जयप्रकाश नारायण जब एक अंग्रेजी स्कूल में पढ़ते थे तब पूर्व परिचित अध्यापक पिटमोर, जिन्होंने उन्हें पढ़ाया था, इस स्कूल के हेडमास्टर बनकर आए। पूर्व से ही वे जयप्रकाश की पढ़ाई और योग्यता के कारण उनको अच्छा विद्यार्थी मानते थे, क्योंकि उन्होंने पढ़ाई के साथ-साथ चरित्र गठन की ओर भी ध्यान दिया था। वे बहुत भले और अच्छे अध्यापक थे। विद्यार्थियों के प्रति बड़ा प्रेम रखते थे। फिर भी अनुशासन में कड़े होने में विश्र्वास रखते थे। पिटमोर का अपना विचार था कि विद्यार्थी को अपनी पढ़ाई के अलावा दूसरी किसी बात में दिलचस्पी नहीं रखनी चाहिए।
उन दिनों देश में राष्टीय-भावना की हवा फैल रही थी। विद्यार्थियों पर इसका प्रभाव पड़े, यह असंभव नहीं था। एक बार लोकमान्य तिलक पटना से गुजर रहे थे। जयप्रकाश और उनके कुछ साथी स्कूल से भागकर उन्हें देखने स्टेशन पहुंचे थे। पिटमोर को इस बात का पता लगा।
उस समय तो पिटमोर साहब इस बात को पी गए। बाद में एक त्योहार के दिन ही स्कूल में परीक्षा रखी गई। जयप्रकाश और उनके 5 मित्र श्रेष्ठ विद्यार्थी माने जाते थे। उन 6 ने मिलकर उस परीक्षा का बहिष्कार किया। दूसरे दिन पिटमोर साहब ने इन सबको बुलाया। प्रेमपूर्वक बातें कीं, लेकिन बाद में कहा कि आप लोगों ने अनुशासन भंग किया है, इसलिए आप लोगों को सजा तो दी ही जानी चाहिए और जयप्रकाश नारायण एवं उनके साथियों ने हंसते-हंसते बेतों की सजा भुगती। मन में थोड़ी भी कटुता न रखते हुए इस घटना को याद करके बाद में एक बार जयप्रकाश ने कहा था, “”हमें बेंत से पिटना पड़ा, मन पर इसकी बड़ी ग्लानि बनी रही। क्योंकि बहुत अच्छे विद्यार्थी के नाते पिटमोरजी के मन में हमारे लिये बड़ा सम्मान था। शायद हमारी राष्टीय-भावना के प्रति भी उनके मन में आदर था, लेकिन कर्त्तव्य पालन की दृष्टि से विवश होकर उन्हें हमें सजा देनी पड़ी थी।”
देश में असहयोग आंदोलन के लिये कॉलेज के कई छात्रों ने अपनी पढ़ाई और वकीलों ने वकालत छोड़ दी थी। जयप्रकाश जी ने भी कॉलेज छोड़ दिया और स्वतंत्रता आन्दोलन में शामिल होकर खादी के कपड़े पहनने लगे। उस समय उन्होंने तय कर लिया था कि वे गुलामों की शिक्षा कभी स्वीकार नहीं करेंगे। वे एक ऐसी मिट्टी के बने थे कि जो तय कर लेते उसे पूरा ही करते थे। इसी कारण अंग्रेज सरकार द्वारा संचालित या उसकी सहायता से चलने वाली शिक्षा संस्थाओं में उन्होंने पढ़ना पसंद ही नहीं किया।
यहां तक कि काशी के हिन्दू विश्र्वविद्यालय में भी उन्होंने पढ़ना स्वीकार नहीं किया, क्योंकि अंग्रेज सरकार उसको अनुदान देती थी। गुजरात की तरह बिहार में भी राष्टीय विद्यालय और विद्यापीठ की स्थापना हुई और फिर उसमें आप कुछ समय के लिये रहे और पढ़े।
पढ़ाई के दौरान स्वतंत्रता आन्दोलन का कोई काम सामने न था। एक प्रकार से वह बन्द ही हो गया था। इस कारण उनके मन में उच्च शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा हुई। देश में पढ़ाई के लिये अनुकूल वातावरण न होने के कारण वे विदेश पढ़ने गए।
उसी समय पटना में स्वामी सत्यदेव परिब्राजक का आना और उनके भाषणों का आयोजन हुआ। उससे जयप्रकाश काफी प्रभावित हुए और फिर अमेरिका में जाकर खेतों, कारखानों आदि में काम करते-करते पढ़ाई पूरी की। यह सब प्रेरणा स्वामी जी की पुस्तकों और उनके भाषणों द्वारा जागी, जिसके कारण कमाओ और पढ़ो वाली बात सिद्घ हुई।
अमेरिका में अध्ययन काल में जयप्रकाश नारायण ने एक कारखाने में फलों की पैकिंग का काम किया, गैरेज में मैकेनिक बनकर रहे, लोशन बेचे और लोगों को पढ़ाने का काम भी किया, ताकि पढ़ाई का खर्चा इस आय से निकाल सकें। अमेरिका में वे 8 सालों तक रहे। वहां के कम्युनिस्टों के सम्पर्क में आकर उन पर समाजवादी विचारों का प्रभाव पड़ा। भारत आने पर उनको बनारस विश्र्वविद्यालय में समाजशास्त्र पढ़ाने का प्रस्ताव आया, किन्तु पं. जवाहरलाल नेहरू के कहने पर उन्होंने कांग्रेस पार्टी के श्रमिक संगठन का दायित्व सम्भाला।
जयप्रकाश नारायण मात्र राजनीतिक दृष्टि से देश को आजाद नहीं देखना चाहते थे, बल्कि देश के लोगों को भूख, गरीबी और चिंता से आजाद कराना चाहते थे।
जयप्रकाश नारायण की पत्नी प्रभावती, गांधी जी के विचारों की प्रबल समर्थक थीं और जयप्रकाश उनका सम्मान करते थे। उन्होंने कभी भी प्रभावती के ऊपर अपने विचार नहीं थोपे। 1929 में प्रभावती और जयप्रकाश नारायण ने कांग्रेस छोड़ दी। बाद में पं. नेहरू के बहुत आग्रह पर वे दोबारा कांग्रेस में शामिल हुए।
1930 में गांधी जी के असहयोग आन्दोलन में समाजवादी होने के बावजूद जयप्रकाश शामिल हुए। उन्हें तब आश्र्चर्य हुआ कि भारत की कम्युनिस्ट पार्टी गांधी जी के इस आन्दोलन को बुर्जुआ आभिजात्य वर्ग का आन्दोलन कहकर निंदा करती थी। जयप्रकाश ने इस आंदोलन में शामिल हो कर गिरफ्तारी दी। उन्हें नासिक जेल में रखा गया। जहां वे मीनू मसानी, अच्युत पटवर्धन, राममनोहर लोहिया, अशोक मेहता के सम्पर्क में आए। इसके बाद जयप्रकाश ने आचार्य नरेन्द्र देव के साथ मिलकर कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया, जिसमें स्वयं सचिव बने।
भारत में समाजवादी विचारधारा को फैलाने में जयप्रकाश नारायण का भारी योगदान रहा है। 1940 की फरवरी में द्वितीय विश्र्व युद्घ के समय जयप्रकाश नारायण को भारत विभाजन के खिलाफ बोलने के कारण गिरफ्तार कर लिया गया था। जयप्रकाश को जिंदा या मुर्दा पकड़वाने पर 10 हजार का इनाम रखा गया। उस दौरान जयप्रकाश नेपाल चले गए। नेपाल में जब उनकी गिरफ्तारी की चर्चा चल रही थी तो उस दौरान वह राममनोहर लोहिया के साथ बिहार चले आए। 1942 में जयप्रकाश जब खान अब्दुल गफार खान से मिलने रावलपिंडी जा रहे थे, उस दौरान पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया था। 6 माह तक जेल में रखकर उन्हें कठोर यातनाएं दी गईं। 12 अप्रैल, 1946 को वह जेल से रिहा हुए। देश को आखिर आजादी मिली। 1952 के चुनावों में समाजवादी पार्टी की हार हुई, नेहरू ने उनसे कैबिनेट में शामिल होने का आग्रह किया, जिसे जयप्रकाश ने ठुकरा दिया।
19 अप्रैल, 1954 की एक सभा में उन्होंने घोषणा की कि वह अपना सारा जीवन अब विनोबा भावे के सर्वोदय आन्दोलन को दान कर रहे हैं। हजारी बाग में एक आश्रम स्थापित किया। वहां के गरीब ग्रामीणों को आधुनिक तकनीक से विकसित करने का प्रयास किया। 1972 में चम्बल घाटी के डकैतों को आत्म समर्पण के लिए प्रेरित किया। 8 अप्रैल, 1973 को 72 वर्ष की आयु में उन्होंने पटना में मौन जुलूस निकाला। उस दौरान गुजरात के युवाओं के आन्दोलन को अपना नेतृत्व प्रदान कर सम्पूर्ण ाांति के रूप में आंदोलन किया। 1975 में आपातकाल के दौरान इन्दिरा गांधी ने उन्हें जेल में डाल दिया। जेल में अस्वस्थता के चलते उनकी किडनी खराब हो गई थी और 8 अक्टूबर, 1979 को उनका देहावसान हो गया।
-राजेंद्र श्रीवास्तव
You must be logged in to post a comment Login