श्री बदरीनाथ मंदिर में देव विग्रह

dev-grah-badrinath-mandirबदरीश विग्रह – भगवान् बदरीविशाल का यह विग्रह एक शालिग्राम शिला द्वारा प्रकट हुआ है। यह विग्रह कब और कैसे प्रकट हुआ, किसके द्वारा स्थापित व पूजित होने लगा, इसका ठीक-ठीक निश्र्चय होना कठिन है। भगवान् बदरीनारायण के मौजूदा विग्रह के निर्वाण-दर्शन के अवसर पर चन्दन का पूर्ण चन्द्राकार एक तिलक बिन्दु नाभि, हृदय तथा छोटे-छोटे तिलक बिन्दु दोनों जंघाओं को अलंकृत किये हुए दृश्यमान होते हैं। विशाल वक्ष-स्थल पर श्रीवत्स और भृगुलात, ये दोनों चिह्न विद्यमान हैं। कम्बुग्रीवा में चमकती हुई रेखाएँ हैं। मुखारविन्द के ऊपर दायें-बायें लटकती पिंगल जटाजूट हैं। बायें कंधे में लटकती हुई पतली यज्ञोपवीत रेखा दिखाई देती है। भगवान् बदरीविशाल की मूर्ति पद्म आसन में है। दाहिना हाथ भूमि-स्पर्श मुद्रा में और बायां हाथ पैर के ऊपर है।

नारद विग्रह – भगवान बदरीनारायण के बायें देवर्षि नारदजी का विग्रह है। शास्त्र मर्यादानुसार बैशाख मास से कार्तिक मास तक भगवान् बदरी विशाल की पूजा मनुष्यों द्वारा और सौर मार्ग शीर्ष मास से मंदिर के कपाट खुलने तक नारदजी द्वारा होती है। भगवान् बदरीनारायण की पूजा का अधिकार केवल ब्रह्मचारी को ही है। नारदजी ब्रह्मचारी हैं। इसी प्रकार मनुष्यों में प्रधान अर्चक रावल भी बाल-ब्रह्मचारी होता है।

नारायण विग्रह – नारद विग्रह के बायें शंख, चा, गदा, पद्म से सुशोभित, चतुर्भुज, श्यामवर्ण, पद्मासनस्थ, तपः मुद्रा में नारायण की मूर्ति विराजमान है। इनके वाम जंघा स्थल पर श्रेष्ठ सुन्दरी उर्वशी, दक्षिण कटिभाग में श्रीदेवी, मुखारविन्द के पास भू-देवी, वाम एवं मुख-मण्डल के पास लीलावती देवी विराजमान हैं।

नर विग्रह – नारायण के वाम पार्श्र्व में, एक ही शिला पर धनुर्बाण धारण किये हुए, वाम पाद के अंगुष्ठ मात्र से खड़े, दक्षिण पाद को वाम उरू पर संसक्त किये हुए, तपः स्थित मुद्रा में नर विग्रह है।

कुबेर विग्रह – भगवान् बदरी विशाल के दक्षिण पार्श्र्व में, कुण्डल धारण किये हुए विशाल मुखाकृति वाले धनपति कुबेरजी का धातु विग्रह विराजमान है। मंदिर के कपाट बंद होने पर कुबेर जी की यह मूर्ति पाण्डुकेश्र्वर लाई जाती है।

गरुड़ विग्रह – भगवान् बदरी विशाल के दक्षिण पार्श्र्व में ही हाथ जोड़कर खड़े हुए भगवान् के वाहन गरुड़ जी की धातु की मूर्ति है।

उद्घव विग्रह – नारद विग्रह के पृष्ठ भाग में उद्घव विग्रह है। यह रजत मूर्ति ही भगवान् बदरी विशाल की “उत्सव मूर्ति’ है। भगवान श्रीकृष्ण ने परम पद के समय अपनी रत्न जड़ित स्वर्ण पादुका, परम भक्त उद्घवजी को देते हुए उन्हें बदरिकाश्रम में तपस्या करने का आदेश किया था। भगवान श्रीकृष्ण की आज्ञानुसार उद्घव जी बदरिकाश्रम में तपस्या करने आये थे। मंदिर के कपाट बंद होने पर इस उत्सव मूर्ति की छः माह पूजा पाण्डुकेश्र्वर योग ध्यान मंदिर में होती है।

चरण पादुका व सुदर्शन चा – उद्घव विग्रह के सामने श्रृंगारोपरांत, स्वर्ण-पादुका सिंहासन में और दुष्ट-दलनकारी सुदर्शन-चा भगवान् बदरी विशाल के दक्षिण पार्श्र्व में दृष्टिगोचर होते हैं। सुदर्शन-चा के ऊपर चांदी का आवरण रखा रहता है।

भगवान बदरीनारायण की बायीं ओर अखण्ड ज्योति जलती हुई दिखाई देती है, जो बारह महीने निरंतर जलती रहती है। भगवान बदरी विशाल के दायीं ओर रावल साहब व बडुवा (डिमरी ब्राह्मण) रहते हैं। ड्योढ़ी पर बायीं तरफ महंत श्रृंगारी चंवर डुलाते हुए तथा दायीं ओर वेदपाठी ब्राह्मण वेदपाठ करते हुए दृष्टिगोचर होते हैं। पास ही चांदी की थाली में भगवान् को थाली भेंट स्वरूप चढ़ाई जाती है। गर्भद्वार के दायें-बायें जय-विजय द्वारपाल खड़े हैं।

लक्ष्मी विग्रह – भगवान बदरीनाथ जी के दर्शन करके बाहर निकलने पर बायें हाथ की ओर सामने लक्ष्मी मंदिर के दर्शन होते हैं। तपः स्थित भगवान् नारायण के लिए लक्ष्मी जी भोग पकाती हैं और उस भोग को भगवान् श्रीहरि स्वयं ग्रहण करते हैं। भगवान् बदरीविशाल के मंदिर के कपाट खुलने पर लक्ष्मी जी छः माह अलग से अपने ही मंदिर में विराजमान रहती हैं और छः माह कपाट बन्द रहने पर्यन्त श्रीनारायण के मंदिर में ही साथ रहती हैं।

लक्ष्मी माता के दर्शन करके श्रद्घालु अटका, अष्टोत्तरी, नामावली, अभिषेक, आरती आदि पूजा कर भोग एवं प्रसाद प्राप्त करते हैं। श्रीमहालक्ष्मी पुजारी गोड पदीय डिमरी ब्राह्मण होते हैं, जिन्हें मंदिर का भेंट-चढ़ावा लेने का अधिकार है।

– निर्विकल्प विश्र्वहृदय

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