पड़ोस के दो दिलचस्प ऩजारे

इधर, अपने पड़ोस में कुछ दिलचस्प ऩजारे देखने में आए हैं। उन्हें देख कर सचमुच लगा कि कभी-कभी पड़ोस पर भी एक ऩजर तो अवश्य ही डाल लेनी चाहिए। हालॉंकि आजकल पड़ोसी धर्म कोई निभाता नहीं है और रिवाज भी नहीं है। खैर साहब, देखा तो क्या देखा कि कहीं विदाई हो रही थी और कहीं स्वागत-सत्कार। वैसे विदाई का भी कोई मातम नहीं मनाया जा रहा था। उस पर भी खुशी ही थी। जश्र्न्न ही मनाया जा रहा था। हालॉंकि विदा होने वाला कुछ इस अंदाज में विदा हो रहा था जैसे शहीद हुआ जा रहा हो। जबकि पट्ठे की उंगली तक भी कटी नहीं थी। आप तो जानते ही हैं कि कुछ लोग उंगली कटाकर भी शहीद होते हैं। हॉं, उसकी गद्दी ़जरूर चली गयी थी और यह ऩजारा शहीद होने जैसा तो बिल्कुल भी नहीं था, अलबत्ता वैसा ़जरूर था जिसके बारे में कहा जाता है कि बड़े बेआबरू होकर तेरे कूचे से हम निकले…।

तो साहब, पाकिस्तान में मुशर्रफ साहब विदा हुए तो नेपाल में प्रचंड आ गए। जिस दिन मुशर्रफ ने कहा कि पाकिस्तान का अब खुदा ही हाफिज है, उसी दिन प्रचंड ने नेपाल में प्रधानमंत्री पद की शपथ ली और कहा कि मैं नेपाल की जनता की उम्मीदों पर खरा उतरने की कोशिश करूंगा। एक की जुबान में हेकड़ी थी, कड़वाहट थी, तो दूसरे की जुबान में विनम्रता। हालांकि दोनों ही लड़ाके ठहरे। मुशर्रफ ऐसी लड़ाई लड़कर आए थे जिसमें जनता की कोई भूमिका नहीं थी, उसकी कोई भलाई नहीं थी। वहॉं साजिशें थीं, आामण थे और सत्ता के लिए खून-खराबा था। दूसरी तरह की लड़ाई प्रचंड लड़कर आए थे। जो जनता की लड़ाई थी, जिसमें जनता की भागीदारी थी, जिसमें जनता की भलाई थी। दोनों में यही फर्क था। इसीलिए मुशर्रफ को लोकतंत्र ने हटाया तो प्रचंड को लोकतंत्र ने बिठाया। ऐसे में तो कहना ही पड़ेगा साहब कि जुग-जुग जीए लोकतंत्र। चाहे उनका जाना हो या फिर इनका आना, आखिर जीता तो लोकतंत्र ही।

प्रचंड अपनी बंदूक छोड़ कर भूमिगत जिंदगी से दुनिया के सामने आए। मुशर्रफ अपनी बंदूक लहराते हुए दुनिया की नजरों से गये। प्रचंड की बंदूक निरंकुश राजशाही के खिलाफ थी। उस नरेश के खिलाफ थी जो खुद को भगवान मानता था। कभी जनता भी उसे भगवान का अवतार ही मानती थी। उसकी पूजा करती थी। लेकिन उसने हमेशा ही जनता को अपना गुलाम समझा, उसका दमन किया। प्रचंड ने इस अन्याय का विरोध किया, उसके खिलाफ बंदूक उठायी। उसने उसी जनता को राजा के खिलाफ खड़ा कर दिया। उसे इज्जत की जिंदगी के लिए लड़ना सिखाया और बताया कि वह वक्त करीब आ पहुँचा है जब तख्त गिराए जाएंगे, जब ताज उछाले जाएंगे।

और एक दिन जनता के साथ उसने काठमांडू मार्च किया। महल को घेर लिया। राजा को मजबूर होकर झुकना पड़ा। जनता की बात माननी पड़ी, उसकी मांग माननी पड़ी। लोकतंत्र बहाल हुआ। चुनाव हुए और प्रचंड की जीत हुई। नेपाली जनता ने मांग की- राजा गद्दी छोड़ो। उन्होंने कानून बदल दिया। राजा को देश के प्रमुख पद से हटा दिया। गद्दी छीन ली। फिर कहा- महल छोड़ो और रहना है तो एक आम आदमी की तरह रहो। एक दिन उसका महल भी छीन लिया। राजा जनता की ताकत जान चुका था। वह चुप रहा। चुपके-चुपके षड्यंत्र भी किए, पर सफल नहीं हो पाया। नेपाल की जनता उसे नहीं चाहती थी। वह तो लोकतंत्र चाहती थी।

उधर, पाकिस्तान की जनता भी लोकतंत्र ही चाहती थी। वह तो हमेशा ही चाहती रही है, पर उसकी टेजिडी यह है कि फौज लोकतंत्र नहीं चाहती। पर लोकतंत्र की ताकत भी अजीब है। अनूठी है। वह फौजी बूटों के नीचे से निकल आती है और देश के आर-पार फौज के सामने तनकर खड़ी हो जाती है। फौज को भी लोकतंत्र के सामने झुकना पड़ता है।

मुशर्रफ को भी झुकना पड़ा। नौ साल तक लोकतंत्र उसके बूटों तले सिसकता रहा, पर आखिर में उसने पलटवार किया और अब मुशर्रफ कहीं पड़ा सिसकता होगा। हालॉंकि मुशर्रफ नहीं चाहता था कि वह गद्दी छोड़े। इसके लिए उसने फौजी वर्दी भी छोड़ी, अचकन पहनी पर बात बनी नहीं। वह जनरल नहीं रहा। राष्टपति हो गया, पर बात बनी नहीं। उसने न्यायपालिका का गला घोंटा, जजों को बर्खास्त किया, पर बात बनी नहीं। आखिर उसे चुनाव कराने ही पड़े। बेनजीर शहीद हुईं। उनकी पार्टी और नवाज शरीफ की पार्टी जीती। सबने मुशर्रफ को बड़ा समझाया कि अब तुम्हारे दिन लद गए मियां, अब फूट लो, पर वह नहीं माना। सौदेबाजी करने की कोशिश की। आखिर उसे जाना ही पड़ा। नेपाल नरेश की तरह। खैर, नजारे दिलचस्प रहे।

– सहीराम

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