चेयरमैन, दि.ए.पी. महेश को-ऑप. अर्बन बैंक लि.
जब मानव ने इस धरती पर सर्वप्रथम अपनी आंखें खोली होंगी, तो भाषा के अभाव में ध्वनि और संकेतों के माध्यम से अपनी भावनाओं को व्यक्त किया होगा, लेकिन जैसे-जैसे सभ्यता का विकास हुआ, मानव ने युगों की घोर साधना के पश्र्चात् भाषा के उस स्वरूप को प्राप्त किया, जिसे हम वाणी के द्वारा व्यक्त और कानों के द्वारा श्रवण कर रहे हैं। यह भाषा ही वह माध्यम है, जिसके द्वारा सभ्यता, कला, धर्म, साहित्य, संस्कृति और विज्ञान पुष्पित, पल्लवित और फलित हुए। भाषा का महत्व वर्णनातीत है।
अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त होते ही हमारे देश के कर्णधारों ने नवीन संविधान का निर्माण किया और एक ध्वज, एक राष्टगीत, एक मुद्रा, एक राष्टीयता के साथ-साथ एक भाषा की संकल्पना की। भारत के कोटि-कोटि मानवों के हृदय-सिंहासन पर विराजमान हिन्दी को राष्टभाषा के पद पर प्रतिष्ठित करके जनभावनाओं का सम्मान किया और स्वतंत्रता के सुख का अहसास कराया। देश में अंग्रेजी के स्थान पर हिन्दी को स्थापित करने का सद्विचार उपजा, किन्तु दुर्भाग्य, राजनीति के गंदे कीचड़ में यह सद्विचार कहीं गुम हो गया। स्वार्थी राजनेताओं ने भाषा को माध्यम बनाकर जिस संघर्ष का सूत्रपात किया, उससे राष्टभाषा हिन्दी अभी तक मुक्त नहीं हो पायी है और बिना श्रृंगार सुहागिन बन कर रह गई।
यह सर्वथा न्याय और तर्कसंगत है कि राष्ट में जिस भाषा का सर्वाधिक प्रचलन होता है, वही भाषा राष्टभाषा के पद को सुशोभित करने को मान्य होती है। जिस प्रकार राष्टीय ध्वज देश विशेष के गौरव का प्रतीक है, ठीक उसी प्रकार राष्टभाषा भी राष्ट को गौरवान्वित करती है। राष्टभाषा राष्ट के नागरिकों में नवीन प्राण फूंकने में संजीवनी का कार्य करती है, जिस प्रकार शरीर आत्मा के बिना निर्जीव है, वैसे ही एक राष्ट का अस्तित्व बिना राष्टभाषा के शून्य है। यदि कोई राष्ट विदेशी भाषा के सहारे स्वयं को जीवित समझता है तो यह उसकी महान भूल है।
भारतीय संविधान द्वारा हिन्दी को राष्टभाषा तो घोषित कर दिया गया, लेकिन उसे व्यावहारिक रूप से प्रयोग करने में समस्या उठ खड़ी हुई। अतः 1965 तक अंग्रेजी में ही शासन कार्य का संचालन करने की सिफारिश की गई एवं 15 वर्ष का समय हिन्दी के प्रचार हेतु रखा गया। परन्तु इसे चाहे हिन्दी का दुर्भाग्य कहें या अंग्रेजी का सौभाग्य कि उसके पश्र्चात् भी सरकारें हिन्दी को उखाड़ने में विफल रहीं। इसके विपरीत अंग्रेजी ने ही अपनी जड़ें और मजबूत कर लीं तथा आज भी शासन का अधिकांश कार्य अंग्रेजी के बलबूते पर ही चल रहा है।
भारतीय शासन के उच्च पदों पर प्रतिष्ठित अधिकारियों ने हिन्दी भाषा को सीखना व्यर्थ का झंझट समझ कर इसके प्रति उदासीनता प्रकट की। अंग्रेजी, जिसे उन्होंने तोते की भांति रट-रट कर सीखा है, उसी भाषा को अपने मातहतों के विरुद्घ एक शस्त्र के रूप में प्रयोग करते हैं। वे यह भी समझते हैं कि हिन्दी को दिन-रात सीखने पर भी अंग्रेजी के समान पारंगत नहीं हो सकते। हिन्दी को शासन कार्यों में व्यावहारिक रूप से प्रयोग न कर पाने का एक कारण सरकारी तंत्र की उदासीनता है। आज सरकारी कार्यालयों में जो भी हिन्दी के नाम पर हो रहा है, उसमें हिन्दी का कितना भला हुआ है और होगा, यह बताने की आवश्यकता नहीं है।
कतिपय लोग हिन्दी को संस्कृतनिष्ठ बताकर उसकी आलोचना करते हैं, परन्तु यह उनकी बड़ी भूल है। हिन्दी भाषा से दूसरी भाषाओं को अलग कर दिया जाय, तो अहिन्दी भाषी भी उसेे सरलतापूर्वक समझ सकते हैं। संस्कृत से केवल हिन्दी का ही नहीं, अपितु समस्त भारतीय भाषाओं का विकास हुआ है। संस्कृत के शब्द जितने अन्य भाषाओं में हैं, उतने हिन्दी में नहीं हैं।
हिन्दी हमारी राष्टभाषा है। अब यह प्रश्र्न्न उपस्थित होता है कि हिन्दी के सर्वमान्य स्वरूप का कैसे निर्धारण किया जाय? यदि मनन करें तो इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि संस्कृत अधिकांश भारतीय भाषाओं की जननी है। हिन्दी के तत्सम संस्कृत शब्दों में दूसरी भाषा बोलने वालों को नाममात्र भी कठिनाई का अनुभव नहीं होगा। साथ ही यह बात भी उल्लेखनीय है कि अप्रचलित संस्कृत शब्दों से बचा जाये, क्योंकि इनके प्रयोग से हिन्दी अपना व्यावहारिक रूप खो देगी। इतर भाषाओं के प्रचलित शब्दों के उपयोग से हिन्दी में व्यावहारिकता का संचार होगा। साथ ही हम जिस तत्परता से राजनीतिक एवं व्यावसायिक हितों की पूर्ति हेतु हिन्दी का प्रयोग करते हैं, उसी तत्परता से दैनिक जीवन में हिन्दी का प्रयोग करें।
यदि हम यथार्थ में राष्टभाषा हिन्दी को विकास के पथ पर अग्रसर देखना चाहते हैं तो सबसे प्रथम हमें अंग्रेजी भाषा के एकाधिकार को समाप्त करना होगा। साथ ही हिन्दी-प्रेमियों एवं हिन्दी की मान्य संस्थाओं को राष्टभाषा के विकास में घोर साधना करनी होगी। हिन्दी भाषी राज्यों और विश्र्वविद्यालयों को भी सहयोग देना चाहिए। सम्पूर्ण राजकाज संचालन में हिन्दी के उचित शब्दों का समावेश होना चाहिए। हिन्दी में वैज्ञानिक एवं तकनीकि कोष निर्मित होना चाहिए।
देश के बहुसंख्यक मनुष्यों की भाषा होने के कारण हिन्दी का दायित्व सर्वाधिक है। श्रीनगर से लेकर त्रिवेन्द्रम पर्यन्त हिन्दी प्रेमी, कवि, लेखक तथा शायर विद्यमान हैं। हिन्दी भाषियों को उस दिन की प्रतीक्षा करनी चाहिए, जब हिन्दी भगीरथी गंगा के किनारे से नहीं अपितु उसकी मांग कृष्णा, गोदावरी और कावेरी के पुनीत पुलिनों से दुहराई जाये और यह असंभव नहीं है। इसमें केवल एक अपेक्षा है कि हमारे दिलों में सभी भारतीय भाषाओं के प्रति समान रूप से श्रद्घा का भाव रहना चाहिए। आओ, आज हिन्दी-दिवस पर हम संकल्प लें कि राष्टभाषा हिन्दी के बहुमुखी विकास में प्राणपण से जुट जायें और भारत माता को गौरवान्वित करेंे।
– रमेश कुमार बंग
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