शहर आकर रामपाल ने अपना काम अच्छा जमा लिया था, पर एक समस्या खड़ी हो गई। निकट के गांवों में उसके बहुत से सम्बन्धी रहते थे। एक गांव से दूसरे गांव जाने के लिए उन्हें शहर से गुजरना पड़ता था। अब आराम करने के लिए वे रामपाल के घर ठहरने लगे। कुछ तो तीन-चार दिन तक जाने का नाम ही नहीं लेते।
बिन बुलाए मेहमानों से रामपाल व उसकी पत्नी माला तंग आ चुके थे। उन्होंने वापिस गांव जाने की सोची, किन्तु जमे हुए काम के मारे उनका मन नहीं करता था। गांव जाकर करते भी क्या, अपनी आधी से ज्यादा जमीन तो वे बेच चुके थे।
एक दिन दोपहर के समय रामपाल भोजन कर रहा था तो बाहर किसी ने दरवाजा खटखटाया। रामपाल और माला के चेहरे पर चिंता की रेखाएं उभर आईं। “”लो, आ गया कोई और सम्बन्धी दोपहरी बिगाड़ने।” रामपाल ने कहा। दरवाजे पर पुनः दस्तक हुई। रामपाल कुछ कहने ही वाला था, पर माला ने रोकते हुए कहा, “”आप शान्ति से भोजन कीजिए, मैं देखती हूं।” सिर पर पल्लू ओढ़ कर वह दरवाजे की ओर चली गई।
जैसे ही उसने द्वार खोला तो सामने विद्या मौसी खड़ी थी। यह उनकी निकटतम पड़ोसी थी, जो अक्सर उनके पास आ जाती थी। उसके हाथ में एक बड़ा-सा कटोरा भी था।
“”आओ मौसी, भीतर आ जाओ।”
“”मैं तो रामपाल के लिए गन्ने के रस से बनी खीर लेकर आई हूं, उसे बहुत पसंद है न।” विद्या मौसी ने कहा, फिर शिकायती लहजे में बोली, “”तू तो उसकी पसंद-नापसंद का जरा भी ख्याल नहीं रखती।”
माला ने आह भरते हुए उत्तर दिया, “”मौसी इनका ख्याल तब रखूं, जब बिन बुलाए मेहमानों से छुटकारा मिले।”
“”उसी का उपाय बताऊंगी आज।” विद्या मौसी बोली।
“”तो जल्दी बताओ न।” माला बच्चे की भांति उछली।
“”थोड़ा सब्र कर, पहले मैं रामपाल को अपने हाथों से खीर परोस दूं, कहां है वो?” विद्या मौसी ने पूछा।
माला उसे रसोईघर में ले गई।
रामपाल को गन्ने के रस से बनी खीर से बहुत लगाव था। सब कुछ छोड़कर वह उस पर टूट पड़ा।
“”अरे थोड़ी-सी माला के लिए भी रख दे।” विद्या मौसी ने डांटते हुए कहा।
“”मौसी, उसके लिए अगली बार, आज तो मुझे मत रोक।” रामपाल ने अंगुलियां चाटते हुए कहा।
खाना खा कर रामपाल ने आराम किया और कुछ देर बाद अपने कार्य-स्थल पर चला गया। विद्या मौसी व माला बातों में मशगूल हो गईं। इसी दौरान विद्या मौसी ने माला को अनचाहे मेहमानों से छुटकारा पाने का उपाय बता दिया।
“”अरे वाह, यह हमें क्यों नहीं सूझा?” माला ने कहा।
“”किसी समझदार और होशियार शख्स से पाला नहीं पड़ा न, इसलिए।” विद्या मौसी ने मुस्कुराते हुए कहा।
अगले ही दिन रामपाल की बुआ अपने दो पोतों के साथ आ धमकी। वह शहर में सैर-सपाटा करने आई थी, पर माला का बुझा-सा चेहरा देखकर उनका उत्साह ठंडा-सा होने लगा।
“”क्या बात है माला?” बुआ ने सहानुभूति जताते हुए पूछा।
“”ये नौकरी करना चाहते हैं, वो भी दूर विदेश में।” माला नकली रोना रोते हुए बोली।
“”क्या, अपना जमा-जमाया कारोबार छोड़कर जाना चाहता है?” बुआ हैरान होते हुए बोली।
“”हां,” माला सुबकते हुए कहने लगी, “”बुआजी, यही नहीं उन्हें ढेर-सा पैसा भी चाहिए और आजकल हमारा हाथ बहुत तंग चल रहा है।”
माला फूट-फूट कर रोने लगी। बुआ कहने लगी,””अब क्या होगा? खैर उसे आने दे, मैं समझाऊंगी ।”
“”आप समझाएंगी उन्हें?” माला ने पूछा।
“”हां, क्यों मेरी बात नहीं मानेगा वो? मुझसे तो बहुत स्नेह है उसका।”
“”आपसे पूरे समर्थन की आस लगा रखी है उन्होंने।” माला ने कहा।
“”क्…क्या मतलब है उसका?” बुआ ने चौंकते हुए पूछा।
“”जब मैंने उनसे पैसे की तंगी की बात की तो बोले, मेरी बुआ के पास काफी पैसा है, एक बार मांगूंगा तो दस बार देंगी।” माला ने बुआ की आंखों में झांकते हुए कहा। बुआ वाक्य पूरा होने से पहले ही घबरा गई थी। किसी काम का बहाना बनाकर वह खिसकने लगी। पोते वहीं अटकने की जिद करने लगे, पर उन्हें भी मारपीट कर ले गई। अपनी योजना कामयाब होते ही माला खुशी से पागल हो गई। मन ही मन उसने विद्या मौसी का धन्यवाद किया।
कुछ दिनों बाद रामपाल का मामा आ गया। माला ने फिर से मोर्चा संभाला, “”मामाजी, एक प्रार्थना है।”
“”बोलो बहू।” मामाजी ने दूध का गिलास थामते हुए कहा।
“”ये शहर में कुछ जमीन खरीदना चाहते हैं।” माला ने कहा।
“”यह तो अच्छी बात है, खरीदो, खरीदो।” मामा ने मूंछें साफ करते हुए कहा।
“”लेकिन मामाजी, धन की कमी से सौदा अटका हुआ है। यदि आप हमारी मदद कर देते तो…।” माला ने जानबूझकर बात अधूरी छोड़ दी।
“”बहू।” मामाजी ने घबराते हुए कहा, “”वेसे तो मैं मदद कर देता, पर आजकल मेरा हाथ भी तंग चल रहा है।” वह भी आवश्यक काम का बहाना बनाकर वहां से चला गया।
अभी दो दिन ही बीते थे, माला की मौसी पधार गई। यह उसका चौथा चक्कर था। अक्सर अपनी बहुओं से झगड़ा कर रामपाल के घर आ जाती और कई दिनों तक अटकी रहती थी। रामपाल वैसे तो उसके मुंह न लगता था, पर आज उसने बड़े प्यार से कहा, “”मौसी, क्या हाल है?”
“”ठीक है बेटा।” उस वक्त मौसी पूड़ी और आलू की सब्जी चख रही थी। “”एक बात है मौसी।” रामपाल ने झिझकते हुए कहा।
“”बोल न, मैं कोई परायी थोड़े ही हूं।”
“”माला रानीहार बनवाने की जिद कर रही है।”
“”तो बनवा दे न।” मौसी ने दही गटकते हुए कहा।
“”पर मौसी, अभी मेरे पास पैसे नहीं हैं, आप मुझे कुछ रुपये उधार दीजिए ताकि मैं माला की जिद पूरी कर सकूं और हां, ये आपके और मेरे बीच की बात है, माला से भी मत कहना।” रामपाल ने एक ही सांस में अपनी बात कह डाली।
सुनते ही मौसी का दिमाग घूम गया, हकलाते हुए बोली, “”बेटा, म… मेरे पास पैसे कहां है?”
इस पर रामपाल ने मौसी की कलाइयों की तरफ संकेत करते हुए कहा, “”इन सोने की चूड़ियों से मेरा काम चल सकता है।”
“”तेरा भेजा तो नहीं फिर गया,” अब की बार मौसी का सब्र जबाव दे गया था, “”यह मेरे सुहाग का चिन्ह है। इन्हें भला कैसे उतार सकती हूं, मेरा पति और बेटे घर में घुसने नहीं देंगे।”
रामपाल भी खुलकर बोला, “”मौसी, मेरे घर में तब घुसोगी, जब यह चूड़ियां मुझे उधार दोगी।”
“”अच्छा, अभी माला से शिकायत करती हूं तेरी।” मौसी ने भीतर झांकते हुए कहा, पर माला निकट के ही कमरे से बाहर निकलते हुए बोली, “”मौसी, मैंने सब सुन लिया है, ये ठीक ही कह रहे हैं और फिर हम पराए तो हैं नहीं, थोड़ी मदद करने में आपका जाता क्या है?”
“”माला… तू भी…।” मौसी की जुबान अटक गई।
“”मौसी, हम मदद ही तो मांग रहे हैं, अपना समझकर।” दोनों एक साथ बोले। अब तो मौसी भड़क गई, “”अपना-वपना कुछ नहीं, तुम दोनों मेरी सोने की चूड़ियां हड़पना चाहते हो। अब मैं यहां एक पल भी नहीं रुकूंगी।’ उसके बाद माला की मौसी भी वहां से नौ दो ग्यारह हो गई।
धीरे-धीरे रामपाल के घर बिन बुलाए मेहमानों का आना बंद हो गया। विद्या मौसी का उपाय पूरी तरह कारगर सिद्घ हुआ। इस तरह रामपाल और माला के दिन सुख से और रातें चैन से कटने लगीं।
– हरदेव कृष्ण वर्मा
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