बड़ी अच्छी रही है जी, मानसून की शुरुआत। समय से पहले ही आ गया। महंगाई के जाने का समय तो पता नहीं अभी आया है या नहीं, सरकार तो कह रही है कि अभी कुछ महीने और ठहरेगी। यह भी बिन बुलायी मेहमान हो गयी कि जाती ही नहीं। कितनी ही कोशिश करो। ढीठ होकर जम गयी है। इसके जाने तक कहीं सरकार न चली जाए, कहीं उसका ही समय न आ जाए, बस खतरा यही है। क्योंकि महंगाई तो चाहे जाने का नाम न ले रही हो, पर सरकार तो जैसे जाने की रट ही लगाए हुए है। उसे तो चाव-सा चढ़ा हुआ है, जैसे दुल्हन को ससुराल जाने का चढ़ता होगा। उसे क्या पता कि आगे जनता तैयार बैठी है। कौन बख्शने वाला है। ़खैर, जो भी हो, समय से पहले सरकार चली जाए तो अच्छा नहीं माना जाता। पर समय से पहले मानसून आ जाए तो कोई खराबी नहीं।
वैसे भी मानसून तो किसानों के लिए, और किसानों के लिए ही क्यों जी, सभी के लिए खुशी और खुशहाली लेकर आता है। महंगाई की तरह मनहूसियत थोड़े ही लाता है। हालांकि बाढ़-वाढ़ आती है तो जान-माल का नुकसान भी बहुत होता है और जो भुगतता है, वही उस दर्द को जानता है। जिसके पैर न फटी बिवाई, सो क्या जाने पीर पराई। वैसे हर कोई हमारे वित्तमंत्री जैसा भी नहीं होता है कि लोगों के उस दर्द को महसूस करने की बजाय खुशी का इजहार कर दे कि बाढ़ के बाद फसल बहुत अच्छी होती है।
हालांकि इस बार मानसून की शुरुआत थोड़े अपशकुनी ढंग से हुयी है। अपने यहॉं मानसून केरल-कर्नाटक से ही शुरू होता है। मानसून आते ही कर्नाटक में किसानों ने खाद-बीज की मांग करनी शुरू कर दी। सरकार नयी-नयी बनी थी। अभी तो भाजपा ने उसकी नजर भी नहीं उतारी थी और किसानों ने खाद-बीज के लिए हल्ला मचा दिया। उत्सवी माहौल में यह हल्ला-गुल्ला सरकार को पसंद नहीं आया। उसने गोली चलवा दी। एक किसान मर गया। बताते हैं कि खाद-बीज न मिलने की वजह से बाद में कई और किसानों ने आत्महत्या कर ली।
भाजपा अभी दक्षिणी द्वार खुलने की खुशी मना ही रही थी कि यह कांड हो गया। पता नहीं वास्तु के जानकार दक्षिणी द्वार को शुभ मानते हैं या अशुभ। भाजपा तो शुभ ही मानती होगी। उसने तो तेरह के आंकड़े को भी शुभ ही माना था, जिसे सारी दुनिया अशुभ मानती है। राज जैसे भी मिल रहा हो, सब शुभ ही होता है। वैसे जिन दिनों भाजपा का यह दक्षिणी द्वार खुल रहा था, उन्हीं दिनों राजस्थान से यह खबर आ रही थी कि भाजपा की सरकार में चालीस आंदोलनकारी गुर्जर मार डाले गए। वे भी किसान ही थे। बेशक खाद-बीज की मांग नहीं कर रहे थे, आरक्षण की मांग कर रहे थे। पर थे तो किसान ही, फिर वह तो पहले आंदोलनकारी किसानों पर भी गोली चलवा चुकी है।
भाजपा ने पता नहीं इसे शुभ माना या अशुभ। हालांकि राज मिल रहा हो तो सब शुभ ही होता है। पर जब राजस्थान में सरकार गोलियां चलवा रही थी तो उन्हीं दिनों बन रही कर्नाटक की सरकार ने झट से वही सीख ले ली। अर्थात उसे गर्भ में ही किसानों पर गोली चलवाने की शिक्षा मिल गयी। इस पर वह गर्व भी कर सकती है। हालांकि उसने सरकार बनने के आठ-दस दिन बाद गोली चलवायी, यही आश्र्चर्य की बात है। इस शिक्षा के बाद तो वह पहले दिन भी गोली चलवा सकती थी। लेकिन सिर्फ इसी वजह से आप उसे संवेदनहीन सरकार न मानें। हालांकि सरकार होने के उसने सारे सबूत दिए। सिर्फ गोली ही नहीं चलवायी बल्कि यह भी कहा कि यह सरकार को बदनाम करने की कोशिश है और कि इसके पीछे विपक्ष का हाथ है। गनीमत यही रही कि विदेशी हाथ नहीं बताया। वरना भाजपा की सरकार को इसके पीछे पाकिस्तान का हाथ बताने में कितनी देर लगती।
इसके बावजूद आप उसे संवेदनहीन सरकार न मानें। क्योंकि इसके बाद स्वयं मुख्यमंत्री मृतक किसान के घर गए और वहॉं बुक्का फाड़कर रोए। मतलब मारेंगे भी हम और रोएंगे भी हम। यह तो वही बात हो गयी कि जबरा मारे भी और रोने भी न दे। खुद ही रोने लगे। लगता है इधर भाजपा में सब लोग रोने की प्रैक्टिस कर रहे हैं। लौहपुरुष आडवाणी ने रास्ता दिखा दिया है। जैसे उन्होंने रथयात्राएं आयोजित करने का रास्ता दिखाया था, वैसे ही रोने की राह दिखा दी है। अपने लौहत्व के बावजूद इधर वे खूब रो रहे हैं। थोड़े दिन पहले आमिर खान की फिल्म “तारे जमीं पर’ देख कर रोए ही थे, इधर एक कविता सुनकर रो पड़े।
और जब पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार टेसुए बहा रहा हो, तो पार्टी का कोई मुख्यमंत्री रोने से कैसे अपने को रोक सकता है। सो येदुरप्पा जी मृतक किसान के घर गए और वहॉं बुक्का फाड़कर रोए। किसानों को खाद-बीज फिर भी नहीं दिया। सुना है खाद-बीज तो सारा उन लोगों ने अपने गोदामों में जमा कर रखा है, जिन्होंने चुनाव में पार्टी को चंदा दिया था। खाद-बीज न मिलने पर किसान आत्महत्याएं कर रहे हैं। पर अब हर आत्महत्या पर येदुरप्पा जी थोड़े ही रोएंगे। महारानी वसुंधराजी के राज में करीब सौ लोग मर चुके हैं। वेे कितनों के घर जा-जाकर रोएंगी। वैसे भी वे महारानी हैं। तो येदुरप्पा जी ने अपनी सरकार की शुरुआत गोली चलाने से की है। खतरा यही है कि वे वसुंधरा जी की तरह मामला सौ के पार न निकाल ले जाएं। क्योंकि अगर आगाज ऐसा है तो अंजाम क्या होगा, खुदा जाने।
– सहीराम
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