व्यवस्था के दमनचा में पिसता आम आदमी

श्रीराम मेहरा को मैं पिछले 10 वर्षों से देख रहा हूँ। सुबह अपने बैग में खाने का डिब्बा और कागजों का पुलिंदा लेकर घर से निकलता है। दिनभर पशु अस्पताल में ड्यूटी करता है और बरसों से चल रहे नौकरी में अपने नियमितीकरण संबंधी मुकदमों और निर्णय के कागजात तथा विभिन्न आयोगों और विभागों में इस संबंध में लगाई गई अर्जियों के बारे में चर्चा करता रहता है। उसे यह विश्र्वास होता है कि उसके पक्ष में कोर्ट से आये निर्णय और आयोगों की दखलंदाजी के सहारे वह अब नौकरी में नियमित कर दिया जायेगा। जहॉं तक श्रीराम मेहरा की बात है तो यह मध्य प्रदेश के एक सरकारी विभाग का चतुर्थ वर्ग का अदना-सा कर्मचारी है जो 1985 में बतौर दैनिक वेतनभोगी के रूप में नौकरी में आया था। तब उसे इस बात की पूरी-पूरी संभावना थी कि वह कभी न कभी नियमित कर्मचारी अवश्य बन जायेगा और अपनी जिंदगी चैन से गुजार लेगा। ऐसी संभावनाओं के बीच कभी अंदर कभी बाहर हो उसकी नौकरी के वर्षों गुजर गए, पर श्रीराम मेहरा जस के तस रहे। वर्ष 2003 में मध्य प्रदेश में विधानसभा के चुनाव हुए। प्रदेश में एक महिला नेत्री इन वादों के साथ सत्ता में आई कि प्रदेश के दैनिक वेतनभोगी मजदूर और कर्मचारियों को उनके शासन में पुनः सेवा में लेकर नियमित कर दिया जायेगा। इन नेत्री के वादे पर श्रीराम को पक्का भरोसा था कि कम से कम अब तो वह नियमित हो ही जायेगा। इन नेत्री ने सत्ता में आते ही नियमों की जॉंच-पड़ताल की, लेकिन शीघ्र ही इनकी भी कुर्सी चली गई परंतु श्रीराम जी ज्यों के त्यों रहे। प्रदेश के सत्ताधीश बदलते रहे। श्रीराम जैसे मजदूरों को लगातार दिलासायें दी गईं कि उनकी आशा और अधिकार पूरे किए जायेंगे। अब 2008 के चुनाव आसन्न हैं। परंतु श्रीराम जहॉं के तहॉं हैं, दैनिक वेतनभोगी मजदूर बने हुए हैं। हॉं, उनकी उम्र अवश्य रिटायरमेंट की हो गई है। हालांकि इस बीच उनके पक्ष में न्यायपालिका ने भी निर्णय दिए, परंतु कार्यपालिका की कलम नहीं चली क्योंकि ऑफिस का बाबू उनसे नाराज था। वास्तव में मध्य प्रदेश सहित सारे देश में लाखों श्रीराम मेहरा हैं जिनको सिर्फ वादों के सहारे लूटा जाता है। उनके अधिकार फाइलों में बंद कर दिये जाते हैं। और उनकी तमाम जिंदगी गुजर जाती है, परंतु वो सिर्फ मोहरे बने रहते हैं। अगर हम सरकारी स्तर पर शोषण की बात करें तो यह भी निजी पूंजीपति की तुलना में कहीं से भी कमतर नहीं आंका जा सकता है। अंतर सिर्फ इतना होता है कि निजी क्षेत्र के शोषण को नियमों के उल्लंघन के रूप में देख लिया जाता है तो शासकीय क्षेत्र में शोषण को नियमों से बांध दिया जाता है।

जहॉं तक दैनिक वेतनभोगी मजदूरों की बात है, तो मध्य प्रदेश के वर्ष 2003 के विधानसभा चुनावों में वर्तमान सत्ताधारी पार्टी ने इस मुद्दे को अच्छी तरह से भंजाया था। और उसके सत्तारुढ़ होने में यह भी कहीं न कहीं सहयोगी कारक रहा है। सत्तारूढ़ होने के बाद कायदे से सरकार को सभी दैनिक वेतनभोगियों को सेवा में लेकर नियमित कर देना था, परंतु ऐसा नहीं किया गया। सारे नियम तलाशे गये, पूरी कोशिश की गई कि ज्यादा से ज्यादा मजदूर इस दायरे से बाहर रहें और इस तरह की तमाम प्रिायायें अब भी जारी हैं। हजारों श्रीराम मेहराओं को अब भी सरकार का वादा पूरा करने का इंतजार है। वास्तव में दैनिक वेतनभोगियों की भी बड़ी विचित्र कथा है। विभाग में जब ़जरूरत होती है तब इनकी नियुक्ति की जाती है परंतु नियमित करने की बात पर कह दिया जाता है कि विभाग में पद ही नहीं है, फिर इनको विभाग में कैसे रखा जाये। कहीं-कहीं इनकी सेवायें लगातार 89 दिन तक ली जाती हैं। उसके बाद दो-चार दिन की छुट्टी कर पुनः सेवा में रख लिया जाता है। कारण बताया जाता है कि 89 दिन की सेवा में व्यक्ति नियमितीकरण का हकदार नहीं होता है परंतु इससे ज्यादा में वह नियमित हो सकता है। यह बात समझ से परे है कि क्या 89 दिन में उसका अनुभव कम रहता है और 90 दिन हो जाने पर वह अनुभवी और हकदार हो जाते हैं या फिर 89 दिन के बाद तीन-चार दिनों के अंतराल से उसका अनुभव और अधिकार खत्म हो जाता है। ये बड़ी विचित्र विडम्बनायें हैं। वर्तमान में ये दैनिक वेतनभोगी सिर्फ चतुर्थ श्रेणी के पदों पर काम नहीं कर रहे हैं वरन् कम्प्यूटर ऑपरेटर से लेकर क्लर्क, एकाउंटेंट, शिक्षक, लायब्रेरियन और महाविद्यालय और विश्र्वविद्यालयों में शिक्षण संवर्ग पदों पर भी कार्यरत हैं, हालॉंकि इनके नाम ़जरूर बदले हैं परन्तु इन उच्चशिक्षितों की सेवा शर्तें और इंतजार भी वही हैं। ये सब इसी आशा में अपनी जिंदगी गुजार रहे हैं कि कभी तो वो नियमित होंगे, कभी तो उनकी योग्यताओं का पूरा-पूरा उपयोग होगा और मूल्य मिलेगा, परंतु यह सब मृगतृष्णा ही ज्यादा प्रतीत हो रहा है। वास्तव में सारे मानव श्रम प्रबंधन शोधकर्ता इस बात से सहमत हैं कि आदमी की योग्यता एवं कार्यक्षमता अनुभव के साथ बढ़ती जाती है। परंतु इस जिंदगी भर के दैनिक वेतनभोगी को घन्टों के हिसाब से कार्य कराने के ाम ने आदमी की योग्यता और अनुभव को नकारा है। उसे हमेशा इस अंदेशे ने अधकचरा कर दिया है कि उसका कल क्या होगा? इसी उधेड़बुन में वह अपने ज्ञान व क्षमता का पूरा उपयोग नहीं कर पाता है और न ही उसे इसके लिए छूट मिल पाती है क्योंकि वह निरीह है। अब मध्य प्रदेश में फिर चुनावी रण सज रहा है, हो सकता है राजनीतिक दल संवेदनाओं का पिटारा लेकर फिर इनके सामने आयें और सब्जबाग दिखाकर वोट झटक लें। ये चुनावी लटके-झटके चलते रहते हैं। परंतु अब दैनिक वेतनभोगियों या इस तरह के समान संवर्गों को उचित विस्थापन और स्थापना हेतु स्थाई नीति बनना चाहिये। जिसमें आदमी की शैक्षणिक योग्यता और अनुभव के हिसाब से उसे सेवा में नियमित किया जाये। उसे हर वर्ष या 89 दिन बाद शून्य पर खड़ा नहीं कर देना चाहिए। बढ़ता अनुभव उसकी सेवाओं के स्थायीकरण का मापदंड होना चाहिए। वास्तव में यह प्राकृतिक अधिकार तो है ही, साथ ही यह मूल अधिकार भी होना चाहिए।

– डॉ. सुनील शर्मा

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