और कोई सजा नहीं हो सकती कि आपने निजी स्वार्थ के लिए जिस व्यक्ति का जीवन छीना, उसी की बेटी आपके घर की बहू बनकर जीवन भर आपकी सेवा करते हुए, आपके गुनाहों का अहसास दिलाती रहे।
यदि आपको लगता है कि आपका पुत्र सत्य की राह पर है तो आप मॉं को साथ लेकर आर्यसमाज मंदिर में हम दोनों को आशीर्वाद देने के लिए आ जाना।”
यह कहते हुए उसने निशा को साथ चलने का संकेत किया और दरवाजे की तरफ अपने कदम बढ़ा दिये। (समाप्त)
– के.आर. चौहान
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