वर्ष 2008 के जून माह के अंतिम सप्ताह में महंगाई की दर बढ़कर अपने 13 वर्ष के उच्चतम स्तर 11.89 प्रतिशत रही, जो लगातार चौथे सप्ताह में 11 प्रतिशत के ऊपर बनी हुई थी। विनिर्माण व बिजली क्षेत्र में खराब प्रदर्शन होने से मई, 2007 के 10.6 प्रतिशत की तुलना में औद्योगिक विकास दर मई, 2008 में मात्र 3.8 प्रतिशत थी। एक वर्ष पूर्व की समान अवधियों में विकास की दर 11.3 प्रतिशत रही। औद्योगिक विकास दर की गिरावट मुख्य रूप से उद्योगों पर ब्याज दरें बढ़ने से हुए प्रतिकूल प्रभाव के कारण हुई। देश में बिगड़ती अर्थव्यवस्था व बनते-बिगड़ते राजनैतिक समीकरणों के चलते बीएसई सेंसेक्स लुढ़क रहा है। इस बढ़ती महंगाई को रोकने के लिए भारतीय रिजर्व बैंक ने रेपो दर में 0.25 प्रतिशत और सीआरआर में 0.5 प्रतिशत की वृद्घि कर दी, जिसके कारण आवास और वाहन ऋण महंगे हो गए।
महंगाई के कारण भारत के 70 प्रतिशत लोगों की दैनिक आय 20 रुपए से भी कम हो गई है। सरकार ने बहुत प्रचार किया कि भारत के लोगों को वर्ष के 365 दिन में से कम से कम 100 दिन तो रोजगार देने की गारंटी दी जाती है। अर्थात् 100 दिन तक वह खा सकता है, पहन सकता है व रह सकता है। अब नौकरियों में आरक्षण एक वर्ग विशेष, व जाति विशेष की आवश्यकता नहीं रह गया, बल्कि उन 70 प्रतिशत लोगों को आरक्षण मिलना चाहिए, जिनकी दैनिक आय 20 रुपए से भी कम है।
सरकार तथा राजनैतिक दल रोजगार में आरक्षण की सहायता से बढ़ती आबादी व बेरोजगारी की समस्या से लड़ना चाहते हैं परन्तु अस्थायी व्यवस्था वाली आरक्षण नीति अब राजनैतिक दलों की वोट बैंक को मजबूत करने का मुद्दा ही बन चुकी है। 2,000 करोड़ रुपए की संपत्ति की हानि व लाखों लोगों की भारी परेशानी का सबब बना गुर्जर आरक्षण आंदोलन कितने गुर्जरों को रोजगार दिलवाकर उनका जीवनस्तर ऊपर उठा पाएगा यह तो किसी राजनैतिक दल ने सोचा ही नहीं होगा, बस बांस पर चढ़ा दिया गुर्जरों को कि वर्तमान में राजस्थान में अमुक दल की सरकार है, आंदोलन करके आरक्षण की बैसाखी प्राप्त कर लो। अब अगड़ी जातियों में भी वोट बैंक की राजनीति शुरू हो गई है। “जिसकी जितनी संख्या उतनी उसकी हिस्सेदारी’ का नारा देकर देश की अनपढ़ व भोली जनता को जाति के आधार पर गुमराह किया जा रहा है। आबादी बढ़ाकर गांव से लेकर शहरों तक में भीड़ खड़ी कर दी गई है, जिससे अनेक समस्याएँ उत्पन्न हो गई हैं।
देश में कृषि पैदावार अपनी अधिकतम ऊँचाई पर पहुँच रही है। गेहूं का भाव 1000 रुपए प्रति क्ंिवटल है, जबकि आटा 2000-2200 रुपये प्रति क्ंिवटल बिक रहा है। सरकार को यह ध्यान देना चाहिए कि यह 800 रुपये प्रति क्ंिवटल का अंतर अर्थात् 8 रुपये प्रति किलोग्राम मुनाफा दुकानदार कैसे खा रहे हैं और गरीब जनता की जेब कैसे काट रहे हैं? इस बढ़ती महंगाई का मूल कारण केन्द्र सरकार पेटोल व डीजल के बढ़ते दामों को बता रही है। पेटोल व डीजल विदेशों से आयात करना पड़ता है। इनकी खपत कम करने के लिए सरकार ने कोई उपाय नहीं किए हैं। नित्य नई-नई पेटोल से चलने वाली कारें, मोटर वाहन, मोटर साइकिलों व स्कूटर, मोपेड इत्यादि बनाने के कारखाने स्थापित करने के लिए सरकार द्वारा लाइसेंस दिए जा रहे हैं। घरों में कारों को खड़ा करने व सड़कों पर कारों को चलाने की जगह प्रतिदिन कम से कमतर होती जा रही है।
कुछ लोग स्वास्थ्य के लिए कसरत करने के लिए महंगे जिमों में तो जाना पसंद करते हैं परन्तु साइकिल चलाकर घर के छोटे-मोटे काम करना उन्हें नागवार गुजरता है।
देश को महंगाई से मुक्ति दिलवाने में गॉंवों में पशुधन का तेजी से घटते जाना भी एक महत्वपूर्ण कारण समझा जाता है। भारतीय कृषि का अधिकांश भाग अब टैक्टर व ट्यूबवेल पर आधारित हो गया है और इन दोनों उपकरणों में ही डीजल खर्च होता है। अतः डीजल की कीमतें बढ़ने पर किसान पर बोझ पड़ता है। डीजल से टक व अन्य मालवाहन चलते हैं, जो वस्तुओं को एक स्थान से दूसरे स्थान पर ले जाते हैं। डीजल के दाम बढ़ने से मालभाड़ा भी बढ़ जाता है, जिसकी मार गरीब को सहन करनी पड़ती है। सरकारी व निजी स्तर पर पेटोल व डीजल की खपत कम करने के लिए उपाय किए जाने जरूरी हैं। कृषि को पशु आधारित करना पड़ेगा व शहरों में 10 किलोमीटर दूर तक के ऑफिस के लिए लोगों को साइकिल का प्रयोग करने का नियम बनाना चाहिए व युवा व किशोर वर्ग को तो साइकिल अनिवार्य होनी चाहिए। मोटर साइकिल उनके लिए प्रतिबंधित होनी चाहिए। इससे लाभ यह होगा कि एक तो सड़कों पर मोटर साइकिलों से दुर्घटनाओं में कमी आएगी, वहीं युवा वर्ग का स्वास्थ्य भी ठीक रह सकेगा। साइकिल चलाने से किशोर व युवा वर्ग हृष्ट-पुष्ट बन सकेगा।
भारत की अर्थव्यवस्था तीन विश्र्व प्रसिद्घ अर्थशास्त्रियों द्वारा बनायी व बताई आर्थिक रीति व नीतियों के अनुसार चल रही है। प्रधानमंत्री डॉ. मनमोहन सिंह, वित्तमंत्री पी. चिदम्बरम् व योजना आयोग के उपाध्यक्ष मोंटेक सिंह अहलुवालिया। इन तीनों ने मिलकर वैश्र्वीकरण, उदारीकरण व निजीकरण का जो डामा किया है वह देश में आम आदमी को महंगाई, बेरोजगारी व गरीबी से पीड़ित करने वाला हथियार बन गया है। उद्योग-धंधे बड़ी मात्रा में न तो रोजगार उपलब्ध करवा पा रहे हैं और न ही गरीब व्यक्ति की आवश्यकता की कोई वस्तु ही बना रहे हैं। उद्योग निर्यात के लिए ही वस्तुओं का उत्पादन कर रहे हैं। साफ्टवेयर कम्प्यूटर के नाम पर देश में प्रतिवर्ष कुछ हजार युवकों को रोजगार तो जरूर मिलता है लेकिन सरकारी बैंक, बीमा, रेलवे, डाकघर, सरकारी दफ्तरों इत्यादि में भर्ती अभियान नहीं चलाया जा रहा है। सेना व पुलिस सहित अन्य बलों में हजारों पद रिक्त पड़े हैं और नौकरी के लिए बेरोजगार युवा वर्ग खुदकुशी करने पर मजबूर हो रहे हैं।
देश की समस्याएँ सामाजिक व आर्थिक, धार्मिक व जातिगत परिस्थितियों से जुड़ी हुई हैं परन्तु हमारे राजनीतिबाज नेता राजनीति व धर्म को मिलाकर समस्याओं को और उलझा देते हैं। समाज की पूरी व्यवस्था को लेकर चलने से ही हमारी समस्याएँ हल हो सकती हैं। क्या आर्थिक समस्याएँ बिना दूरदर्शिता के सुलझ सकती हैं? प्रतिदिन ही सरकार व अन्य एजेन्सियों से बयान आते रहते हैं कि महंगाई अभी और बढ़ेगी, जिसको मानकर व्यापारी अपने यहां जमाखोरी, मिलावटखोरी व मुनाफाखोरी करने लगता है तथा राजनैतिक दबाव में उनके भरे हुए गोदामों पर पुलिस व सरकारी विभागों द्वारा छापे नहीं मारे जाते हैं, क्योंकि व्यापारी वर्ग नित्य होने वाले नगरपालिका से लेकर लोकसभा स्तर तक के चुनावों में बड़े पैमाने पर होने वाले व्ययों को पूरा करने के लिए बड़े-बड़े चंदे देते हैं। यह चंदा ही राजनीतिज्ञों को दी गई रिश्र्वत होती है। और बदले में राजनैतिक दल व्यापारियों को राजनैतिक संरक्षण प्रदान करते हैं।
लोककल्याण को ध्यान में रखकर आर्थिक, राजनीतिक व सामाजिक समस्याओं को हल करने के लिए सभी राजनैतिक दलों को मिल-बैठकर दीर्घकाल के लिए योजनाएँ बनानी चाहिए। समाज में एकजुटकता बढ़ाने व बढ़ती आबादी पर प्रतिबंध लगाने की, पंथनिरपेक्षता पर आधारित नीतियां बनानी चाहिए वरना महंगाई की सुरसा सम्पूर्ण भारत को खा जाएगी और भारत दुनिया के निर्धनतम देशों की पंक्ति में खड़ा दिखाई देगा।
– डॉ. सूर्यप्रकाश अग्रवाल
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