एक ओर जनसंचार के मुद्रित व इलेक्टॉनिक माध्यमों का सहारा पाकर “हिन्दी’ ऊंची उड़ान भर रही है तो दूसरी ओर विश्र्व भाषा बनने की तैयारी कर रही हिन्दी जैसी भाषाओं के सहारे जनसंचार माध्यम पूरे विश्र्व में अपना वर्चस्व कायम कर रहे हैं। यहां मैं हिन्दी और जनसंचार से जुड़े कुछ ऐसे मुद्दे ही प्रस्तुत करना चाहूंगा, जिन पर हर हिन्दी प्रेमी को ध्यान देना चाहिए।
मेरे सामने “विकल्प’ नामक हिन्दी पत्रिका का “जनसंचार’ विशेषांक है, जिसमें प्रकाशित कुछ लेखों ने मुझे यह लेख लिखने की प्रेरणा दी है। “विकल्प’ एक उच्चस्तरीय राजभाषा पत्रिका है, जो भारतीय पेटोलियम संस्थान, देहरादून द्वारा गत चौदह वर्षों से अव्यावसायिक रूप से प्रकाशित होती आ रही है। यद्यपि यह संघ सरकार की राजभाषा नीति के कार्यान्वयन के तहत प्रकाशित होती है, तो भी इसमें महज राजभाषा नीति के कार्यान्वयन पर ही नहीं, अपितु कई अन्यान्य विषयों पर भी स्तरीय सामग्री प्रकाशित हुआ करती है। समय-समय पर विविध विषयों पर केन्द्रित जो विशेषांक निकलते हैं, वे अत्यंत आकर्षक और पठनीय होते हैं। इनमें कुछ विषय हैं- अनुवाद, हिन्दी विधान पत्रकारिता, सूचना-प्रौद्योगिकी, पेटोलियम, पर्यावरण, प्रयोजन मूलक हिन्दी, जैव-प्रौद्योगिकी आदि। “जनसंचार’ विशेषांक इसी श्रृंखला की नवीनतम कड़ी है। इस अंक में प्रकाशित कुछ मुद्दों पर जरा विचार करें।
डॉ. दक्षा जोशी की शिकायत है कि जनसंचार माध्यम हिन्दी भाषा के स्वरूप को भ्रष्ट कर रहे हैं। लिखा है- आजकल के हिन्दी अखबारों, पत्र-पत्रिकाओं एवं टी.वी. आदि की भाषा पर गौर करें तो पाएंगे कि कितनी भ्रष्ट हिन्दी का प्रयोग होता है। अंग्रेजी शब्दों एवं वाक्यांशों का प्रयोग बहुत अधिक होता है। हिन्दी वर्तनी की एकरूपता नहीं होती, विरामचिन्हों का प्रयोग नितांत अव्यवस्थित होता है। दूरदर्शन पर वार्ताकार इतनी अंग्रेजी बहुल हिन्दी बोलते हैं मानो दर्शक वर्ग में सभी अंग्रेजीदां हैं। वे लोग ये बात भूल जाते हैं कि पाठक एवं दर्शकों में ग्रामीण व्यक्ति भी होते हैं।
विज्ञापनों की भाषा पर भी डॉ. जोशी आपत्ति उठाती हैं। उन्होंने लिखा है-विज्ञापनों की भाषा ने हिन्दी भाषा के तेवर एवं मूल्यबोध को झकझोर कर रख दिया है। प्रायः सारे विज्ञापन आाामक शब्दजाल से बुने जाते हैं। संदेश सूक्ष्म होता है। खनकदार आवाज, सर्द हुए द्विअर्थी शब्द/वाक्यांश और विचित्र दृश्य मिश्रण दर्शक को एक मायाजाल में ले जाते हैं। विज्ञापनों की अश्लीलता, लालसा आदि से बाल-अपराधियों की वृद्घि को सीधे जोड़ा जा सकता है।
हिन्दी पत्रकारिता की कुछ चुनौतियों पर चर्चा करते हुए सुरेश उजाला लिखते हैं- वोट की राजनीति का बोलबाला होता गया। परिणामतः समाज जाति, वर्ग और क्षेत्र के आधार पर विभाजित होता चला गया। यह पत्रकारिता के सामने एक बड़ी चुनौती है, जिसका सामना करने के लिए हिन्दी पत्रकारिता को भेदभाव से ऊपर उठना है।
सुरेश उजाला द्वारा उठाया गया एक अन्य मुद्दा है- स्वतंत्र भारत में पंचवर्षीय योजनाओं के अच्छे परिणाम भी निकले तो दुष्परिणाम भी पैदा हुए। यह दुष्परिणाम भ्रष्टाचार के रूप में जन्मा है। हिन्दी पत्रकारिता के लिए यह एक नयी चुनौती है। इसके निराकरण के लिए उसे आगे आना होगा।
डॉ. हरीश कुमार सेठी लिखते हैं-आधुनिक संचार माध्यमों पर महत्वपूर्ण संस्थाओं का एकाधिकार है। ऐसे में संचार माध्यम एकाधिकृत संस्था का “माउथपीस’ बन गए हैं। इसके अतिरिक्त राष्टीय-अंतराष्टीय पूर्वाग्रह आदि भी देखने में आते हैं।
…..तो सोचें, हिन्दी को कैसे इन स्थितियों से उबारें।
– के.जी. बालकृष्ण पिल्लै
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