कलाकार – अजय देवगन, संजय दत्त, मनीषा कोइराला, सुमन रंगनाथन, कादर खान
संगीत – इस्माइल दरबार
निर्देशन – अफजल खान
बनने के दस-बारह वर्षों बाद प्रदर्शित होने वाली “महबूबा’ फिल्म के गीतकार हैं आनंद बक्षी। संगीत प्रेमियों को उनके गीतों को पर्दे पर देखने का मजा पुनश्र्च आ सकता है। धीरे-धीरे, हल्के-हल्के गीतों की पंक्तियों पर अवश्य गौर करना चाहिए कि कैसे आनंद बक्षी ने इस गीत को “छिछोरा’ होने से बचाया है।
बरसों पहले बनी इस फिल्म में 10-15 वर्ष पहले की मनीषा तथा संजय दत्त, अजय देवगन को देखना भी सुखदायक अनुभूति है। अब रही फिल्म की बात। आजकल के झटपट अमीर बनने के ख्वाब देखने वाले युवकों की कहानी इसमें नहीं है। माफिया की ा़र्ंिजदगी को भी इसमें चित्रित नहीं किया गया है। यह कहानी है रईस व घमंडी संजय दत्त की। न्यूयॉर्क में रहते हुए एक नृत्य प्रतियोगिता में वह मनीषा को देखता है। बुरे इरादे से वह उसे अपने यहां अच्छी नौकरी देता है।
परंतु मनीषा कोइराला भारतीय संस्कृति में विश्र्वास रखने वाली युवती है। जब उसे अपनी सहेली सुमन रंगनाथन द्वारा संजय दत्त की चाल का पता चलता है, तो वह सबके आगे उसे बुरा-भला सुनाती है, उसकी बेइज्जती करती है। संजय दत्त पछता कर मनीषा के पिता से मनीषा का हाथ मांगता है। नीति-सभ्यता को अहम मानने वाली मनीषा को इस रईस, घमंडी युवक से रिश्ता जोड़ना कतई मान्य नहीं। परंतु पिता के दबाव में वह “हॉं’ कर देती है और दोनों की सगाई हो जाती है।
सगाई के बाद संजय दत्त उससे शारीरिक ऩजदीकी बनाकर अपनी बेइज्जती का बदला लेता है। शर्म की मारी, दुःखी मनीषा अपने देश लौट आती है। वहां चित्रकार अजय देवगन पिछले अनेक वर्षों से अपने सपनों की युवती के चित्र बनाता आ रहा है। उस युवती के, मनीषा कोइराला के रूप में उसे प्रत्यक्ष दर्शन होते हैं। कादर खान की मदद से वह उससे मिलता है, प्यार जताता है। परंतु मनीषा की पिछली ा़र्ंिजंदगी उसे यह प्यार स्वीकार करने नहीं देती और फिर एक फिल्मी मोड़ एवं संजोग से यह स्पष्ट होता है कि अजय देवगन संजय दत्त का छोटा भाई है।
नीति-अनीति की, भाव-भावनाओं की गुत्थी सुलझाते हुए दर्शकों की दिलचस्पी बनाये रखते हुए फिल्म चरम तक पहुँचती है। तीनों कलाकारों का जानदार अभिनय और इस्माइल दरबार के अलग-अलग विधा के गीतों के कारण फिल्म अच्छी लगती है। पुरानी होने पर भी फिल्म का तकनीकी स्तर काफी ऊँचा है। आज के दौर में यह फिल्म देखने काबिल है।
“हैनकॉक'(हिन्दी)
कलाकार : विल स्मिथ, चार्लीज थेरॉन, जेसन बैटमैन
निर्देशक : पीटर बोर्ग
जैकी चैन व जेट ली की फिल्मों में तो नहीं, पर हॉलीवुड में बनी एक्शन फिल्मों में नुकसान ही नुकसान बताया जाता है। विस्फोट, तोड़-फोड़, आग में जलकर राख बनना, गाड़ियों-मोटर साइकलों की भिड़ंत एवं अपराध मानों फिल्मों के एक्शन को रोचक बनाते हैं। अपराधियों को पकड़ने, उनको खत्म करने के लिए इतना सारा नुकसान उनकी दृष्टि में शायद आवश्यक भी रहता हो। परन्तु आम जनता लाखों-करोड़ों के इस नुकसान से संतुष्ट नहीं हो सकती। कम से कम, निर्देशक पीटर बोर्ग की फिल्म “हैनकॉक’ में तो नहीं ही होती। विशेषतया तब, जब एक घटना में शहर को 90 लाख डॉलर का नुकसान पहुँचता है। अपराध को रोकने के लिए सुपर हीरो हैनकॉक (विल स्मिथ) के हाथों होने वाले इस भारी नुकसान को पुलिस को नजरअंदा़ज करना पड़ता है। परन्तु शहर के आम लोगों को यह कतई पसंद नहीं आता। क्योंकि सुपर हीरो हैनकॉक हरदम नशे में रहता है और सब को नीची नजरों से देखता है।
एक बार हैनकॉक एक विख्यात जनसंपर्क विशेषज्ञ जेसन बैटमैन के प्राण बचाता है। जिससे जेसन उसके प्रति कृतज्ञता से भर जाता है और हैनकॉक की बिगड़ी हुई छवि को सुधारने का प्रण करता है। यहॉं से फिल्म अलग ही राह पर चलने लगती है। अलग-अलग दृश्यों में हैनकॉक अपराध को रोकने का प्रयत्न करता है। जेसन की पत्नी चार्लीज थेरॉन भी उसे सुधरने में मदद करती है। इस दौरान हैनकॉक और चार्लीज का आँखों के संकेत से बात करना काबिले गौर है। प्रश्न उठता है क्या रिश्ता है दोनों में? शारीरिक आकर्षण तो नहीं हो सकता! इस उलझन को चार्लीज बड़ी अच्छी तरह से उजागर करती है।
परन्तु फिल्म की कहानी के बारे में क्या कहें? छोटे-मोटे दृश्यों से तो हैनकॉक आसानी से निपट लेता है। परन्तु फिल्म में प्रमुख खलनायक देखने की दर्शकों को ऐसी आदत हो गई है कि इस फिल्म में प्रमुख खलनायक के ना रहने से दर्शक कुछ बेचैन से हो जाते हैं। अपराधियों से निबटने में जो हिंसाचार और नुकसान होता है, उसकी ओर दर्शकों का ध्यान खींचना सराहनीय है। हिन्दी में डब किये संभाषण भी दर्शकों को पसंद आ सकते हैं।
“वॉन्टेड’
कलाकार – जेम्स मॅक अवॉय, मॉर्गन ाीमॅन, एंजेलिना जोली एवं थॉमस
निर्देशक – टिम्बोर बेकमाम्बटोव
हममें से कईयों की तरह रशियन निर्देशक टिम्बोर बेकमाम्बटोव की फिल्म “वॉन्टेड’ का प्रमुख पात्र जेम्स मॅक अवॉय दफ्तर के अपने काम से ऊब गया है। अपनी छोटी-सी जगह में बैठकर अकाउन्टेंट का काम करने से नहीं, बल्कि अपनी महिला बॉस से बार-बार प्रताड़ित होने के कारण। उसे अपनी ा़र्ंिजदगी नीरस लगने लगती है। हममें से कईयों के साथ ऐसा होता है। परंतु जिस प्रकार उसकी ा़र्ंिजदगी में अचानक रोचक मोड़ आता है, वैसा हमारे साथ नहीं होता।
एक दुकान में अचानक जेम्स पर जानलेवा हमला होता है। खूबसूरत एंजेलिना जोली उसे बचाती है और जिस गिरोह के लिए वह काम करती है, उस गिरोह के पास वह जेम्स को ले जाती है। वहां पर जेम्स को पता चलता है कि उसके शरीर में ऐसी एक विलक्षण शक्ति है, जो उसे विश्र्वास और बल देती है। जेम्स को यह भी पता चलता है कि उसके पिता भी इस गिरोह के सदस्य थे और उनके भीतर भी ऐसी ही शक्ति थी। जेम्स को एक और राज का पता चलता है कि उसके पिता की हत्या थॉमस नामक दुष्ट ने की थी।
बस, जेम्स की ़िजंदगी एकदम दिलचस्प बन जाती है। उसमें रोचकता आती है। गिरोह को अब उसकी खूब जरूरत पड़ती है। एक सादे अकाउन्टेंट के जीवन से निकल कर उसका वास्ता भयानक अपराधियों हो जाता है। एंजेलिना जोली के निर्देशन में वह रोमांच और साहस की डगर पर चलने लगता है। इसमें जोखिम बहुत है। कई बार वह बाल-बाल बचता है। निर्देशक ने इन दृश्यों में हास्य निर्माण करने का अच्छा प्रयास किया है।
खलनायक थॉमस पर वह कैसे विजय पाता है, यह जाने-पहचाने फिल्मी ढंग से बतलाया गया है। अचानक फिल्म को धीमी गति से चलाना, पिस्तौल की गोलियों के चलने के क्लोज-अप आदि कुछ हद तक ठीक लगते हैं। लेकिन उन्हें बार-बार बताने से मजा कम हो जाता है। फिल्म की छायाकारी एवं एंजेलिना की रम्य उपस्थिति दर्शकों को पसंद आ सकती है। जेम्स का अभिनय भी मोहित करता है। केवल दो घड़ी मनोरंजन के लिए यह काफी है। फिल्म से और अधिक अपेक्षा ना करना ही अच्छा होगा।
– अनिल एकबोटे
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