सवित्रा का ध्यान ही गायमत्री-साधना का प्राण है

सूर्य को जगत की आत्मा कहा गया है। जिस प्रकार दीपक को ज्ञान का, राष्टीय-ध्वज को देशभक्ति का और प्रतिमा या मूर्ति को देवता का प्रतीक माना जाता है, उसी प्रकार आकाश को निरंतर ज्योतिर्मय बनाये रहने वाले सूर्य को तेजस्वी परब्रह्मा का प्रतीक माना और सविता कहा गया है। गायत्री का जप करते समय इस सविता का ही ध्यान किया जाता है। सावित्री का तो यह सविता युग्म ही है। गायत्री-सावित्री उपासना के माध्यम से साधक में इसी सविता शक्ति का अवतरण होता है। शाक्तानंद तरंगिणी चतुर्थ उल्लास में कहा भी है –

गायत्रीं भावयेद् देवीं सूर्यासनकृताश्रयाम्।

प्रातर्मध्याह्नेसायाह्ने ध्यानं कृत्वा जपेत्सुधीः।।

बुद्घिमान मनुष्य को सूर्य के रूप में स्थित गायत्री माता का प्रातः, मध्याह्न और सायं त्रिकाल ध्यान करके जप करना चाहिए। अन्यत्र भी कहा गया है –

गायत्रीं स्मरेद् धीमान् हृदि वा सूर्यमंडले।

कल्पोक्त लक्षणेनैव ध्यात्वाऽभ्यर्च्य ततोजपेत्।।

बुद्घिमान पुरुष को हृदय में और सूर्यमंडल में गायत्री का स्मरण करना चाहिए और कल्पोक्त लक्षण से ही ध्यान तथा अभ्यर्चन करने के पश्र्चात् जप करना चाहिए। “गायत्री पंजर’ के अनुसार –

आदित्यमार्गगमनां स्मरेद् ब्रह्मस्वरूपिणीम्।

सूर्यमार्ग से गमन करने वाली ब्रह्मस्वरूपिणी गायत्री का ध्यान करना चाहिए। सविता की भौतिक और आत्मिक क्षेत्र में इसकी महती भूमिका का शास्त्रकारों ने उल्लेख किया है और ब्रह्मतेजस् प्राप्त करने के लिए सविता के साथ संबद्घ होने का निर्देश दिया है, यथा –

आदित्यमंडले ध्यायेत्परमानमिवं।

उस अविनाशी परमात्मा का ध्यान सूर्यमंडल में अवस्थित स्थिति में करना चाहिए।

देवस्य सवितुर्यच्च भर्गमन्तर्गतं विभुम्।

ब्रह्मवादिन एवाहुर्वरेण्यम् तच्च धीमहि।।

सविता देव के अंतर्गत तेज को ब्रह्मज्ञानी वरेण्य अर्थात् श्रेष्ठ कहते हैं। उसी का हम ध्यान करते हैं।

“महीधर भाष्य’ में कहा गया है – हे तात्! वह जो सूर्यमंडल में ब्रह्मदेवस्वरूप पुरुष विद्यामान है, जो प्रकाशमान, प्रेरक तथा प्राणियों की अंतःस्थिति को जानता है, समस्त विज्ञान से विभूषित वह आनंद स्वरूप है। वेदांतों में उन्हीं का प्रतिपादन हुआ है। वह समस्त सृष्टि का संहार करने में समर्थ है। वही वरण करने तथा प्रार्थना करने योग्य सत्यस्वरूप है। हम उसका ध्यान करते हैं, जिससे हमारी अंतरात्मा में ज्ञान और आनंद प्रदान करने वाला दिव्य-तेज बढ़ता हुआ चला जाता है।

श्र्वेताश्र्वतर (4/17) में कहा गया है –

एष देवो विश्र्वकर्मा महात्मा

सदा जनानां हृदये संनिविष्टः।

हृदा मनीषा मनसाभिक्लृप्तो

य एतद्विदुरमृतास्ते भवन्ति।।

यह देवता विश्र्व के बनाने वाले और महात्मा हैं। सदा लोगों के हृदय में सन्निविष्ट हैं। हृदय, बुद्घि और मन के द्वारा पहचाने जाते हैं, जो इसे जानते हैं, वे अमर हो जाते हैं।

अगस्त्य ऋषि कहते हैं –

यो देवःसविताऽस्माकं धियो धर्मादिगोचराः।

प्रेरयेत्तस्य यद्भर्गस्तं वरेण्यमुपास्महे।।

सविता नामक जो देवता हमारी बुद्घि को धर्मादि में लगाते हैं, उनके वंदनीय तेज की हम उपासना करते हैं।

गायत्री की समस्त उच्च स्तरीय साधनाएँ सविता शक्ति के साथ जुड़ी हुई हैं। गायत्री-उपासक इस रहस्य को समझते हुए तद्नुरूप अपने उपासनादि िायाकृत्य संपन्न करते हैं और बदले में सद्बुद्घि सहित समस्त विद्याओं का अनुदान प्राप्त करते हैं।

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