महामति प्राणनाथ ने ब्रह्मात्माओं को श्रीमद्भागवत का सारांश समझाया है। इसके सार को समझने पर माया के प्रभाव से मुक्ति मिल जाएगी। उनके अनुसार माया का प्रभाव बड़ा प्रबल होता है। इसीलिए अक्षरातीत परमात्मा ने हमें इसमें आने से रोका था। अक्षरातीत परमात्मा और ब्रह्मात्माओं के नित्य-विहार से रासलीला का उदय हुआ और वह लीला अमिट हो गयी। वेदों का सार श्रीमद्भागवत को कहा गया है। इस साररूप फल श्रीमद्भागवत ग्रंथ को श्रीशुकदेव मुनि ने ग्रहण किया। इसे प्रेमामृत से सींचकर परिपक्व किया। शास्त्रों का सार श्रीमद्भागवत और श्रीमद्भागवत का सार उसका दसवां स्कन्ध माना जाता है। दशम स्कंध में नब्बे अध्याय हैं, जिसमें जगदीश श्रीकृष्ण की ब्रजलीला का वर्णन है।
सो फल सार सुकजीऐ लियो,
सींच के अमृत पक्व कियो।
ए फल सार जो भागवत भयो,
ताको सार दशम स्कंध कहयो।
दशम के नब्बे अध्या,
तिनका सार भी जुदा कहया।
ताको सार अध्या पैंतीस
जो ब्रजलीला करी जगदीश।।
प्रकाश हिन्दुस्तानी 33/5.6
वैसे तो जगत के ईश का लाभ विष्णु भगवान है। परब्रह्म परमात्मा श्रीकृष्ण को जगदीश नहीं कहा जा सकता, किन्तु संसार के लोग जगदीश को ही सबसे बड़ा मानते हैं। इसलिए श्रीकृष्ण को ही जगदीश कह देते हैं। योगमाया की शक्ति से रचे गए ब्रह्माण्ड में जो रास-लीला हुई, वह अक्षरब्रह्म के हृदय में अमिट हो गयी। इस अक्षय लीला का वर्णन श्रीशुकदेव मुनि ने आवेश में किया। मुनिवर रासलीला का पूरा वर्णन न कर पाये, क्योंकि राजा परीक्षित ने श्रीकृष्ण और गोपियों के लौकिक सम्बन्ध के विषय में प्रश्र्न्न पूछा था। तब मुनिवर ने अपने मस्तक पर हाथ मारा और अत्यन्त दुख में डूबकर कहा था, “”राजन, अब मैं योगी और तुम राजा रह गये। आवेश प्राप्त होने से मैं तुम्हें महारास का सुख देना चाहता था। परन्तु अब वह नहीं कहा जा सकता।”
हाथ ललाटें दिया सही,
सुके दुःख पाए के कही।
मैं जोगी तें राजा भयो,
रास को सुख न जाए कहयो।।
प्रकाश हिन्दुस्तानी 33/13
श्री शुकदेव मुनि ने राजा परीक्षित से कहा कि अब यह दिव्य-वाणी मुझसे नहीं कही जाएगी। अखण्ड रासलीला के अधिकारी पात्र ही इस लीला का आनंद पाएंगे। केसरी का दूध उत्तम स्वच्छ स्वर्ण-पात्र के बिना नहीं रह सकता। इतना सुनकर राजा परीक्षित बड़े क्षुब्ध हुए और मूर्च्छित होकर गिर पड़े। वे प्रायश्र्चित के कारण दुःख से कांपने लगे। वे इतना रोये, मानो उनका अन्तःकरण ही अश्रुओं में डूब जाएगा। तब शुकदेव मुनि ने उन्हें सान्त्वना दी और कहा, “”मेरे अन्तर्मन में विराजमान कोई शक्ति इन वचनों को कहलवा रही थी। अब वह शक्ति चली गयी और मैं विवश हो गया।” तब मुनिवर ने जोश उतर जाने पर भी पांच अध्याय कहे, किन्तु चिन्मय रासलीला का वर्णन पुनः न किया जा सका।
प्रस्तुति – श्याम सुन्दर अग्रवाल
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