प्रवासी श्रमिक आखिर जायें तो जायें कहॉं?

कुछ दिनों पहले देश के प्रमुख टीवी चैनलों पर उन म़जदूरों की दुर्दशा दिखाई जा रही थी जो बिहार और झारखण्ड के रहने वाले हैं और जो पिछले कई वर्षों से रोजी-रोटी की खोज में कश्मीर घाटी में कार्यरत थे। जब से जम्मू में अमरनाथ श्राइन बोर्ड की ़जमीन के मामले ने तूल पकड़ा, जम्मू और कश्मीर की घाटी में आंदोलन दिनोंदिन तेज होता गया। अपने-अपने कारणों से जम्मू और कश्मीर घाटी के लोग उग्र प्रदर्शन कर रहे थे। व्यापक पैमाने पर आगजनी हो रही थी। दोनों क्षेत्रों में कोई कर्फ्यू को नहीं मान रहा था। पुलिस और सेना की गोलियों से दर्जनों लोगों की मौत हो गई और अनेक लोग घायल होकर अस्पतालों में पड़े रहे।

इस आंदोलन का एक वीभत्स रूप यह हुआ कि कश्मीर घाटी में बिहार और झारखंड से आए हुए जो गरीब म़जदूर कार्यरत थे, उन्हें अलगाववादियों और आतंकवादियों ने डरा-धमकाकर वहॉं से भगा दिया। पैदल चलकर और बसों का तीन-चार गुना किराया देकर ये म़जदूर किसी तरह जान बचाकर जम्मू के रेलवे स्टेशन तक पहुँच पाए। लेकिन उनके पास इतने भी पैसे नहीं थे कि टिकट लेकर वे बिहार और झारखंड में अपने गांव पहुँच सकें। कश्मीर तो भारत का अभिन्न अंग है। वहॉं हर भारतीय को रोजी-रोटी की खोज में जाकर रहने की छूट है। ऐसे में यदि मुट्ठीभर आतंकवादी तंग कर उन्हें वहां से भगा दें तो यह बड़े दुर्भाग्य की बात है। ऐसे में केंद्र सरकार का मूकदर्शक होकर बैठे रहना भी उचित नहीं कहा जा सकता।

बिहार और झारखंड के ये म़जदूर तो कश्मीर घाटी के विकास के लिए अत्यंत ही विपरीत परिस्थितियों में भयानक ठंड और बर्फीली हवाओं के थपेड़े खाकर सड़कें बना रहे थे। रेल लाइनें बिछा रहे थे। इससे घाटी के लोगों का आर्थिक विकास होता। म़जदूरों का शोषण तो ठेकेदार भी कर रहे थे। जो लोग जम्मू स्टेशन पर पहुँचे, उन्होंने कहा कि उनके ठेकेदारों ने तीन-चार महीने का वेतन उन्हें नहीं दिया था। उनके पास तो दो वक्त की रोटी का भी पैसा नहीं है, ऐसे में वे रेल टिकट का पैसा कहॉं से लाएँ?

खबर आई कि जम्मू की कुछ स्वयंसेवी संस्थाएं इन गरीब और असहाय म़जदूरों को खाना दे रही थीं और उन्हें बिहार और झारखंड वापस जाने के लिये कुछ पैसों से भी मदद किया। इस सिलसिले में एक दिलचस्प बात यह थी कि बिहार और झारखंड के इन म़जदूरों में दोनों समुदायों के लोग थे और इन्हें जम्मू में जो लोग मदद कर रहे थे वे भी दोनों समुदायों के थे। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि साम्प्रदायिकता की भावना वहॉं उभरी है। सच यह है कि मात्र आतंक फैलाने के लिए आतंकवादी और अलगाववादी डरा-धमकाकर इन लोगों को कश्मीर की घाटी से निकाल रहे थे।

स्थिति अत्यंत ही गंभीर है। प्रश्र्न्न यह है कि ये गरीब म़जदूर आखिर कहॉं जाएं? दुर्भाग्यवश बिहार और झारखण्ड की आर्थिक स्थिति अत्यंत ही दयनीय है। पहले बिहार जिसमें झारखंड भी शामिल था, के लोग म़जदूरी करने के लिए कोलकाता जाते थे। वहॉं के जूट और इंजीनियरिंग कारखानों में उन्हें आसानी से रोजगार मिल जाता था। 70 के दशक में जब वहॉं वामपंथियों का वर्चस्व हो गया और वामंपथियों ने वहॉं के उद्योगपतियों को तरह-तरह से सताना शुरू कर दिया तो वे उद्योगपति पश्र्चिम बंगाल से भागकर दिल्ली, हरियाणा और पंजाब में कल-कारखाने स्थापित करने लगे। अतः स्वाभाविक था कि बिहार के म़जदूर दिल्ली की ओर रुख करते और जब वे दिल्ली आए तो फिर वहॉं से पंजाब, हरियाणा, हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर भी गये।

जहां तक बिहार जिसमें झारखण्ड भी शामिल है, का सवाल है, वहॉं 1975 से ही राजनेताओं ने चाहे वे किसी भी दल के हों, लूट मचा दी थी। उन्होंने दोनों हाथों से बिहार को लूटा और अपना घर भरा। आम जनता ठगी-सी रह गई और उसकी हालत बद से बदतर होती गई। बिहार और झारखंड की हालत तो तब और अधिक बिगड़ गई जब राजनेताओं ने अपने स्वार्थ के कारण इसे दो सूबों में बांट दिया जिसका नाम बिहार और झारखंड पड़ा। बंटवारे के बाद बिहार में केवल बाढ़, बालू और गरीबी रह गई। उधर झारखंड में नक्सलवादी और माओपंथी उपद्रव बढ़ने लगे तथा राज्य का न तो औद्योगिक विकास हुआ और न खनिज और न कृषि के क्षेत्र में कोई प्रगति हुई। आम जनता की हालत अत्यंत ही दयनीय हो गई। अतः आर्थिक कारणों से लोग बिहार और झारखंड से भागकर दिल्ली, हरियाणा, पंजाब, हिमाचल तथा जम्मू-कश्मीर म़जदूरी की खोज में चले गये। दिल्ली, गाजियाबाद, नोएडा, ग्रेटर नोएडा, फरीदाबाद, बल्लभगढ़, गुड़गांव तथा हरियाणा के दूसरे शहरों को उन्नत बनाने में बिहार और झारखंड के म़जदूरों का बहुत बड़ा योगदान है। इसी तरह पंजाब को खुशहाल बनाने और वहॉं की खेती को मूर्त रूप देने में बिहार और झारखंड के म़जदूरों का बहुत बड़ा योगदान है। ये म़जदूर अत्यंत ही परिश्रमी और ईमानदार हैं। इसीलिये ठेकेदार इन्हें हिमाचल प्रदेश और जम्मू-कश्मीर भी ले गये। सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था यदि बीच में अलगाववादियों और आतंकवादियों ने इन्हें डरा-धमकाकर कश्मीर की घाटियों से भगाया नहीं होता। ये आतंकवादी यह सोच भी नहीं सके कि ऐसा करके वे अपने ही पांव में कुल्हाड़ी मार रहे हैं क्योंकि अनुभव यह बताता है कि जहॉं-जहॉं से बिहारी म़जदूरों को भगाया गया वहॉं म़जदूरों के अभाव में आर्थिक विकास अवरुद्घ हो गया।

पिछले कुछ महीनों से असम में उल्फा उग्रवादियों ने डरा-धमकाकर बिहार और झारखंड के म़जदूरों को, जो गत 100 वर्षों से वहॉं रह रहे थे, भगाना शुरू कर दिया। टेनों में भर-भर कर म़जदूर बिहार और झारखंड लौटने लगे। अधिकतर लोगों को यह भी पता नहीं था कि उनके बाप-दादे बिहार और झारखंड के किस गांव से आज से 100 वर्ष पहले असम गये थे। इस सिलसिले में यह बताना आवश्यक है कि आज से प्रायः 100 वर्ष पहले अंग्रेज और उनके दलाल बिहार के गांवों से गरीब म़जदूरों को तगड़ी म़जदूरी का लालच देकर असम ले गये थे। गुवाहाटी पहुँचने के बाद चाय बागान के अंग्रेज मालिक और उनके दलाल तो घोड़ों पर चढ़कर अपने चाय बागान पहुँच जाते थे परन्तु बिहार के गरीब म़जदूर महीनों पैदल चलकर घने जंगल होकर चाय बागान पहुँचते थे। उन दिनों असम के जंगलों में अनेक हिंसक जानवर रहते थे जिनके अनेक म़जदूर शिकार हो जाते थे। बचे-खुचे जो लोग चाय बागानों में पहुँचते थे उनमें से अनेक लोग मलेरिया और कालाजार के शिकार हो जाते थे। उन्हें बिहार लौटने का रास्ता ही नहीं मालूम था। इसलिये ज्यादातर लोग वहीं बस गये। इन गरीब म़जदूरों ने गत 100 वर्षों में असम में चाय उद्योग को मजबूत किया और चाय भारत के निर्यात का एक प्रमुख साधन बन गया। परन्तु इन म़जदूरों को मामूली म़जदूरी मिलने के कारण भुखमरी और अभाव के अलावा कुछ भी नहीं मिला। फिर भी ये अपने दिन वहॉं किसी तरह काट रहे थे। अचानक उल्फा तथा दूसरे उग्रवादी संगठनों ने इन बिहारी म़जदूरों पर जिनमें झारखंड निवासी भी शामिल हैं, हमला करके ह़जारों निर्दोष लोगों को मौत के घाट उतार दिया। दुर्भाग्य की बात यह है कि इन बिहारी म़जदूरों को न तो असम सरकार का और न केंद्रीय सरकार का संरक्षण प्राप्त हुआ। उग्रवादियों के डर से ह़जारों बिहार और झारखंडवासी बिहार और झारखंड खाली हाथ लौट गये। यदि उग्रवादियों ने इन बिहारी म़जदूरों को भगाकर उनकी जगह असम के म़जदूरों को रखा होता तो बात समझ में भी आती। यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है कि इन लोगों पर हिंसक हमले करके इन्हें असम छोड़ने के लिए मजबूर किया गया और इनकी जगह बांग्लादेशियों को रखा गया। केंद्र और असम सरकार सब देख कर मौन रही।

असम की देखादेखी महाराष्ट में भी यह मांग होने लगी कि बिहार, झारखंड और उत्तरप्रदेश के म़जदूरों को वहॉं से निकाला जाए। प्रश्न यह है कि आखिर ये म़जदूर जाएंगे कहॉं? बिहार और झारखंड में रोजगार का कोई साधन उपलब्ध नहीं है। किसी अन्य राज्य में भी इन्हें म़जदूरी नहीं मिलेगी। कहावत है कि मरता क्या नहीं करता? डर यह है कि ये गरीब और असहाय म़जदूर देश के विभिन्न भागों से बिहार और झारखंड लौटकर कहीं माओवादियों और नक्सलपंथियों के गिरोह में शामिल न हो जाएं। यदि ऐसा हुआ तो यह केवल बिहार और झारखंड सरकार की सिरदर्दी नहीं होगी, पूरे देश के लिए एक अत्यंत ही जटिल समस्या पैदा हो जाएगी। अनुभव यह बताता है कि दिग्भ्रमित लोग जब उग्रवादियों के जाल में किसी तरह फंस जाते हैं तो फिर उससे निकलना असंभव हो जाता है। एक तो उग्रवादी ही उन्हें नहीं निकलने देंगे और यदि किसी ने निकलने का प्रयास किया तो उसे अपनी जान से हाथ धोना पड़ेगा। दूसरा यह है कि इन गिरोहों से निकलने के बाद भी इन लोगों के सामने यह समस्या आ खड़ी होगी कि इन्हें रोजी-रोटी कहॉं और कैसे मिलेगी तथा ये परिवार का भरण-पोषण कैसे करेंगे?

कुल मिलाकर कश्मीर घाटी से भगाये गये बिहार और झारखंड के म़जदूरों की समस्या एक अत्यंत ही गंभीर समस्या है जिसपर केंद्र सरकार को भरपूर ध्यान देना होगा, इसके पहले कि परिस्थितियां काबू से बाहर हो जाएं।

– डॉ. गौरीशंकर राजहंस

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