“उत्तरी भारत के सोमनाथ’ के नाम से विख्यात भोजपुर के प्रसिद्घ शिव मंदिर में जहॉं भारत का सबसे विशाल शिवलिंग प्रतिष्ठित है, वहीं यह परमार वंश के इतिहास प्रसिद्घ प्रतापी शासक राजा भोज के वास्तुकला प्रेम का एक अद्वितीय नमूना भी है, इसीलिए मध्यप्रदेश की राजधानी भोपाल से 29 किलोमीटर दक्षिण-पूर्व में स्थित यह शिव मंदिर लाखों धर्म-प्रेमियों की श्रद्घा का केंद्र है। प्रतिवर्ष महाशिवरात्रि एवं मकर-संाांति पर हजारों नर-नारी पहुँच कर यहॉं प्रतिष्ठित विशालकाय शिवलिंग के दर्शन करते हैं तथा पूजा-अर्चना एवं आराधना करते हैं।
भोजपुर नामक ग्राम, जहॉं यह विख्यात शिव मंदिर है, राजा भोज द्वारा बसाया गया था। इसी ग्राम में स्थित एक जैन-मंदिर में प्रतिष्ठित तीर्थंकर प्रतिमा में उत्कीर्ण अभिलेख से इस तथ्य का पता चलता है। भोजपुर के इस शिव-मंदिर की स्थापना के विषय में दो जनश्रुतियां प्रचलित हैं। इनमें से पहली जनश्रुति का उल्लेख सुप्रसिद्घ इतिहासकार डी.सी. गांगुली ने किया है। उनके मतानुसार राजा भोज एक बार असाध्य रोग (कुष्ठ रोग) से पीड़ित हो गया था। उसे यह परामर्श दिया गया कि यदि वह ऐसे तालाब में, जहॉं सौ जलधाराएँ मिलती हों, स्नान करके भगवान शिव की पूजा करे, तो उसका कुष्ठ रोग दूर हो सकता है। इसी परामर्श के फलस्वरूप राजा भोज ने एक विशाल ताल का निर्माण कराया, जिसके बांध के अवशेष आज भी भोजपुर में हैं तथा भोपाल का प्रसिद्घ ताल भी इस विशाल ताल का ही बचा-खुचा रूप है। इसी तालाब के तट पर राजा भोज ने इस शिव-मंदिर का निर्माण किया था।
दूसरी मान्यता यह है कि गुजरात में स्थित सोमनाथ के शिव, परमार वंश के आराध्य देव थे। शिव-मंदिरों को महमूद गजनवी द्वारा ध्वस्त किए जाने की पीड़ा को दूर करने के लिए भोज ने इस मंदिर का निर्माण कराया था। इस मान्यता की पुष्टि में दो प्रमाण मिलते हैं- एक तो सन् 1008 एवं 1009 ई. में जब महमूद गजनवी ने भारत पर आामण किया था, तो राजा भोज ने राजा आनंदपाल को सैनिक सहायता भेजी थी। आनंदपाल के बाद उसके पुत्र त्रिलोचनपाल ने महमूद गजनवी का मुकाबला किया तब भी राजा भोज ने उसे सहायता दी थी। बाद में त्रिलोचनपाल को राजा भोज ने अपने यहॉं शरण भी दी थी। दूसरा प्रमाण यह है कि परमार शासक प्रारंभ से ही शिवभक्त रहे हैं। उनके बनाये अनेक मंदिर मालवा, गुजरात एवं अन्य स्थानों पर मिलते हैं। विदिशा जिले का प्रसिद्घ नीलकंठेश्र्वर मंदिर भी एक परमार शासक उदयादित्य का बनाया हुआ है।
सन् 812 ई. से 1234 ई. तक मालवा तथा समीपवर्ती क्षेत्रों पर शासन करने वाले परमार वंश के शासकों की कीर्ति-कथाओं से भारतीय इतिहास एवं प्राचीन साहित्य भरा पड़ा है।
राजा भोज इसी परमार वंश के थे तथा उन्हें जितनी कीर्ति, ख्याति एवं जनप्रियता मिली, उतनी परमार वंश के किसी भी शासक को नहीं मिली। विामादित्य के समान वह देश के अधिकांश भागों में प्रचलित लोककथाओं एवं जनश्रुतियों के नायक बने। उनकी कीर्ति को बढ़ाने वाली कई कहावतें तो आज भी प्रचलित हैं।
राजा भोज के बारे में इतिहास में जो उल्लेख मिलता है, उसके अनुसार वे विद्वान, विद्याव्यसनी, अनेक कलाओं के ज्ञाता तो थे ही, वे वीर और युद्घप्रिय भी थे। राजा भोज कवि थे तथा उन्होंने स्वयं 23 ग्रंथों की रचना की थी। इसके अतिरिक्त वे खगोल शास्त्र, भूगर्भशास्त्र, वास्तु एवं भवन निर्माण कला, आयुर्वेद एवं व्याकरण के भी ज्ञाता थे। उन्होंने अपने दरबार में कई विद्वानों को आश्रय दिया हुआ था। विद्याप्रेमी होने का प्रमाण हमें धार की उस भोजशाला से आज भी मिलता है, जिसका निर्माण उन्होंने धार में विश्र्वविद्यालय के रूप में किया था। इस भोजशाला में मिली सरस्वती की एक मनोहारी प्रतिमा इस समय लंदन के संग्रहालय में है, जो राजा भोज के सरस्वती-भक्त होने का साक्षात् प्रमाण है।
राजा भोज की वीरता और विजय के उल्लेखों से भारतीय इतिहास भरा पड़ा है। सन् 1000 ईस्वी में सिंहासनारूढ़ होने के तत्काल बाद राजा भोज ने अपने चाचा मुंज (जो इतिहास में वाक्पति मुंज उत्पल, पृथ्वीवल्लभ एवं अमोघ वर्ष के नाम से प्रसिद्घ हुए) की मृत्यु का बदला लेने के लिए चालुक्य-शासकों पर आामण किया। उन्होंने चालुक्य नरेश तैलय को पराजित किया। “भोज-चरित’ नामक ग्रंथ में इस युद्घ का विस्तृत विवरण मिलता है। भोज ने उड़ीसा में महानदी के तट पर बसे आदि नगर के राजा इन्द्रप्रस्थ को, कोंकण नरेश कीर्तिराज को, त्रिपुरा के कलचुरि शासक गांगेय देव को तथा शाकंभरी के राजा वीर्यराज आदि को भी पराजित किया। गुजरात नरेश चामुंडराज जब तीर्थयात्रा के लिए मालवा से गुजरा, तो उसका भी राजा भोज से संघर्ष हुआ। इसके प्रत्युत्तर में चामुंडराज के उत्तराधिकारी भीम प्रथम ने आबू प्रदेश पर आामण करके उस क्षेत्र पर अपना अधिकार कर लिया। उन दिनों आबू प्रदेश का शासक भोज का सहयोगी तथा परमार वंशीय धुन्धुक था। राजा भोज ने इसका उत्तर देने के लिए गुजरात पर आामण किया।
राजा भोज के राज्य की सीमाएँ उस समय चित्तौड़, बांसवाड़ा, डूंगरपुर, खानदेश, कोंकण, गोदावरी तथा चित्रकूट तक विस्तृत थीं। थानेश्र्वर तथा नागरकोट आदि को विदेशी, आाांताओं से मुक्त कराने के लिए लड़े गये युद्घों में राजा भोज के भाग लेने का उल्लेख मिलता है।
अधूरा मंदिर
इस तरह वीरता तथा विद्वता के माध्यम से रणचंडी और सरस्वती दोनों के ही कृपापात्र राजा भोज ने शिव के प्रति अपनी भक्ति प्रदर्शित करने के लिए भोजपुर में विशाल शिव मंदिर का निर्माण कराया, पर यह मंदिर आज भी अधूरा है। मंदिर का निर्माण पूरा क्यों नहीं हो सका, इस बारे में कोई विवरण उपलब्ध नहीं है। मंदिर की गुम्बद भी अपूर्ण है।
इस विशाल मंदिर की छत चालीस-चालीस फुट ऊँचे विशाल स्तंभों पर टिकी हुई है। ये विशाल स्तंभ तीन खंडों में विभक्त हैं। इनमें से एक खंड अष्टमुखी है। स्तंभों के कुछ भागों पर कलाकृतियां एवं प्रतिमाएं जड़ी गई हैं। कुछ स्थान रिक्त हैं, जिन्हें देखकर ऐसा लगता है कि उसमें भी मूर्तियॉं जड़ने की योजना रही होगी।
मंदिर का प्रवेश-द्वार साधारण एवं छोटा होते हुए भी विशेषता लिए हुए है। द्वार पर दो प्रतिमाएँ उत्कीर्ण हैं। इन प्रतिमाओं की मुखाकृति असाधारण है। देश के किसी अन्य मंदिर के द्वार पर ऐसी प्रतिमाएं नहीं मिलती हैं। प्रतिमाओं के नीचे नंदी उत्कीर्ण है, जिससे यह अनुमान लगाया जा सकता है, यह प्रतिमाएँ शिव के ही किसी स्वरूप को प्रकट करती हैं। मंदिर के तीनों ओर छज्जे हैं, जो छोटे-छोटे स्तंभों पर टिके हुए हैं।
इस मंदिर के बीचोंबीच एक वर्गाकार और विशाल चबूतरे पर बनी विशाल जलहरी में यह शिवलिंग प्रतिष्ठित है, जिसे भारत का सर्वाधिक विशाल शिवलिंग कहा जाता है। इस मंदिर की जलहरी भी असाधारण आकार की तथा तीन खंडों में है। इस जलहरी का पहला भाग कमल के पुष्प के समान है। इसके ऊपर एक स्तंभ है, जिस पर जलहरी का ऊपरी भाग प्रतिष्ठित है। ऊपरी भाग भी कमलवत् है तथा यह तीनों भाग एक साथ देखने पर कमल के फूल की तरह दिखाई पड़ते हैं। इस जलहरी में प्रतिष्ठित शिवलिंग बहुत ही सुंदर एवं कलात्मक है, जो कांच की तरह चमकता है। शिवलिंग जिस चबूतरे पर प्रतिष्ठित है, वह वर्गाकार है तथा उसकी एक ओर से लंबाई लगभग 22 फीट है। यह चबूतरा बलुआ पत्थर से निर्मित है। शिवलिंग की इस विशालता के कारण श्रद्घालुजन उसका अभिषेक नसेनी (सीढ़ी) की सहायता से ही कर पाते हैं। मंदिर के बाहर बड़ी-बड़ी चट्टानों का फर्श है, पर इस विशाल मंदिर के बाहर न तो कोई प्रवेश-मंडप है और न ही सभा-मंडप। केवल मंदिर में गर्भगृह ही है। मंदिर के पिछले भाग में एक कच्चा रास्ता बना हुआ है। यह रास्ता ढलानपूर्ण है तथा इसका उपयोग भारी कलाकृतियों और स्तंभों को लाने के लिए किया गया था। इस रास्ते के ज्यों के त्यों बने रहने तथा गुम्बद के अधूरे होने से यह अनुमान लगाया जाता है कि राजा भोज ने इस मंदिर के निर्माण की जो परिकल्पना की थी, उसे वे पूरा नहीं कर पाये।
मंदिर के पिछले हिस्से में कुछ चट्टानों पर इस मंदिर से संबंधित मानचित्र उकेरे गये हैं। इसी प्रकार मंदिर के चारों ओर कुछ अपूर्ण कलाकृतियां आज भी बिखरी पड़ी हैं, जिनसे यह भासित होता है कि मंदिर को सुंदर बनाने के लिए स्तंभों तथा अन्य स्थानों पर लगाई जाने वाली कलाकृतियों को कई बार बनाया गया था।
विशाल ताल
भोजपुर के पश्र्चिम में उस विशाल ताल के अवशेष हैं, जिसके कारण “ताल तो भोपाल ताल’ की कहावत प्रचलित हुई। जिस समय भोपाल का यह विशाल ताल अपनी संपूर्णता के साथ अस्तित्व में था, तब यह संभवतः भारत का सर्वाधिक विशाल सरोवर रहा होगा। इस तालाब के निर्माण में भी राजा भोज ने अपनी वास्तु-कला के ज्ञान का परिचय दिया है। तालाब के निर्माण के लिए बंधान के स्थान का चयन बहुत ही बुद्घिमानी और चतुराई के साथ किया गया था। इस क्षेत्र में स्थित पहाड़ियों में दो स्थान ऐसे थे, जहॉं से पानी निकलता था। इन स्थानों पर बांध बनाने से इस विशाल तालाब का निर्माण हुआ था। इनमें से एक स्थान सौ गज चौड़ा तथा दूसरा पॉंच सौ गज चौड़ा था। इन दोनों ही स्थानों को विशाल पत्थरों एवं मिट्टी की सहायता से पाट कर बांध बनाये गये। बड़ा बांध 40 फीट ऊँचा तथा 200 फीट चौड़ा बनाया गया। छोटा बांध 22 फीट ऊंचा तथा 90 फीट चौड़ा बनाया गया। इन दोनों बांधों के निर्माण से उस विशाल तालाब का निर्माण हुआ, जो लगभग साढ़े छः सौ वर्गमील तक फैला हुआ था। इसी तालाब के पास से बेतवा नदी आज भी बहती है।
मालवा के शासक होशंगशाह (सन् 1405-34) ने इस तालाब के छोटे बांध को तोड़ दिया, जिससे यह विशाल तालाब समाप्त हो गया। तालाब में इतना पानी था कि उसे निकलने में तीन महीने लगे। तालाब से खाली हुई जमीन में इतनी दलदल थी कि वहां लोगों को बसने तथा खेती करने के लिए दलदल सूखने की तीस बरस तक प्रतीक्षा करनी पड़ी। इस तालाब का बचा-खुचा कुछ भाग आज भी है, जिसके किनारे मध्य-प्रदेश की राजधानी भोपाल बसी हुई है। भोजपुर में विशाल तालाब तो अब नहीं है, पर विशाल शिवलिंग आज भी है, जिसके दर्शन के लिए हजारों नर-नारी पहुँचते हैं।
– दिनेशचंद्र वर्मा
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