एकात्मता भी अनेकात्मता के घेरे में

हिंसात्मक अराजकता हमारी लोकतंत्रीय व्यवस्था की पर्याय बन गई है। कानून और व्यवस्था की स्थिति चिन्तनीय है। इस तरह की हिंसात्मक गतिविधियों पर अंकुश लगाने की केन्द्र और राज्य सरकारों की इच्छाशक्ति बहुत कमजोर ऩजर आ रही है। और अगर ऐसा हो रहा है तो उसके कारण सिर्फ राजनीतिक हैं। सत्तापक्ष से विपक्ष तक एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगाने और खुद को पाक-साफ साबित करने में जुटे हैं। कई राज्यों के साथ ही अगले वर्ष लोकसभा के चुनाव होने हैं। अतः राजनीति अपना वोट-बैंक पुख्ता करने के ही गणित में मशगूल है। देश एक अंधे मोड़ पर खड़ा है जहॉं से आगे जाने का कोई रास्ता नहीं दिखाई देता। देश के सभी घटकों को राजनीतिक स्वार्थों के चलते एक-दूसरे के खिलाफ खड़ा किया जा रहा है। सामाजिक समरसता के छिन्न-भिन्न होने के साथ ही राष्टीय एकात्मता भी खंड-खंड टूटती जा रही है। कंधमाल हो या कर्नाटक, असम हो या कश्मीर, हर कहीं एक ही परिदृश्य है, एक- सी सच्चाईयॉं हैं और एक-सी अराजकता।

राजनीतिक प्रश्र्न्नों ने राष्टीय प्रश्र्न्नों को परे हटा कर महत्वहीन बना दिया है। ऐसे में आतंकवाद, जो निश्र्चित रूप से प्रायोजित है, अगर हमारी जमीन को लहूलुहान करने की साजिशों को अंजाम देता है, तो क्या हम सारा दोष पाकिस्तान और उसकी आईएसआई के खाते में डाल कर निश्र्चिन्त हो सकते हैं? जहां तक उनके सा़िजशें रचने का सवाल है, तो उन्हें किसी राष्टीय अथवा अन्तर्राष्टीय दबाव में लेकर काबू में करना किसी के बूते की बात नहीं है। दुःख तो इस बात का है कि हम ़खुद उनके लिए सुविधाजनक परिस्थितियों का निर्माण करते जा रहे हैं। पहले उन्हें हिंसात्मक गतिविधियों को अंजाम देने के लिए आतंकवादियों की खेप बाहर से भेजनी पड़ती थी, अब वे बहुत आसानी से हमारे ही बीच उन्हें तलाश कर लेते हैं। इसका इस्तेमाल वे हमारे आरोपों को गलत सिद्घ करने के लिए अब ब़खूबी कर पा रहे हैं।

अगर ऐसा हो रहा है और होने दिया जा रहा है तो उसका एकमात्र कारण यही है कि हमारी हर तरह की प्रतिबद्घतायें, चाहे वे सामाजिक, राजनीतिक अथवा राष्टीय जैसी भी हों, बेहद कमजोर हैं। हॉं, यह ़जरूर है कि दलीय प्रतिबद्घतायें उसी हिसाब से काफी मजबूत भी समझ में आती हैं। क्या इस बात पर हैरत नहीं होनी चाहिए कि संप्रग सरकार का मौजूदा कार्यकाल अब लगभग समाप्ति के कगार पर खड़ा है। इस समयावधि में देश लगातार आतंरिक सुरक्षा के खतरों से जूझता रहा, लेकिन केन्द्र सरकार ने इस मसले पर कोई राष्टीय विचार तथा आम सहमति बनाने के लिए राजनीतिक दलों की एक भी बैठक नहीं बुलायी। अब जब प्रधानमंत्री की ओर से राष्टीय एकात्मता परिषद की बैठक बुलाने का प्रस्ताव आया है तब फिर एक बार आंतरिक सुरक्षा के मसले को भी राजनीति के दलदल में उतारने की तैयारियॉं की जा रही हैं। दोष किसी एक पक्ष का हो, ऐसा भी नहीं है। परिषद की बैठक में विचार के लिए जो एजेंडा मुख्यमंत्रियों को वितरित किया गया है, उस पर गुजरात के मुख्यमंत्री नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में सभी भाजपा और राजग शासित प्रदेशों के मुख्यमंत्री अपना आाोश प्रकट कर रहे हैं। उनका कहना है कि पहले तो इस एजेंडे में आतंकवाद को विषय सूची में स्थान ही नहीं दिया गया था। बाद में काफी हो-हल्ला होने पर केन्द्र सरकार की ओर से इसे संशोधित कर आतंकवाद की जगह “चरमपंथ’ शब्द उल्लिखित किया गया। उनका कहना है कि केन्द्र सरकार अपनी वोट बैंक की राजनीति के चलते मजहबी आतंकवाद को छूना नहीं चाहती और इससे अपना दामन बचा रही है।

गऱज यह कि संभावना यही बनती है कि प्रधानमंत्री की प्रस्तावित “राष्टीय एकात्मता परिषद’ की बैठक भी “अनेकात्मता’ का ही संदेश प्रसारित करेगी। ऐसी परिस्थितियों में देश आतंकवाद से लड़ाई लड़ सकेगा, यह सोचना भी निरर्थक है। सत्ता और विपक्ष की राजनीति ने देश को राष्टीय स्तर पर और अन्तर्राष्टीय स्तर पर भी एक निहायत कम़जोर देश बना दिया है। अराजक हिंसा की सृष्टि करने वाले अपना खेल खुल कर खेल रहे हैं और हम कुछ शब्दों से जूझ रहे हैं। आंतरिक सुरक्षा जैसा महत्वपूर्ण और संवेदनशील मुद्दा दो पक्षों की राजनीति के कोण पर दो शब्दों के घेरे में अटक गया है। ये शब्द हैं “आतंकवाद’ और “चरमपंथ’। कांग्रेस और उसके संप्रग के सहयोगी दल इस हिंसात्मक अराजकता को चरमपंथ का नाम इस वजह से देना चाहते हैं क्योंकि इसके जरिये उन्हें भाजपा और उसके सहयोगियों पर हमलावर होने का आधार और मौका मिल जाता है। उड़ीसा और कर्नाटक सहित कई अन्य राज्यों में धर्मांतरण के मुद्दे पर कथित तौर पर विश्र्व हिन्दू परिषद तथा बजरंग दल की भूमिका को भी वे इस सीमा में समेटना चाहते हैं। भाजपा इसे “आतंकवाद’ से अलग मुद्दा मानती है और इससे अपने को और अपने सहयोगियों को बचाने की राजनीति कर रही है। अतः वह परिषद की बैठक में “आतंकवाद’ पर चर्चा करने का दबाव बना रही है। ़जरूरी यह है कि शब्दों के जाल से बाहर निकल कर आंतरिक सुरक्षा को एक सांघातिक बीमारी के रूप में विश्र्लेषित किया जाय। हिंसा किसी भी रूप में हो, वह लोकतंत्र की जड़ों पर कुठाराघात करती है। अतः विचार उन तमाम नकारात्मकताओं से बाहर आकर एक सबल राष्ट के निर्माण पर होना चाहिए। लेकिन इस लक्ष्य तक पहुँचने के लिए राजनीति को हर हाल में ईमानदार और जवाबदेह बनाना ़जरूरी है।

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