पत्रिका : पुष्पक – 9
संपादक : डॉ. अहिल्या मिश्र
प्रकाशक : कादम्बनी क्लब, हैदराबाद
मूल्य : 150 रुपये मात्र।
कादम्बनी क्लब हैदराबाद की साहित्यिक यात्रा का दसवॉं उद्घोष बन कर “पुष्पक-9′ पाठकों के हाथों में आया है। कादम्बनी क्लब हैदराबाद-सिकंदराबाद की हिन्दी भाषा और साहित्य के संदर्भ में एक सर्वमान्य प्रतिनिधि संस्था है। इसने न सिर्फ नगरद्वय के श्रेष्ठ हिन्दी कवियों-साहित्यकारों को अपने साथ जोड़ा है, बल्कि यह नवोदित रचनाकारों के लिए प्रेरणास्रोत भी बनी हुई है। इसकी नियमित मासिक गोष्ठियों में साहित्य की विभिन्न विधाओं पर परिचर्चा आयोजित होती है और कविता-पाठ भी होता है। समय-समय पर बाहर से आये विद्वानों के सम्मान में वह संगोष्ठियॉं भी आयोजित करती है। इसके अतिरिक्त, अपनी प्रत्येक मासिक गोष्ठी में नवोदितों के उत्साहवर्धन के लिए वह किसी न किसी प्रमुख विचारक और साहित्यकार को आमंत्रित करती रहती है। संस्था का यह ाम अनवरत चल रहा है। इसी ाम में वर्ष में एक बार “पुष्पक’ नाम की एक पत्रिका का प्रकाशन भी होता है। इसमें नगर-द्वय के रचनाकारों को प्रमुखता देते हुए, बाहर के कतिपय श्रेष्ठ रचनाकारों को भी सम्मानपूर्वक प्रकाशित किया जाता है। रचनाओं के प्रकाशन और संपादन में इस बात का ध्यान अवश्य रखा जाता है कि साहित्य की अधिक से अधिक विधाओं का इसमें समावेश किया जा सके।
“पुष्पक-9′ संपादिका डॉ. अहिल्या मिश्र की इसी संकल्पित समावेश का परिणाम है। इस दृष्टि का मूल्यांकन स्पष्टतः उनके संपादकीय से किया जा सकता है, जिसमें उन्होंने साहित्य के वास्तविक मर्म को उद्घाटित किया है। उनका कहना है कि “साहित्य लेखन सुपाच्य एवं सापेक्ष हो। मनुष्य को मनुष्यत्व की भाषा सीखने के लिए मानसिक भोजन तैयार करें- यह अत्यावश्यक हो गया है। इसी विचार ने बार-बार उद्वेलित किया है। आज के साहित्यकार शास्त्रीय विवेचना को ध्यान में रख कर साहित्य की रचना में लीन हों और उत्तमोत्तम साहित्य लिखें- यही लक्ष्य मेरे सामने है।’ कहना न होगा कि डॉ. अहिल्या मिश्र ने अपने लक्ष्य को सामने रख कर न सिर्फ श्रेष्ठ और ख्यातिनाम रचनाकारों की रचानओं का समावेश कादम्बनी-क्लब की इस वार्षिक पत्रिका में किया है, अपितु नवोदितों को भी प्रोत्साहित करने का काम किया है। पत्रिका के आकार-प्रकार को दृष्टि में रखते हुए उन्होंने अधिक से अधिक विधाओं को स्थान दिया है। इसमें कहानी, लघुकथा, कविता- जिसमें गीत और ग़जल भी शामिल है, आलेख, निबंध संस्मरण, समीक्षा, रिपोर्ट और कादम्बनी क्लब की गतिविधियों से संबंधित समाचार और चित्रावली के साथ ही “पुष्पक’ के पिछले अंकों पर पाठकों के पत्र भी प्रकाशित किये गये हैं। इस दृष्टि से संपादिका और उसके संपादक मंडल के सदस्यों ने प्रशंसनीय प्रयास किया है।
पत्रिका में पहली कहानी “टेमी पावैइन’ स्वयं संपादिका डॉ. अहिल्या मिश्र की है। वे स्व़यं एक उत्कृष्ट महिला कहानीकार हैं। इस कहानी में उनका भावुक नारी मन अपनी संपूर्णता के साथ अभिव्यंजित हुआ है। साथ ही कहानी में लोक-जीवन और उसकी परंपराओं से कट जाने की एक पीड़ा का भी एहसास है। लेखिका की सफलता इस बात में है कि उसने अपनी भावप्रवणता को कहानी के केन्द्र में रख कर शिल्पगत कमजोरी को उभरने नहीं दिया है। भाषा में मैथिली की छौंक ने उसे जायकेदार बना दिया है। डॉ. राजेन्द्र मिलन की कहानी “सतीत्व जूठा नहीं होगा’ कहानी न होकर अगर लघुकथा होती तो उसकी संप्रेषणीयता के नुकीलेपन में अधिक तीखापन होता। उन्होंने गरीबी और सतीत्व को समानांतर रख कर जो कहना चाहा है, उसके लिए उन्हें अपने कथ्य को कुछ और कसावट देने की ़जरूरत थी। राजमोहन सिंह “राघव’ अपनी कहानी “विशेषाधिकार’ के जरिये कहना क्या चाहते हैं, यह स्पष्ट नहीं होता। गोवर्धन यादव “घोंसले अपने-अपने, आसमान अपने-अपने’ में वर्तमान समय के पीढ़ीगत द्वन्द्व को उभारने में सफल हुए हैं। उनकी भाषा को कहानी की भाषा कहा जा सकता है। शांति अग्रवाल की कहानी “नया सवेरा’ एक आदर्शवादी कहानी है, जिसमें बदलती सामाजिक सोच को केन्द्र में रखा गया है।
लक्ष्मीनारायण अग्रवाल ने पत्र शैली में जिन लघुकथाओं को प्रस्तुत किया है, वे लघुकथा के विन्यास पर खरी उतरती हों या न उतरती हों, श्रेष्ठ व्यंग्य की परिभाषा में ़जरूर आती हैं। विनोदिनी गोयनका की लघुकथा “शांताक्लॉज’ एक चुस्त रचना है और अपना प्रभाव भी छोड़ती है, लेकिन लेखिका ने भाषा के स्तर पर इसे कुछ बोझिल बना दिया है। इसकी शैली वर्णनात्मक न होकर प्रतीकात्मक होती तो कथ्य अधिक धारदार हो गया होता। पवित्रा अग्रवाल की लघुकथा “स्टेटस’ एक श्रेष्ठ रचना है। इसका एकमात्र कारण है कि लेखिका कहानी और लघुकथा के भेद को भली-भॉंति पहचानती है। सुरेन्द्र मिश्र की लघुकथा “बोझ’ मानवीय संवेदना की निरंतर छीजती स्थितियों को उद्घाटित करती है। इसकी सबसे बड़ी खूबी यह है कि वे जो कहना चाहे हैं, कह गये हैं। राधाकांत भारती ने “हिसके बनली पतिव्रता, मुसल खाये भरतार’ शीर्षक से जो लघुकथा दी है, वह वास्तव में एक उद्घरण मात्र है।
आलेखों की श्रृंखला में डॉ. राधेश्याम बंधु का पहला लेख “आज की बदलती दुनिया में लेखक का दायित्व क्या है?’ विचार के स्तर पर पश्र्चिमी प्रभाव से ग्रस्त हमारे आज के चिन्तन पर सवालिया निशान लगाता है। डॉ. जंगबहादुर पाण्डेय का आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी के ललित निबंधों को केन्द्र में रख कर प्रस्तुत किया गया आलेख विषय की गंभीरता के साथ न्याय करता समझ में आता है। प्रो. शुभदा वांजपे ने “आधुनिक हिन्दी काव्य में पर्यावरण चेतना’ को सही परिप्रेक्ष्य और आयाम में परिभाषित किया है। उनकी शोध-दृष्टि ने विश्र्लेषण को सार्थक भी बनाया है। डॉ. गोरखनाथ तिवारी द्वारा प्रस्तुत आलेख “ग्रामीण जीवन का महाकाव्य : गोदान एक परिशीलन’ “गोदान’ के उस पक्ष को उद्घाटित और समावेशित करता है जिसे महान कथाकार मुंशी प्रेमचन्द ने खंड-खंड टूटते ग्रामीण यथार्थ के रूप में देखा था। डॉ. स्नेहलता प्रसाद का आलेख “विद्यालयी शिक्षा : सवाल नहीं हल के लिए पहल चाहिए’ शिक्षा क्षेत्र में विस्तारित होती विसंगतियों के परिमार्जन की आवश्यकता पर बल देता है। हिन्दी की प्रसिद्घ उपन्यास लेखिका मैत्रेयी पुष्पा के आत्मकथात्मक उपन्यास की समीक्षा के तौर पर जो आलेख अर्पणा दीप्ति ने प्रस्तुत किया है, उसमें नारी-संघर्ष की युगीन गाथा को बड़ी सहजता से विश्लेषित किया गया है। आलखों के इस ाम में सबसे उपयोगी और सही ढंग से विश्लेषित निबंध, डॉ. डी.डी. ओझा का “हिन्दी में बाल विज्ञान लेखन की आवश्यकता’ है। लेखक ने इस कमी को उजागर कर इसे तत्परता के साथ पूरा करने की आवश्यकता पर बल दिया है। “आध्यात्मिक निबंध’ शीर्षक से जो निबंध प्रस्तुत किया गया है, उसमें कितनी आध्यात्मिकता है, समझ में नहीं आती। “पुष्पक’ के संपादक-मंडल ने, ऐसा प्रतीत होता है कि सर्वाधिक जोर पत्रिका के कविता-प्रभाग पर ही दिया है, लेकिन ऐसा कहा जा सकता है कि पत्रिका का सबसे कमजोर पक्ष भी यही है। संकलित कविताओं में ऐसी कविताओं की बहुलता है जिन्हें कविता कहने में भी संकोच होगा। कुछ कवितायें कविता होने की कसौटी पर खरी ़जरूर उतरती हैं लेकिन उनका अभिव्यंजना पक्ष बहुत कम़जोर है। हॉं, रेगिस्तान में नखलिस्तान की तरह कुछ श्रेष्ठ कवितायें भी हैं। अगर संपादक मंडल ने कुछ अतिरिक्त सावधानी बरती होती तो पत्रिका के काव्य पक्ष को काफी ताकतवर बनाया जा सकता था। फिर भी बसंतजीत सिंह हरचन्द, डॉ. अहिल्या मिश्र, डॉ. रमा द्विवेदी, डॉ. जनार्दन यादव और कुमार सौरभ की कवितायें अवश्य प्रभावित करती हैं और नरेन्द्र राय, देवी नागरानी तथा मधुर नज्मी की ग़जलें काफी धारदार हैं। “पुष्पक’ पर एक संपूर्ण दृष्टि डालने के बाद यह निःसंकोच कहा जा सकता है कि यह एक अच्छा प्रयास है, लेकिन कुछ अतिरिक्त मेहनत के साथ इसे सार्थक भी बनाया जा सकता है। संपादक मंडल में इतने सक्षम लोग हैं कि वे इसे संभव बना सकते हैं। अंत में यह कहना ़जरूरी है कि इस पत्रिका का हर नया अंक पुराने से अधिक बेहतर बन कर आ रहा है। इस ामिक विकास को बस एक नई ऊँचाई देने की जरूरत है।
– रामजी सिंह “उदयन’
One Response to "पुष्पक की उड़ान शिखर की ओर"
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