एक डॉक्टर से डरी सरकारें

ये गांधी के देश में कैसी विडंबना है कि चिकित्सा जैसा पवित्र पेशा रुपये कमाने का धंधा बन गया है। लाखों डॉक्टर पॉंच-सितारा सुविधाओं से लैस हैं, तो वहीं विकास के आधुनिक ढॉंचे में उपजी गरीबी से त्रस्त लोगों के उपचार को अपना लक्ष्य बनाने वाले डॉक्टर विनायक सेन जेल में हैं। शायद देशवासियों का ध्यान छत्तीसगढ़ के आदिवासी इलाकों में जीवन बांट रहे इस डॉक्टर की ओर न जाता, यदि उन्हें 2008 का “जोनाथन मैन पुरस्कार’ न मिलता। विश्र्व स्वास्थ्य व मानवाधिकार रक्षा के लिये डॉ. सेन को यह पुरस्कार दिया जाना है।

वॉशिंगटन स्थित ग्लोबल हेल्थ काउंसिल ने डॉ. विनायक को उक्त पुरस्कार देने की घोषण की है। पुरस्कार की घोषणा के साथ कहा गया है कि डॉ. सेन का सेवाकार्य भारत तथा विश्र्व स्वास्थ्य के लिए प्रशंसनीय है, उनके कार्य को प्रतिष्ठा मिलनी चाहिए। निश्र्चय रूप से वे राज्य सत्ता के लिये किसी भी प्रकार से चुनौती नहीं हैं।

पिछले एक वर्ष से छत्तीसगढ़ की जेल में एक अपराधी की तरह कैद किये गये डॉ. विनायक की प्रतिष्ठा का अंदाज इस बात से लगाया जा सकता है कि विश्र्व के 22 नोबेल पुरस्कार विजेताओं और मानवाधिकार संगठनों ने राष्टपति, प्रधानमंत्री तथा छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री से उन्हें रिहा करने की मांग की है, ताकि वे “जोनाथन मैन पुरस्कार’ हासिल कर सकें। जेल में डॉ. सेन का स्वास्थ्य लगातार गिर रहा है। तमाम लाभ के पदों को ठुकरा कर जीवन पर्यंत उपेक्षित व अभावग्रस्त आदिवासियों के लिये काम करने वाला डॉक्टर आज खुद बीमार है। आज 58 वर्ष की उम्र में उनका वजन 20 किलो घट चुका है।

पेशे से बाल-चिकित्सा विशेषज्ञ डॉ. सेन वेल्लूर के प्रतिष्ठित िाश्र्चिन मेडिकल कॉलेज के गोल्ड मेडलिस्ट चिकित्सक रहे हैं। चिकित्सा की पढ़ाई पूरी करने के उपरांत उनके सामने कई महत्वपूर्ण पदों के प्रस्ताव थे, लेकिन उन्होंने देश के दूर-दराज के इलाकों के अभावग्रस्त समाज को अपने कार्यक्षेत्र के लिये चुना। वेल्लूर के झुग्गी-झोपड़ी वाले गरीब तबके के इलाके का अवलोकन करते हुए, एक संवेदनशील व समर्पित चिकित्सक के रूप में विनायक सेन को एहसास हो गया था कि जीवन की परिस्थितियों और आर्थिक हालात का व्यक्ति के स्वास्थ्य से सीधा संबंध है। यही वजह है कि कालांतर में उन्होंने छत्तीसगढ़ के अभावग्रस्त विपन्न आदिवासियों के लिये तीन दशक तक काम किया। वहॉं उन्होंने कुपोषण, मलेरिया, टीबी जैसी तमाम प्राणघातक बीमारियों के खिलाफ लंबी लड़ाई लड़ी।

डॉ. सेन ने सर्वप्रथम मध्य-प्रदेश के होशंगाबाद जिले के ग्रामीण चिकित्सा केंद्र को अपना कार्यस्थल बनाया। वर्ष 1981 में वे होशंगाबाद से छत्तीसगढ़ पहुँचे। वहॉं दल्ली राजहरा में उन्होंने खदान मजदूरों के आर्थिक सहयोग से “शहीद स्मारक अस्पताल’ की स्थापना की। कालांतर में वे मिशन अस्पताल टिल्दा में कार्यरत रहे। वर्ष 1990 में वे अपनी पत्नी ईना सेन के साथ रायपुर पहुँचे, जहां उन्होंने एक स्वयंसेवी संगठन के साथ मिलकर डेढ़ दशक से अधिक समय तक लोक-कल्याण के लिये काम किया। इस दौरान उन्होंने ग्रामीण स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं को प्रशिक्षण दिया और दूर-दराज के आदिवासी इलाकों में सचल चिकित्सालयों के सार्थक प्रयोग किये। चिकित्सा के साथ-साथ उन्होंने पुलिस प्रशासन द्वारा उत्पीड़ित आदिवासियों के हितों के लिये भी आवाज उठाना जारी रखा।

आठवें दशक में डॉ. विनायक सेन आदिवासी समाज के कल्याण को समर्पित छत्तीसगढ़ मुक्ति मोर्चा के साथ आगे आये। इसी दौरान आदिवासी समाज की मुक्ति के अग्रदूत शंकर गुहा नियोगी के संपर्क में आये। नियोगी सदियों से शोषित आदिवासी खान मजदूरों के अधिकारों की रक्षा के लिए मुहिम चला रहे थे। इसी दौरान डॉ. विनायक ने श्रमिकों के श्रमदान व चंदे से 15 बिस्तरों वाला एक अस्पताल बनाकर अनुकरणीय पहल की। कालांतर में सत्ताधीशों व माफिया की आँखों की किरकिरी बने शंकर गुहा नियोगी की भाड़े के हत्यारों ने हत्या कर दी। पुलिस ने औपचारिकता दिखाते हुए कुछ हत्यारे गिरफ्तार तो किये, लेकिन हत्याकांड के मास्टर माइंड साफ बच गये। बाद में सरकारी दमन, माफिया के हस्तक्षेप, फर्जी मुठभेड़ों के दौर के बाद इस इलाके में नक्सलवाद की जमीन तैयार होने लगी।

इस बीहड़ व खतरनाक इलाके में डॉक्टर जाने से भी कतराते थे। वहां डॉ. सेन ने न केवल चिकित्सक का ईश्र्वरीय रूप दिखाया, बल्कि आदिवासियों के खिलाफ माफिया के दमन व फर्जी मुठभेड़ों का कच्चा-चिट्ठा भी खोला। कालांतर में डॉ. सेन ने चिकित्सकीय दायित्व के साथ-साथ पीपुल्स यूनियन ऑफ सिविल लिबर्टी में शामिल होकर उसके क्षेत्रीय महासचिव भी बने। आदिवासी समाज के प्रति उनके समर्पण की बानगी देखिये कि उन्होंने जेल में बंद एक बीमार बुजुर्ग का सफलतापूर्वक ऑपरेशन किया। वे निरंतर अस्पताल में बंद आदिवासियों के उपचार में गंभीर रुचि लेते रहे, जो पुलिस प्रशासन की आंखों में खटकने लगा। उन पर नक्सलवादियों का मसीहा होने के आरोप लगने लगे। यहीं से उनके संघर्ष का एक दूसरा दौर शुरू हुआ।

आदिवासी समाज की निरंतर सेवा और मानवाधिकारों के लिये सतत संघर्ष के चलते वे पुलिस प्रशासन की आँखों की किरकिरी बन गये। फर्जी पुलिस मुठभेड़ों व आदिवासियों की नृशंस हत्याओं का खुलासा करने पर क्षुब्ध प्रशासन ने उन्हें सार्वजनिक सुरक्षा कानून के तहत गिरफ्तार कर लिया। इस कानून के तहत बिना साक्ष्य व बिना जमानत के अनिश्र्चित काल तक व्यक्ति को गिरफ्तार किया जा सकता है। मानव अधिकारों की रक्षा के लिये विख्यात अधिवक्ता नंदिता हक्सर ने सुप्रीम कोर्ट तक उनकी रिहाई के लिये आवाज उठायी, तो मामले की सुनवाई में अनावश्यक विलंब किया गया और उन्हें रिहा नहीं किया गया। प्रशासन द्वारा हठधर्मिता दिखाते हुए, उन्हें एकांत कारावास में डाल दिया गया।

डॉ. सेन को “पॉल हैरिसन’ पुरस्कार के अलावा प्रतिष्ठित “इंडियन अकादमी ऑफ सोशल साइंस का कीथन गोल्ड मैडल’ भी प्रदान किया गया। अकादमी ने अपनी घोषणा में कहा है “”डॉ. विनायक सेन ने मानव-कल्याण के लिये जो अनुकरणीय सेवाएं दी हैं, उसमें महात्मा गांधी के आम-आदमी के कल्याण के सपने का साकार रूप देखा जा सकता है।”

अजीब विडंबना है कि जिस डॉ. विनायक सेन को मानवाधिकारों के लिये अंतर्राष्टीय पुरस्कार दिया जा रहा है, उन्हें गांधी के सपनों को साकार करने वाला बताया जा रहा है, छत्तीसगढ़ सरकार उन्हें एक सामान्य अपराधी की तरह जेल में उत्पीड़ित कर रही है।

विश्र्व के दो दर्जन नोबल पुरस्कार विजेताओं और एमनेस्टी इंनटरनेशनल की अपील के उपरांत उम्मीद की जानी चाहिए कि केंद्र सरकार मानवतावादी चिकित्सक डॉ. विनायक सेन की मुक्ति के लिये सार्थक पहल करेगी।

– अरुण नैथानी

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