सेकुलरवाद का वामपंथी चेहरा

देश को सामाजिक स्तर पर विभाजित करने वाली कोई भी कोशिश उसकी राष्टीय अवधारणा को विखंडित करती है और देश कमजोर होता है। जहां तक भारत का प्रश्र्न्न है, ऐसी विभाजनकारी प्रवृत्तियॉं बड़ी ते़जी से विकसित हो रही हैं और राजनीति अपने निहित स्वार्थों के चलते इन प्रवृत्तियों को बढ़ावा भी दे रही है। राजनीतिक दल अपने सत्ता-वर्चस्व के खेल में समाज को जाति, वर्ग, क्षेत्र और संप्रदाय के कठघरे में कैद करने की जिस नीति का अनुसरण कर रहे हैं, वह समाज को टुकड़ों-टुकड़ों में विभाजित कर रही है। सबकी अपनी-अपनी आकांक्षायें हैं और सब अपनी पहचान को दूसरे से अलग रखने के साथ ही, दूसरे के मुकाबले अधिक वर्चस्ववादी सिद्घ करने में लगे हैं। भावनात्मक मुद्दे उभार कर राजनीतिक दल राजनीति को जिस कोण पर खड़ा करना चाहते हैं, वह उनकी राजनीतिक आकांक्षाओं की पूर्ति किसी मायने में भले कर दे मगर उसके समानान्तर देश की राष्टीय आकांक्षा को गंभीर क्षति पहुँचती है।

देश एक त्रासद विभाजन के दौर से गुजर चुका है। यह दुखद है कि उस इतिहास को जन्म देने वाली राजनीति फिर एक बार उसी कोण पर खड़ी दिखायी देती है। आ़जादी के बाद हमने धर्मनिरपेक्षता को एक लोकतांत्रिक मूल्य के रूप में स्वीकार किया था और उसे संवैधानिक मान्यता भी दी थी। लेकिन सांप्रदायिकता के जो बीज देश के बंटवारे के समय समाज-जीवन में बोये गये थे, वर्चस्ववादी राजनीति ने उसे एक बार फिर लहलहाने का मौका दे दिया है। इस दृष्टि से देखा जाय तो सांप्रदायिकता, जिसे गाहे-बगाहे सेकुलरवादी “हिन्दुत्ववादी’ सांप्रदायिकता का नाम देते हैं, देश के सामने एक खतरनाक चुनौती ़जरूर है, लेकिन उससे भी बड़ी चुनौती और ़खतरा ़खुद वह सेकुलरवाद है जो सांप्रदायिकता को अपने लिहाज से परिभाषित करता है। बल्कि कहा तो यह भी जा सकता है कि वर्तमान संदर्भ में खुद सेकुलरवाद सांप्रदायिकता के दूसरे कोण पर खड़ा हो गया है। जिसे वह सांप्रदायिकता कहता है वह तथ्यतः बहुसंख्यक समुदाय की वह पीड़ा है जो इन सेकुलरवादियों की अल्पसंख्यक तुष्टीकरण की नीति तथा बहुसंख्यकों के जाय़ज पक्ष की भी उपेक्षा के कारण उपजती है। और यह सब उस सियासी स्वार्थपरता के गर्भ से ही पैदा होता है जो अल्पसंख्यकों के बीच अपने लिए वोट-बैंक की तलाश करती है।

कहने को तो भाजपा और शिवसेना को छोड़ कर देश के सभी छोटे-बड़े दल अपने को सेकुलर ही कहते हैं, लेकिन सेकुलरवाद का झंडा बुलंद करने वालों में वामदलों का कोई सानी नहीं है। अब इसे क्या कहा जाय कि इन्होंने अमेरिका के साथ हुई एटमी डील को भी मुस्लिम विरोधी करार दे दिया। अब यही राग उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती भी अलाप रही हैं। अब तक ये सेकुलरवादी वामपंथी केन्द्र की संप्रग सरकार को अपने समर्थन से उपकृत करते रहे। लेकिन उनके उपकार की पीड़ा इस सरकार को किस हद तक भोगनी पड़ी है, यह तो प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह का दिल ही जानता होगा। यह ़जाहिर है कि उनका वामपंथ अमेरिका को पूंजीवादी और साम्राज्यवादी कह कर अब तक गालियों से नवाजता रहा है और वे “अमेरिका’ नाम तक से एलर्जी रखते रहे हैं। अतएव यह स्वीकार किया जा सकता है कि अपने समर्थन से चलने वाली सरकार को अगर वे अमेरिका के साथ हुए परमाणु करार से रोक रहे हैं, तो यह एक सीमा तक उनकी वैचारिक प्रतिबद्घता के अन्तर्गत है। हालॉंकि कांग्रेस और उसकी संप्रग सरकार में शामिल पार्टियॉं भी अपने को सेकुलर घोषित करने में किसी से पीछे नहीं हैं, लेकिन उनका सेकुलरवाद वाममार्गी नहीं है और न वे उस सीमा तक अमेरिका-विरोधी हैं, जिस सीमा तक वामपंथी हैं। अल्पसंख्यक तुष्टीकरण उनकी भी राजनीतिक सोच का एक हिस्सा है लेकिन वामपंथियों की तरह खुल्लम-खुल्ला प्रस्तुत करने में वे परहे़ज बरतते हैं।

वामपंथी किस तरह के सेकुलरवाद में यकीन रखते हैं, इसका उदाहरण पिछले दिनों उन्होंने तब प्रस्तुत किया जब उन्होंने सपा प्रमुख मुलायम सिंह यादव को अमेरिका से हुई एटमी डील के पक्ष में न जाने की स्पष्ट चेतावनी दे डाली। यह ़गौरतलब है कि उन्हें इससे बाज आने की चेतावनी देते समय उन्होंने यह नहीं कहा कि इस डील में ये-ये ़खामियॉं हैं, इस वजह से यह डील देश के हित में नहीं है। उन्होंने एक अ़जीबोगरीब तर्क का सहारा लेते हुए कहा कि ऐसा करने पर मुस्लिम जनमत उनके खिलाफ चला जाएगा। अब कोई भी समझदार आदमी इस बात को कैसे कुबूल कर सकता है कि राष्टीय हित में संपन्न हुआ कोई समझौता किसी एक वर्ग-समुदाय के हित में है और दूसरे वर्ग-समुदाय के हितों के ़िखलाफ है। अगर वह अहितकर होगा तो पूरे देश के वर्ग-समुदाय के लिए होगा और हितकर होगा तो सबके लिए। वामपंथियों से यह सवाल पूछा जा सकता है कि अगर मुसलमान इस डील के विरोधी हैं तो क्या यह डील सरकार सिर्फ हिन्दुओं और अन्य संप्रदायों के लिए ही कर रही है? क्या परमाणु रियेक्टरों से बनने वाली बिजली का उपयोग भी सांप्रदायिक आधार पर होगा?

यह सच है कि मुलायम सिंह यादव ने वामपंथियों की इस चेतावनी को ़खारिज कर डील का भी और संप्रग सरकार के समर्थन का भी बहुत ़खुले मन से इ़जहार किया है, लेकिन इससे इतना ़जरूर हुआ है कि वामपंथियों का सेकुलरवाद अपनी नग्नता में प्रदर्शित हो गया है। मुलायम सिंह यादव अपने उत्तर प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम समुदाय के ़खास पैरोकार माने जाते हैं और यह समुदाय उन्हें लगभग हर चुनाव में अपने वोटों के अधिकांश हिस्से से नवाजता रहा है। संभवतः उन्हें कांग्रेसनीत संप्रग सरकार को समर्थन देने से मना करने का इससे अच्छा कोई तर्क वामपंथियों की समझ में नहीं आया। इसकी काट के लिए ही मुलायम ने पूर्व राष्टपति डॉ. एपीजे अब्दुल कलाम से यह प्रमाणपत्र लेना ़जरूरी समझा कि अमेरिका के साथ हुई परमाणु डील हर हालत में देश के हित में है। इसके अलावा अपने समर्थन को जाय़ज ठहराने का तर्क भी उन्होंने वामपंथियों की ही झोली से तलाश किया। ़गौरतलब है कि 2004 के चुनावों के बाद वामपंथियों ने भी संप्रग सरकार को समर्थन सांप्रदायिक ताकतों को सत्ता से दूर रखने के तर्क के साथ ही दिया था। सपा ने भी थोड़े फेरबदल के साथ इसी जुमले का इस्तेमाल किया है। सपा ने भी कहा है कि वह अपनी धर्मनिरपेक्ष प्रतिबद्घता के चलते सांप्रदायिक ताकतों को राष्टीय राजनीति में मजबूत और सफल होते नहीं बर्दाश्त कर सकती है। उसने वामपंथियों को यह भी याद दिलाया है कि 2004 के चुनावों के बाद उसने इसी मुद्दे पर कांग्रेस से गंभीर विरोध होने के बावजूद संप्रग सरकार को अपना समर्थन बिना मॉंगे दिया था।

यूँ सारे सवालों से ऊपर एक सवाल यह है कि क्या वाकई यह समझौता मुस्लिम-विरोधी है? अब तक वामपंथी 123 के कतिपय प्रावधानों और अमेरिकी हाइड एक्ट की यह कह कर ़जरूर आलोचना करते रहे हैं कि यह देश की स्वतंत्र विदेश नीति को बाधित करता है। लेकिन कभी यह नहीं कहा कि इस समझौते का कोई प्रावधान मुसलमानों के ़िखलाफ है। दरअसल करार को मुस्लिम विरोधी बता कर सपा को इसका समर्थन न करने की हिदायत के पीछे एकमात्र छिपा संकेत यही है कि देश का मुस्लिम समाज भी उसी तरह अमेरिका-विरोधी है, जिस तरह वे ़खुद हैं। मतलब यह कि वे डील का विरोध कत्तई नहीं कर रहे, बल्कि विरोध अमेरिका का कर रहे हैं। और उन तमाम सेकुलरिस्टों को यह छिपी चेतावनी भी भेज रहे हैं कि इस अमेरिकी डील के समर्थन का मतलब है मुस्लिम वोट-बैंक से महरूम होना। अब समझने की बात यह है कि क्या पूरा और अधिकांश मुस्लिम समाज सचमुच अमेरिका विरोधी है? अगर यह सही है तो निश्र्चित रूप से सऊदी अरब, मिस्र, सीरिया, जार्डन, कुवैत, इंडोनेशिया और मलेशिया तथा पाकिस्तान और बांग्लादेश जैसे मुस्लिम राष्ट किस बिना पर अमेरिका के साथ एक ़कतार में खड़े हैं? क्या इन देशों की बहुत सारी डील अमेरिका के साथ नहीं हो रही? और अगर हो रही है तो वहां के मुसलमान उन समझौतों की मु़खालफत क्यों नहीं करते?

यह सही है कि अमेरिकी नीतियों ने जिस तरह इराक और अफगानिस्तान को रौंदा है और अब ईरान की ़जानिब उसकी भौहें तनी हैं, वह दुनिया भर के मुसलमानों को नागवार गुजरा है। लेकिन क्या सिर्फ इसी बिना पर यह दलील वामपंथियों की मान ली जानी चाहिए कि अमेरिका इस्लाम-विरोधी है। अगर वह इस्लाम-विरोधी होता तो किस तरह एक मुसलमान का बेटा आज उसकी सबसे ऊँची कुर्सी पर अपनी दावेदारी पेश कर पाता। यह जान कर किसी को भी आश्र्चर्य हो सकता है कि आगामी राष्टपति पद के चुनाव में सबसे अग्रणी डेमोोटिक उम्मीदवार बराक ओबामा एक मुसमलान बाप के बेटे हैं, जिसका नाम हुसेनी था। फिर अगर वह है भी तो उसका इस डील से क्या सरोकार। विदेश नीति में दो परस्पर दुश्मन और विरोधी देशों से भी हम एक साथ समान भाव से संबंध स्थापित कर सकते हैं। हमारा संबंध इस दृष्टि से जितना प्रगाढ़ फिलिस्तीन से है, वैसा ही इ़जराइल से भी है। वामपंथी यह क्यों भूलते हैं कि अभी हाल में ईरान के मामले में नसीहत देने पर विदेशमंत्री प्रणव मुखर्जी ने कितने तल़्ख लहजे में अमेरिका को झिड़का था।

कई मुस्लिम संगठनों ने इस आशय का बयान देने के लिए वामदलों को लताड़ लगायी है। अन्तर्राष्टीय मुस्लिम शैक्षणिक संस्था दारुल-उलूम देवबन्द ने भी इसका विरोध किया है। उनका कहना है कि अमेरिकी डील का समर्थन अथवा विरोध गुणदोष या हानिलाभ की दृष्टि से होना चाहिए, न कि सांप्रदायिक आधार पर। उनके अनुसार देश के मुसलमानों के बाबत इस तरह की धारणा रखना कि वे देशहित को भी मजहबी आईने में उतार कर देखते हैं, पूरी कौमियत के लिए अपमानजनक है। इस तरह की लताड़ भरी आलोचना वामपंथियों के सेकुलरवाद को सही अर्थ दे सकेगी, इसकी आशा नहीं की जा सकती। अभी तक उन्होंने जिस सेकुलरवाद का चेहरा लगा रखा है, वह ़खतरनाक तो है ही, घिनौना भी है। घिनौना इस दृष्टि से कि यह छद्म सांप्रदायिकता है, जो एक समुदाय को सिर्फ इसलिए निन्दित करती है क्योंकि वह बहुसंख्यक है और दूसरे समुदाय को इसलिए गले लगाती है कि वह अल्पसंख्यक है। जबकि सेकुलरवाद अपने सही अर्थों में अगर पंथ-निरपेक्षता की अवधारणा है, तो वह अपने न्याय के तराजू को किसी एक के पक्ष में नहीं झुकने देगी।

 

– रामजी सिंह “उदयन’

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