समर्थन वापसी के बाद

अंततः वही हुआ जिसकी संभावना पिछले कई दिनों से व्यक्त की जा रही थी। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह ने जी-8 के सम्मेलन में जापान जाते समय पत्रकारों के सामने यह बयान परोसा कि संप्रग सरकार अतिशीघ्र अमेरिकी परमाणु करार को अमलीजामा पहनाने के लिए आईएईए से संपर्क साधेगी। अमेरिकी डील की दिशा में एक भी कदम आगे बढ़ाने पर अपना समर्थन वापस लेने की धमकी देने वाले वामदलों के पास इसे सही सिद्घ करने के लिए अब प्रधानमंत्री के इस वक्तव्य के बाद कोई विकल्प बचा ही नहीं था। अतएव उन्होंने अपनी ओर से समर्थन वापसी की घोषणा भी कर दी। यहॉं तक जो कुछ हुआ उसे किसी मायने में अप्रत्याशित नहीं कहा जा सकता, क्योंकि संप्रग सरकार और वामदलों के पास इस मुत्तलिक बहुत सीमित विकल्प थे। या तो सरकार इस करार को सरकार बचाने के लिए रद्दी की टोकरी के हवाले करती अथवा वामदल अपनी प्रतिबद्घता को तिलांजलि देकर सरकार को करार के लिए हरी झंडी दिखाते। सरकार अब इस अमेरिकी करार को अपने बाकी बचे कार्यकाल में पूरा करने की दिशा में अपना कदम आगे बढ़ा चुकी है और वामदलों ने भी पूर्व में दी गई धमकी के मुताबिक अपना समर्थन वापस ले लिया है। आगे की राजनीति किसको, किस मुकाम तक पहुँचाती है, यह अभी समय के गर्भ में है।

वामदलों ने अपनी इस समर्थन वापसी की घोषणा के साथ भाजपा और राजग दलों के सुर में सुर मिलाते हुए सरकार से संसद में अपना बहुमत सिद्घ करने की मांग भी कर डाली है। हैरत की बात यह है कि उनकी इस मांग के प्रति सरकार की ओर से सकारात्मक प्रतििाया व्यक्त की गई है। जापान से प्रधानमंत्री का वक्तव्य आया है कि वे सदन में अपने बहुमत के प्रति पूरी तरह आश्र्वस्त हैं। वहीं विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी ने भी कहा है कि सरकार सदन में अपना बहुमत सिद्घ करने के बाद ही परमाणु सुरक्षा मानकों पर समझौते के लिए आईएईए के पास जाएगी। उन्होंने यथाशीघ्र इसके लिए संसद का विशेष सत्र बुलाने की बात भी कही है। कांग्रेस और संप्रग के हलके से जो संकेत मिल रहे हैं, उनसे तो यही प्रतीत होता है कि उन्होंने अपनी सरकार के लिए आवश्यक बहुमत हासिल करने के बाद ही वामपंथियों को अपने रास्ते जाने को उत्प्रेरित किया है। अतः यह मान लेना गलत नहीं होगा कि यह समझते हुए कि वामपंथी दल उसे किसी कीमत पर अमेरिकी करार की ओर आगे बढ़ने की इजाजत नहीं देंगे, प्राथमिकता के तौर पर उसने वामदलों को अलग रख कर संप्रग सरकार को बहुमत की सीमारेखा पर खड़ा करने का प्रयास भीतरखाने शुरू किया और जब वह इसके प्रति आश्र्वस्त हो गई तो उसने इस दिशा में आगे बढ़ने का संकेत वामदलों को संप्रेषित कर दिया। यह कि अब वे अपनी मरजी पूरी कर सकते हैं और यह भी कि सरकार अब उनकी धौंस-पट्टी में आने वाली नहीं है।

इसका खुलासा भी वामदलों के समर्थन वापस लेने के चन्द दिनों पहले हो गया था, जब कांग्रेस और मुलायम सिंह यादव की सपा अपने सारे पुराने गिले-शिकवे भूल कर गले मिल गये थे। इस दोस्ती को तोड़ने की वामपंथियों ने बहुत कोशिशें कीं, लेकिन दोनों अपनी-अपनी ़जरूरतों के चलते एक हो गये। मुलायम सिंह को इस करार के समर्थन से बाज आने की चेतावनी देते हुए वामदलों की ओर से कहा गया कि इससे उनका मुसलमान वोट बैंक बिदक जाएगा। मुलायम सिंह के समर्थन के अलावा भी कांग्रेस ने कम संख्या वाले दलों और निर्दलियों पर डोरे डाले और अपने पक्ष में आने का न्योता दिया। यह तो माना ही जा सकता है कि बिना ठोस आश्र्वासन के विशेष सत्र बुलाकर बहुमत साबित करने की बात तो अलग, वह डील की ओर एक कदम भी आगे जाने की हिम्मत नहीं जुटा सकती थी। वैसे इन बातों को बहुत हद तक कयासबाजी ही कहा जा सकता है। वास्तविक स्थिति क्या है, यह तो सदन-पटल पर ही निर्धारित होगा। यूँ राजनीतिक परिस्थिति किसी भी पक्ष के लिए आसान नहीं रह गई है और यह अपने लक्ष्य-बिन्दु तक पहुँचते-पहुँचते कौन-सी शक्ल आख्तियार करेगी, निश्र्चित भविष्यवाणी कर पाना कठिन है। सरकार गिराने और बचाने के इस खेल में कुछ ऐसे भी दृश्य देखे जा सकेंगे जो इसके पहले देखने को नहीं मिले। इस बात के भी संकेत मिल रहे हैं कि संप्रग सरकार के खिलाफ वामदल और भाजपा एक साथ वोटिंग कर सकते हैं। ़गौरतलब है कि इसी भाजपा को सांप्रदायिक करार कर वामपंथियों ने सत्ता से वंचित रखने के लिए संप्रग सरकार को समर्थन दिया था। अब उसी भाजपा से मिलकर अगर वे उसी संप्रग सरकार को गिरायेंगे तो क्या यह इस देश के संसदीय इतिहास की अनोखी घटना नहीं होगी? उधर अपने 39 सांसदों के समर्थन का दावा करने वाले मुलायम सिंह यादव को अपनी पार्टी में बगावती संकेत मिल रहे हैं। तेरास अपने समर्थन के लिए फिर से तेलंगाना का आश्र्वासन चाहती है। जद (एस) के देवगौड़ा और रालोद के अजीत सिंह अपनी अलग-अलग फेहरिस्त लिए बैठे हैं। मौकाए-मुबारक समझ कर हर कोई अपने समर्थन की वाजिब-नावाजिब कीमत वसूल कर लेने के चक्कर में है। कांग्रेस अगर यह सोचती हो कि चलो बात-बात पर आँख तरेरने वाले वामपंथियों से छुट्टी मिली, तो यह उसकी खुशफहमी भर होगी। हो सकता है उसकी सरकार बच जाय, लेकिन इसके लिए उसे मामूली कीमत नहीं चुकानी पड़ेगी।

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