महत्वपूर्ण बस इतना ही नहीं है कि एनएसजी कि बिला शर्त मंजूरी के बाद भारत विश्र्व-परमाणु-क्लब में शामिल हो गया है और 34 साल का पारमाणविक प्रतिबंध उस पर से हटा लिया गया है तथा अब वह नागरिक ऊर्जा के क्षेत्र में किसी भी देश से पारमाणविक समझौते के लिए स्वतंत्र होगा। ये सभी बातें महत्वपूर्ण तो हैं, लेकिन वियेना में एनएसजी की मैराथन बैठक के बाद जो सफलता उसकी झोली में गिरी है उसका ऐतिहासिक महत्व विश्र्व का एक मात्र अपवाद बनकर सामने आया है। इस दृष्टि से इस सफलता का महत्व सर्वाधिक है कि भारत दुनिया का वह अकेला देश है जो बिना एनपीटी और सीटीबीटी पर हस्ताक्षर किये परमाणु-क्लब का सदस्य बन गया है और वह भी अपनी स्वयं की शर्तों पर। एनएसजी की इस स्वीकृति के बाद अब उसे मात्र एक छलांग और लगानी है। लेकिन यह छलांग बहुत आसान है क्योंकि अमेरिकी संसद से न्यूकडील के लिए स्वीकृति हासिल करना अब मात्र एक औपचारिकता का निर्वाह भर कहा जा सकता है।
सही मायने में वास्तविक बाधा एनएसजी से स्वीकृति हासिल करनी ही थी। यह स्वीकृति कितने पेंचदार और कॉंटों भरे रास्तों से गुजर कर हासिल की गई है, इसका जाय़जा और ऩजारा सारा देश पिछली चार तारीख से छः तारीख तक सॉंस रोके महसूस भी कर रहा था और देख भी रहा था। लेकिन इस महत्वकांक्षी डील ने अपने रास्ते के सारे अवरोधकों को उसी तरह अन्तर्राष्टीय स्तर पर भी हटाया तथा पार किया है, जिस तरह पर उसने राष्टीय स्तर विरोधों को झेलते हुए अपने कदम आगे बढ़ाये थे। अन्तर सिर्फ इतना है कि एनएसजी की बैठक में विरोध की भूमिका में उतरे देशों ने अन्ततः अपने पॉंव पीछे खींच लिए और छूट के प्रस्ताव को सर्वमत से स्वीकृति दे दी, लेकिन घरेलू राजनीति में दायें और बायें बाजू का विरोध जो शुरुआती दौर में बना था अभी भी ज्यों का त्यों बना हुआ है। भाजपा को यह दर्द लगातार सताये जा रहा है कि इस स्वीकृति ने भारत से परमाणु विस्फोट करने का ह़क उससे छीन लिया है। जबकि 1998 के पोखरण विस्फोट के बाद भविष्य में परमाणु विस्फोट न करने की एकतरफा घोषणा राजग शासन काल में भाजपा के ही प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने की थी। आज भाजपा इस मुद्दे को लेकर चाहे जितना विरोध करे लेकिन देश को वाजपेयी जी का शुागुजार होना चाहिए कि इसी एकतरफा घोषणा ने अन्ततः न्यूकडील को सफलता के इस बिन्दु तक पहुँचाया है। इसी घोषणा को दुहराकर भारतीय विदेश मंत्री ने उभरे विरोध का शमन भी किया है। इस दावे के साथ कि भारत ने एनएसजी की स्वीकृति इस आधार पर हासिल की है कि ़जरूरत पड़ने पर तथा अपरिहार्य परिस्थितियों में भारत परमाणु-विस्फोट कर भी सकता है।
लेकिन भाजपा इस बात को मानने को कत्तई तैयार नहीं है कि इस डील में भारत का परमाणविक विस्फोट का अधिकार सुरक्षित है। उससे सीधे तौर पर यह सवाल किया जा सकता है कि क्या इस अधिकार की सुरक्षा के साथ कोई देश अथवा अन्तर्राष्टीय समुदाय भारत के साथ पारमाणविक समझौता कर सकता है। एनएसजी में जो विरोध के स्वर इस डील को स्वीकृति देने के मुद्दे पर उभरे उनका प्रहार बस एक ही मुद्दे पर था कि यह डील भारत को किसी स्तर पर भविष्य में परमाणु विस्फोट के लिए प्रतिबंधित नहीं करती, लेकिन भाजपा का कहना है कि यह डील हमारे परमाणु विस्फोट के अधिकार को प्रतिबंधित करती है। बहरहाल भारत की झोली में एनएसजी की यह स्वीकृति बिना किसी अतिरिक्त शर्त के अपनी शर्तों के आधार पर हासिल हुई है। इस पहलू की उपेक्षा किसी मूल्य पर नहीं की जा सकती। इस करार के विरोध में इसके व़जूद में आने के पहले दिन से जुटे वामपंथी भी अपनी तल़्ख-मिजाजी बदस्तूर कायम रखे हुए हैं। उन्होंने अपने चिर विरोधी भाजपा के साथ मिलकर इस करार को हलाल करने की भरपूर कोशिश की लेकिन उनका मंसूबा परवान नहीं चढ़ सका। उन्हें इस बात की चिन्ता भाजपा की तरह कत्तई नहीं थी कि डील भविष्य में परमाणु विस्फोट का अधिकार छीनती है। उनका विरोध सिर्फ इस बात पर टिका था कि हम इस डील को किसी हाल में संभव नहीं होने देंगे क्योंकि यह भारत को अमेरिकी प्रभुत्व का गुलाम बनाती है। हर हाल में इसे रोकने की कसम खाने वाले वामपंथी मित्र जब संप्रग सरकार से अपनी समर्थन वापसी के बाद भी इसके पांव में जंजीर नहीं डाल सके तब यह जिम्मेदारी उन्होंने अपने आका चीन के कंधों पर डाल दी। इस डील की बाबत एनएसजी में सकारात्मक भूमिका निभाने का वादा करने वाला चीन अन्ततः इस ़खास मौके पर विरोध की भूमिका में उतर आया। यह और बात है कि अमेरिकी कूटनीति ने उसे पिछले पॉंव पर जाने को मजबूर कर दिया और डील ने एनएसजी का बैरियर पार कर लिया। एनएसजी की स्वीकृति ने भारत को अन्तर्राष्टीय स्तर पर एक परमाणु शक्ति का दर्जा दिया है। इस ऐतिहासिक क्षण की सुगंध भारत के भविष्य को कई सदियों तक गौरवान्वित करती रहेगी। यह सही है कि एक लम्बी प्रिाया के बाद ही इसका फायदा जमीनी हकीकत बन सकेगा, मगर तात्कालिक तौर पर यह भारत के रुतबे को वैश्र्विक स्तर पर एक नई ताकत के तौर पर प्रतिष्ठित करेगा। सदी के अंतिम दशक में डॉ. मनमोहन सिंह ने वैश्र्विक अर्थव्यवस्था की बुनियाद रखी थी, अब प्रधानमंत्री के रूप में उन्होंने भारत के उसी अर्थ शास्त्र का एक नया अध्याय इस डील के माध्यम से लिखा है।
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