आत्म कल्याण का पर्व दसलक्षण

jain-dharamजैन-धर्म में अनादिकाल से अनेक पर्व मनाये जाते हैं। उनमें पर्वाधिराज दसलक्षण-पर्व का सबसे अधिक महत्व है। इस पर्व में व्यक्ति राग, द्वेष, कषाय, मिथ्यात्व, अज्ञान, मद, मत्सर, मोह, ईर्ष्या भाव आदि को त्यागने का वचन लेता है। यह पर्व आत्मशुद्घि एवं आत्म-कल्याण का पर्व है। यह पर्व श्र्वेताम्बर पंथ में भाद्रपद कृष्ण द्वादशी से शुक्ल पंचमी तक तथा दिगम्बर पंथ में भाद्रपद शुक्ल पंचमी से शुक्ल चतुर्दशी तक मनाया जाता है।

आज के इस आधुनिक युग में मानव अपने आपको असुरक्षित तथा भयग्रस्त महसूस कर रहा है। ऐसे में उसके पास एक मात्र विकल्प है, जिसके द्वारा वह अपना जीवन सार्थक बना सकता है, वह है – धर्म।

धर्म में ऐसी शक्ति है, जो संसारी प्राणियों को दुःखों से निकाल कर उत्तम सुख में पहुँचा देता है। पर्युषण-पर्व के दस दिनों में दस-धर्मों की आराधना की जाती है, इसी कारण इसे दसलक्षण-पर्व कहा जाता है।

  1. उत्तम क्षमा धर्म – ाोध या गुस्सा होने पर भी ाोध को उत्पन्न नहीं होने देना ही क्षमा है। “क्षमा’ सर्वगुण समूह की सहचारिणी है, ज्ञानियों के लिए चिंतामणि के समान है तथा क्षमा मन को स्थिर करने पर ही प्राप्त होती है। क्षमा मिथ्यात्व रूपी अंधकार को नष्ट करने में सूर्य के समान है। क्षमा के लिए उदार हृदय चाहिए। यदि हम आपस में छोटी-छोटी बातों को सहन करना सीख लें और क्षमा-भाव धारण करना सीख लें तो परस्पर स्नेह हमेशा बहता रहेगा। इसलिए हमेशा ाोध को छोड़कर प्रेम का वातावरण निर्मित करके, घर में, समाज में, देश में शांति की स्थापना करनी चाहिए।
  2. उत्तम मार्दव धर्म – मान का मर्दन करने वाला धर्म मार्दव धर्म है। यह मान-कषाय को दूर करता है। मनुष्य की पांचों इंद्रियों और मन का निग्रह करता है। इससे सकल व्रत तथा संयम सकल होते हैं। धन, वैभव, पद-प्रतिष्ठा आदि यह सब मानव के बाह्य संयोग हैं। वे सभी अशाश्र्वत हैं। मार्दव धर्म का यह संदेश है कि हम बाह्य संयोगों के प्रति बढ़ते हुए अभिमान पर अंकुश लगायें तथा आत्मा के स्वरूप को पहचानें, समझें और जीवन में विनम्रता को विकसित करें।
  3. उत्तम आर्जव धर्म – यह मन को स्थिर करने वाला है। पापों को नष्ट करने वाला है और सुख का उत्पादक है। मन, वचन, काय की सरलता अर्थात् अच्छा सोचना, अच्छा बोलना और अच्छा कार्य करना, छल-कपट तथा प्रपंच से बचना तथा सीधा-साधा एवं ईमानदारी से जीवन व्यतीत करना। “मन में हो, सो वचन उचारिये, वचन होय सो तन सो करिये’ को आर्जव धर्म कहते हैं। मन, वचन और काय में एकरूपता महापुरुषों का लक्षण है। मायाचारी को त्याग करके सरल परिणामों द्वारा अपनी आत्मा की उन्नति और उर्ध्वगति करनी चाहिए।
  4. उत्तम शौच धर्म – जीवन को सुखी एवं समृद्घ बनाने के लिए स्वच्छता व सफाई जरूरी है और इसी सफाई का नाम शौच है। “शुचेर्भाव शौचम’ शुचिता के भाव को शौच कहते हैं। आत्मा की विशुद्घि के लिए मन के दर्पण की स्वच्छता जरूरी है। आज तक मानव ने तन को मांजा है तथा मन अछूता रखा है। शौच-धर्म मन को परिमार्जित करने का धर्म है।
  5. उत्तम सत्य धर्म – सत्य धर्म सब धर्मों में प्रधान है। सत्य को परमेश्र्वर कहा गया है। सत्य की उपलब्धि ही परमात्मा की उपलब्धि है। सन्त कहते हैं कि सत्य की प्राप्ति के लिए तुम्हें बाहर कहीं भटकने की जरूरत नहीं है। सत्य तुम्हारे भीतर है। एक बार झांक कर देखने की कोशिश करो, तुम सत्य को पा जाओगे। हमारा लक्ष्य सच को पाने का होना चाहिए तथा हमें सदा झूठे वचनों से बचते रहना चाहिए। यदि हम इतना पुरुषार्थ कर लें, तो धीरे-धीरे हमारे जीवन में अच्छाई आती रहेगी।
  6. उत्तम संयम धर्म – मन और इंद्रियों की होने वाली चंचल प्रवृति को रोकना संयम धर्म कहलाता है। ाोध, मान, माया एवं लोभ इन चार कषायों का परित्याग करना चाहिए। मन, वचन, काया पर नियंत्रण के साथ इंद्रियों पर काबू रखना चाहिए। जीवन की सार्थकता संयम में है। संयम की आराधना ही जीवन की श्रेष्ठ साधना है। अपने मन और इंद्रियों पर नियंत्रण रखना संयम है। अध्यात्म की साधना के लिए संयम अनिवार्य है।
  7. उत्तम तप धर्म – इच्छाओं का विवेकपूर्वक दमन करना तप धर्म कहलाता है। इच्छाएँ अनंत हैं। इनका कोई अंत नहीं है। इस हालत में इंद्रियों पर अंकुश तथा इच्छाओं पर रोक लगाना चाहिए। प्रत्येक प्राणी में परमात्मा की शक्ति विद्यमान है। इस शक्ति की अभिव्यक्ति के लिए तप-साधना जरूरी है। सन्त कहते हैं “”जीवन का उपभोग नहीं, उपयोग करो।” तप-साधना ही जीवन का श्रेष्ठतम उपयोग है। उपवास का प्रयोजन सब प्रकार की आकुलताओं से मुक्त होकर आत्मा में अनुरक्त होना है।
  8. उत्तम त्याग धर्म – संग्रहवृत्ति से मुक्त होकर अंतरंग एवं बहिरंग परिग्रह का परित्याग करते हुए, आत्म-कल्याण में लवलीन हो जाने की अवस्था को ही उत्तम त्याग धर्म कहते हैं। सन्त सर्वस्व के त्यागी होते हैं। अपरिग्रही जीवन जीते हैं। गृहस्य के लिए सर्वस्व का त्याग सम्भव नहीं है, उसके लिए अपनी शक्ति एवं परिस्थिति अनुसार भक्ति पूर्वक दान देने की प्रेरणा दी गयी है। सन्त कहते हैं कि धन को संग्रहित करना बुरा नहीं है, परन्तु इसके साथ-साथ उसका अच्छा उपयोग भी होना चाहिए।

प्रकृति का नियम है कि जो निरंतर देता है, वह निर्बाध प्राप्त भी करता है। आज का दिया हुआ कल हजार गुना होकर लौटता है।

  1. उत्तम आकिंचन्य धर्म – सभी दस धर्मों में आकिंचन्य धर्म बहुत आसान भी है और बहुत मुश्किल भी। बाकि धर्मों में तो व्यक्ति को कुछ ना कुछ करना पड़ता है, कहीं ग्रहण करता पड़ता है, तो कहीं पर त्यागना पड़ता है। परन्तु इस धर्म में जब मेरा कुछ भी नहीं है, तो क्या ग्रहण और क्या त्याग। यहां अपना-पराया कुछ भी नहीं है। जिस क्षण ऐसा भाव मन के भीतर उत्पन्न हो जाये कि यहां मेरा कुछ भी नहीं है। यहां तक कि यह शरीर भी मेरा नहीं है, तो वही क्षण हमें आकिंचन और आकिंचन्य भाव से भर देने वाला क्षण है।
  2. उत्तम ब्रह्मचर्य धर्म – ब्रह्म का अर्थ है आत्मा और आत्मा की प्राप्ति के लिये किया जाने वाला आचरण ब्रह्मचर्य है। आत्मा तक पहुँचने के लिए काम और भोग-बाधाओं का सामना करना पड़ता है। कामनाओं से ग्रहित व्यक्ति दुनिया में दौड़ता रहता है। वह आत्मा से दूर भटकता रहता है। हमें इस काम और भोग को दूर रखना चाहिए। इसके लिए हमें अपनी पंचेंद्रिय पर काबू करना चाहिए। इंद्रियों को अपने वश में कर आत्मा के समीप पहुँच सकते हैं। हर वक्त व्यक्ति को कामभोग की आकांक्षाओं से ऊपर उठना चाहिए। ब्रह्मचर्य इंद्रियों पर पूर्ण विजय का ज्वलंत उदाहरण है। ब्रह्मचर्य जीवन में आहार और व्यवहार संयमित रहता है।

अगर किसी व्यक्ति ने उपरोक्त नियमों में से एक या दो नियम का पालन करना सीख लिया, तो वह अपने आगे का जीवन अच्छा बना सकता है तथा उसे शेष नियमों को भी जीवन में उतारने में कोई समय नहीं लगेगा और वह व्यक्ति अपना जीवन सुख-शांति से जीयेगा।

– डॉ. विजय पाटोदी

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