न्यायमूर्ति नानावती आयोग की रिपोर्ट सार्वजनिक होने के बाद इस पर ठंडे मन से विचार करने की आवश्यकता है। देश में शांति और सद्भाव की यही मांग है। हालांकि गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी जिस तरह विरोधियों को लताड़ रहे हैं वह अस्वाभाविक नहीं है। उन्होंने कहा है कि अभी तक गोधरा रेलदहन का उन्हें षड्यंत्रकारी घोषित करने वाले गुजरात के लोगों से माफी मांगें। जाहिर है, ऐसा नहीं होने वाला, क्योंकि मोदी विरोधियों ने रिपोर्ट पर ही प्रश्र्न्न उठा दिया है। लेकिन मोदी एवं भाजपा का तेवर साफ संकेत दे रहा है कि वे इसे अब एक बड़ा राजनीतिक मुद्दा बनाने की दिशा में अग्रसर हैं। इस बार उनके हाथों विरोधियों को जवाब देने के लिए आयोग के निष्कर्ष एवं उसके पक्ष में दिए गए तथ्य हैं। विरोधी चाहे जो भी दलील दें, नानावती आयोग ने छः वर्ष से ज्यादा के कार्यकाल में आम जनता से 44 ह़जार 275 शपथ पत्र तथा आवेदन पत्र, राज्य सरकार की ओर से दो ह़जार 19 शपथ पत्र लेने के साथ एक ह़जार 16 गवाहों से पूछताछ के बाद रिपोर्ट तैयार किया है। इसकी एक-एक बात को काटने के लिए किसी के पास इतने व्यापक तथ्य और साक्ष्य तो होने ही चाहिए। रेल मंत्रालय द्वारा गठित न्यायमूर्ति यू.सी. बनर्जी समिति ने गोधरा रेलदहन को हादसा करार देने के लिए केवल संभावनाओं और परिस्थितियों को आधार बनाया था। न उसने इतनी गहरी छानबीन की और न इतने गवाहों के बयान ही लिए। गोधरा कांड के बाद भड़के दंगों की भी जांच का प्रभार मिलने के कारण नानावती आयोग का दायरा व्यापक हो गया था, इसलिए वह इतने तथ्य जुटाने एवं गवाहों के बयान लेने में सफल हो सका।
छः साल से ज्यादा समय तक छानबीन करने के बाद अगर जी. टी. नानावती जैसी साख वाले न्यायमूर्ति की अध्यक्षता वाला आयोग यह कहता है कि रेल के कोच एस 6 को 27 दिसम्बर को पूर्व योजनानुसार जलाया गया एवं उसमें मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी या उनकी सरकार के किसी मंत्री या पुलिस अधिकारी का हाथ नहीं था, तो यह हमें भले अपने राजनीतिक विचारों के कारण अरुचिकर लगे, लेकिन इसे स्वीकार करने के अलावा कोई चारा नहीं है। आयोग ने जिस प्रकार घटनाओं का ामवार विवरण दिया है, पहले उस पर ऩजर डालिए-
- रेल के प्लेटफॉर्म पर खड़े रहते समय ही फालिया सिग्नल के निकट के आगे के कोचों पर लोगों ने पथराव आरंभ कर दिया।
- जैसे ही रेल आगे बढ़ने लगी, लोगों ने उसका पीछा करना एवं पत्थर फेंकना आरंभ कर दिया।
- चेन खींचने के कारण रेल ए केबिन के निकट रुक गई।
- भीड़ ने चिल्लाना शुरू किया, मारो, काटो, जला दो एवं हमला शुरू कर दिया।
- इसी बीच कुछ लोगों ने एस 6 कोच को निशाना बनाया एवं सिग्नल की तरफ से इसकी खिड़कियों को तोड़ा।
- उन खिड़कियों से पत्थर, ज्वलनशील द्रवों से भरे पाउच एवं जलते हुए कपड़े के गोले फेंके गए।
- एस 6 से लगे एस 7 कोच के दरवाजे को जबरन खोल कर कुछ ऐसा फेंका गया जिससे आग तेज हो गयी। इसके बाद जो हुआ उसका भयावह परिणाम सबके सामने आ गया। आयोग ने उन लोगों के नाम भी दिए हैं जो कि वाकई उस भयावह कांड के षडयंत्रकारी थे। ये हैं, नन्नूमियां, मौलवी उमरजी, रजक कुरकुर, सलीम ऊर्फ सलीम यूसुफ सत्तार जर्दा, सलीम पानवाला, शौकत लालू, इमरान शेरी, रफीक बटुक, जब्बीर और शिराज बाजा। इसमें बताया गया है कि किस तरह अमन गेस्ट हाउस में ये इकट्ठे होकर कुछ करने की योजना बनाते थे। इसमें जबिर बेहरा, रजक कुरकुर एवं सलीम पानवाला द्वारा स्थानीय पेटोल पंप से 140 लीटर पेटोल खरीदने, उसे विभिन्न डिब्बों में भरकर रिक्शे से लाने आदि के तथ्यात्मक प्रमाण दिए गए हैं।
कोई भी आयोग क्या इतनी सारी मनगढ़ंत बातें लिख सकता है? क्या नानावती एवं उनके दूसरे साथी सेवानिवृत्त न्यायाधीश अक्षय मेहता झूठी कहानी गढ़ कर अपने सम्पूर्ण जीवन की ईमानदारी को एक नरेन्द्र मोदी के लिए गंवा देंगे? निश्र्चय ही ऐसी सोच बेमानी है। क्या सिर्फ इसलिए हम आयोग की रिपोर्ट को खारिज कर दें कि इसमें मोदी को बेदाग बरी कर दिया गया है या यह रिपोर्ट यूसी बनर्जी समिति के निष्कर्षों का खंडन करती है? अगर हां, तो इससे बड़ी अनैतिकता कुछ नहीं हो सकती। न्यायमूर्ति नानावती ने अपने बयान में कहा है कि जब तक मैं संतुष्ट नहीं होता, रिपोर्ट सौंपता ही नहीं। हमने जो कुछ लिखा है उस पर हमें रत्ती भर भी संदेह नहीं है। वे कहते हैं कि पहले पूछताछ फिर जिरह और फिर दूसरों से उसके जवाबों की पुष्टि के बाद ही हम किसी निष्कर्ष पर पहुँचे हैं। 6 मार्च, 2002 से कार्यरत आयोग के पहले सदस्य न्यायमूर्ति के.जी. शाह की मार्च में मृत्यु होने के बाद न्यायमूर्ति मेहता को इसमें शामिल किया गया। पूर्ण आयोग ने छः सालों से ज्यादा समय तक काम किया है। आयोग के अनुसार साबरमती एक्सप्रेस रात में वहॉं से गुजरने वाली थी और ये लोग निश्र्चिंत हो चुके थे कि आराम से उसमें आग लगा देंगे, किंतु वह सुबह गोधरा पहुँची इसलिए षडयंत्रकारियों को अपनी योजना बदलनी पड़ी। इसी के तहत उन्होंने एक लड़की के अपहरण किए जाने का अफवाह उड़ा दिया था ताकि लोग वहॉं जमा हों। किंतु यह भी सोचने वाली बात है कि यदि पूर्व योजना नहीं होती तो कोच जलाई नहीं जाती। लोग लड़की को ढूंढने का प्रयत्न करते।
भारत का दुर्भाग्य यह है कि इतना जघन्य और असाधरण अपराध भी यहॉं वोट बैंक और मजहब की राजनीति का अंग बन गया। 28 फरवरी के स्थानीय अखबारों की रिपोर्ट उठा लीजिए, सबमें लगभग वही बातें हैं जो नानावती आयोग ने कही हैं। वस्तुतः गोधरा की प्रतििाया में भड़का दंगा इतना भयावह हो गया और इस दौरान नृशंसता की इतनी घटनाएं घटीं कि पूरा मामला ही दूसरी दिशा में मुड़ गया। जिस प्रकार दंगों को मोदी एवं संघ परिवार के षडयंत्र का परिणाम घोषित किया गया उसी प्रकार गोधरा को भी उसी का हिस्सा करार दे दिया गया। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति थी। दंगों की प्रतििायात्मक नृशंसता यदि शर्मनाक एवं अमानवीय थी, यदि दंगों के दौरान घटित आगजनी, हत्या, बलात्कार आदि जघन्य अपराध थे तो गोधरा भी उसी श्रेणी का अपराध था। आखिर रेल के डिब्बें में आग लगाकर लोगों को जलने के लिए मजबूर कर देने की यह पहली घटना थी। हमारे देश में वोट बैंक की लिप्सा को विचारधारा का आवरण देने के कारण राजनीतिक विभाजन इतना तीखा और अनैतिक हो चुका है कि इसमें अपने नजरिए से अप्रिय या राजनीतिक तौर पर नुकसान पहुँचाने वाली सच्चाई को स्वीकारने की संभावना ही निःशेष हो गई है। ऐसा नहीं होता तो गोधरा कांड एवं दंगों दोनों की वास्तविकता तक जाने की ईमानदार कोशिश होती। ऐसा करने से सामाजिक सद्भाव के लिए भी रास्ता निकलता। सारी भंगिमाएं इसके विपरीत हैं। हालांकि विरोधी यह भूल रहे हैं कि अपने इसी रवैये से इन्होंने नरेन्द्र मोदी को गुजरात में तो इतना मजबूत किया ही है, देश में भी बड़े वर्ग के बीच उनकी लोकप्रियता बढ़ा दी है। जो है नहीं यदि उसे आधार बनाकर आप हमला करेंगे तो स्थानीय जनता में उसकी विपरीत प्रतििाया होगी। यही हो रहा है। नानावती रिपोर्ट ने मोदी एवं भाजपा को फिर ऐसा हथियार दे दिया है जिससे ये हमलावर एवं विरोधी स्पष्टीकरण एवं बचाव की स्थिति में हैं। इसका राजनीतिक लाभ किसे मिलेगा, यह बिल्कुल साफ है। किंतु राजनीतिक लाभ जिसे भी मिले, खामियाजा देश को ही भुगतना पड़ेगा।
– अवधेश कुमार
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