पाकिस्तान की राजधानी इस्लामाबाद में स्थित लाल मस्जिद के बाहर 6 जुलाई को हुए आत्मघाती हमले और ठीक उसके दूसरे दिन यानी कि 7 जुलाई को अफगानिस्तान की राजधानी काबुल स्थित भारतीय दूतावास पर हुए आत्मघाती हमले की प्रकृति ऊपर-ऊपर से देखने में एक जैसी ़जरूर लगती है, लेकिन दोनों का संदर्भ एक-दूसरे से सर्वथा भिन्न है। लाल मस्जिद का आत्मघाती हमला पाकिस्तान की वर्तमान राजनीति में उभरने वाले विरोधाभासों और विसंगतियों की एक प्रतििायात्मक संरचना है, जबकि भारतीय दूतावास पर किया गया आत्मघाती हमला भारत के खिलाफ पाकिस्तान की एक रणनीति का हिस्सा है, जिसका संजाल स्पष्ट तौर पर उसकी बदनाम ़खुफिया एजेंसी आईएसआई ने बुना है। इस दृष्टि से अफगानिस्तान के राष्टपति हामिद करजई और उनके अन्य सहयोगी अगर यह कहते हैं कि आतंकवादियों ने इस हमले को स्थानीय आईएसआई की तालिबान शाखा अधिकारियों के निर्देश और सहमति से अंजाम दिया है, तो इसे अस्वीकार नहीं किया जा सकता। पाकिस्तान की ़खुफिया एजेंसी और सेना ही नहीं, बल्कि पाकिस्तान सरकार भी अफगानिस्तान में भारत के बढ़ते प्रभाव को पचा नहीं पा रही है।
दरअसल तालिबानियों की सत्ता समाप्ति के बाद अमेरिकी हमले में बर्बाद हुए अफगानिस्तान के पुनर्निर्माण में भारत का सहयोग सर्वाधिक है। भारत की इस पहल ने भारत को अफगानिस्तान के सर्वाधिक निकट भी ला दिया है। दोनों देशों के राजनयिक संबंध वर्तमान में प्रगाढ़ मैत्री और विश्र्वास के कहे जा सकते हैं। भारत अफगानिस्तान की वर्तमान करजई सरकार की जोरदार हिमायत भर नहीं कर रहा, बल्कि उसकी मजबूती के लिए हर तरह की सहायता भी दे रहा है। दोनों देशों का यह मैत्री भाव पाकिस्तान को हर हाल में नागवार और नापसंद है। तालिबानियों की पूर्व सरकार पाकिस्तान की प्रबल हिमायती थी और पाकिस्तान इस सरकार को अपने इशारे पर नचाया करता था। 9/11 को वर्ल्ड टेड सेंटर पर हुए आतंकवादी हमले के बाद जब अमेरिका ने अफगानिस्तान की तालिबान सरकार को रौंद कर बेदखल कर दिया, तब पाकिस्तान को बड़ी मजबूरी में आतंकवाद के मुद्दे पर अमेरिका के साथ होना पड़ा। लेकिन उस समय भी अमेरिका के ़खौफ से पलायन करने वाले तालिबानियों का एकमात्र शरणदाता पाकिस्तान ही बना। दिखाने के लिए तो वह अब भी अफगानिस्तान में मौजूद अमेरिकी अगुआई वाली नाटो सेना का तालिबानियों के खिलाफ लड़ाई में सहायक बना हुआ है, लेकिन भीतरखाने उसकी आईएसआई सहित सभी एजेंसियॉं तालिबानियों की मदद कर रही हैं। वह हर हाल में अफगानिस्तान से अमेरिका समर्थित करजई सरकार की विदायी और तालिबानियों की शासन में वापसी चाहता है। उसकी मजबूरी यह है कि वह अमेरिका के ़िखलाफ एक कदम भी जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकता। लेकिन उसे यह भी बर्दाश्त नहीं है कि उसकी पड़ोसी अफगानिस्तान सरकार उसके दुश्मन नंबर एक भारत से अपनी दोस्ती का इ़जहार करे।
जबकि भारत का उद्देश्य मात्र इतना है कि वह अफगानिस्तान को उसकी विकासपरक और पुनर्निर्माण की योजनाओं को अपनी मदद से मजबूती प्रदान करे। भारत की मौजूदगी इस दृष्टि से अफगानिस्तान में अपनी 750 मिलियन डॉलर के साथ महत्वूपर्ण मानी जाती है, जिसे भारतीय कंपनियॉं और भारतीय इंजीनियर पूरा करने में जी-जान से जुटे हैं। पाकिस्तान भारत की इस महत्वूपर्ण उपस्थिति को बर्दाश्त करने की स्थिति में नहीं है। इस बात का खुलासा भारतीय दूतावास पर 7 जुलाई को हुए वर्तमान आत्मघाती हमले के पहले भी कई घटनाओं में हो चुका है। अफगानिस्तान में अब तक विभिन्न आतंकवादी हमलों में जितने भी इंजीनियर, अधिकारी और कर्मचारी मारे गये हैं, उन सभी हमलों के पीछे प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष भूमिका पाकिस्तान की ़खुफिया एजेंसी आईएसआई की सामने आई है। अमेरिका के साथ आतंकवाद के मुद्दे पर बगलगीर की भूमिका निभाते हुए भी उसने भीतरखाने तालिबानियों को अपनी सहायता के जरिये मजबूत बनाया है। उसने तालिबानियों के साथ मैत्री भाव प्रदर्शित करते हुए अपनी उत्तरी-पश्र्चिमी सीमा पर उनसे मैत्री भी कर ली है। आश्र्चर्यजनक यह है कि यह सब अमेरिका के संज्ञान में हुआ है। अब ये तालिबानी अफगानिस्तान में पाकिस्तानी हितों के समर्थक हैं। आईएसआई बाकायदा उनके संगठनों को अपने नियंत्रण में रखती है और वे वही करते हैं जिसे करने का निर्देश उनको आईएसआई की ओर से मिलता है। तालिबानियों की ओर से इस हमले के पहले भी अफगानिस्तान में परियोजनाओं से जुड़ी कंपनियों, उनके अधिकारियों तथा कर्मचारियों को अफगानिस्तान से बोरिया-बिस्तर समेट कर चले जाने की चेतावनी मिलती रही है। इसके चलते भारत सरकार ने अफगानिस्तान सरकार के सहयोग से व्यापक सुरक्षा भी अपने लोगों को मुहैया करायी है। लेकिन 7 जुलाई के इस आत्मघाती हमले ने यह साबित कर दिया है कि सुरक्षा में कहीं न कहीं कोई सेंध है, जिसका फायदा उठाने में आतंकवादी कामयाब हो गये। आतंकवादियों की योजना भारतीय दूतावास को बम-विस्फोट के जरिये उड़ा देने की थी, लेकिन वे सुरक्षा-कवच को भेद न सके। फिर भी दूतावास के सामने सड़क पर हुए आत्मघाती हमले ने 40 से अधिक लोगों की जान ले ही ली। यह दुःखद है, मगर इस संदर्भ में आगे की रणनीति बनाते समय यह ध्यान रखना होगा कि अफगानिस्तान में हमारी उपस्थिति को पाकिस्तान हर दृष्टि से नाकामयाब बनाना चाहेगा।
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