ऊर्जा का भ्रम

टिहरी से पावन गंगोत्री जाने वाले घुमावदार रास्ते पर आपको प्रत्येक पांच सौ मीटर पर अशुभ सूचना देते बोर्ड लगे मिल जाएंगे जिन पर लिखा होता है, “आगे विस्फोट क्षेत्र हैं।’ गंगा के अलौकिक दर्शन को आए श्रद्घालुओं को इन सूचना पटलों के साथ ही “बांध गंगा की हत्या है’ और “गंगा को अविरल बहने दो’ जैसेे नारे भी बहुतायत में दिखाई देते हैं।

गंगा अब पनबिजली परियोजनाओं के निशाने पर है। साथ ही इसकी सहायक भागीरथी और अलकनंदा के जलग्रहण क्षेत्र में पचपन पनबिजली परियोजनाओं पर या तो निर्माण जारी है या शीघ्र ही शुरू होने वाला है। गंगोत्री से देवप्रयाग व अलकनंदा तक के 145 किलोमीटर के हिस्से पर नौ बड़े बांधों के अलावा कई छोटे बांध आकार लेने वाले हैं। इनमें से सबसे ज्यादा ऊँचाई पर है, गंगोत्री से मात्र 27 किलोमीटर की दूरी पर स्थित भैरों घाटी बांध।

इस सारी कवायद को केन्द्रीय प्रदूषण निवारण मंडल के पूर्व सदस्य सचिव जी.डी. अग्रवाल ने अपने नौ दिवसीय उपवास के माध्यम से चुनौती देते हुए मांग रखी थी कि उत्तरकाशी और गंगोत्री के बीच के 125 किलोमीटर के हिस्से पर कोई भी परियोजना लागू न की जाए। क्योंकि ऐसा होने पर नदी का प्रवाह बाधित होगा। परंतु उत्तराखंड जल विद्युत निगम लिमिटेड के सभापति एवं मुख्यमंत्री के सलाहकार योगेन्द्र प्रसाद का कहना है कि हमारे पास राजस्व के स्त्रोत बहुत सीमित हैं। फिर इनसे हम बाढ़ एवं सिंचाई के लिए जल नियंत्रण भी कर पाएंगे।

गांधी शांति प्रतिष्ठान से जुड़े पर्यावरणविद् अनुपम मिश्र का मानना है, “इंजीनियरों को नदी के जल का सिंचाई अथवा विद्युत उत्पादन किए बगैर समुद्र में जा मिलना व्यर्थ प्रतीत होता है। किंतु नदी के नैसर्गिक प्रवाह के साथ इस तरह की छेड़छाड़ के भयंकर परिणाम निकलेंगे। नदी-जल के समुद्र में मिलने से खारे पानी के फैलाव को रोकने में मदद मिलती हैं। यह अनिवार्य है। लेकिन दुर्भाग्य से इसे अवैज्ञानिक ठहराया जाता है। फिर हिमालय क्षेत्र में बड़े भूकंप की आशंका को भी तो नकारा नहीं जा सकता। बांध के टूटने के बाद निचले इलाकों की बाढ़ से कैसे रक्षा होगी?

केन्द्रीय वन एवं पर्यावरण मंत्रालय का मानना है कि सभी नदियों के लिए न्यूनतम बहाव का एक-सा पूर्व निर्धारित स्तर तय नहीं हो सकता। क्षेत्र विशेष की परिस्थिति के अनुसार ही प्रत्येक मामले में न्यूनतम बहाव का निर्धारण किया जाना चाहिए। पर्यावरण प्रभाव आकलन की शर्त है कि नदियों में न्यूनतम बहाव कायम रखा जाए। इसका आकलन नदी के बहाव के पिछले 30-40 वर्षों के आंकड़ों के आधार पर करते हैं। ये आंकड़े उन्हें केन्द्रीय जल आयोग द्वारा उपलब्ध करवाए जाते हैं। परंतु अधिकांश मामलों में इन रिपोट्र्स को गंभीरता से नहीं लिया जाता। डब्ल्यूडब्ल्यूएफ की नीति एवं कार्याम विकास विभाग की वरिष्ठ संयोजक विद्या सुंदरराजन का न्यूनतम बहाव की अवधारणा को सिरे से नकारते हुए कहना है कि इसका आकलन मात्र मनुष्यों की आवश्यकता के लिहाज से किया जाता है। वस्तुतः इसके आकलन के समय पर्यावरण की आवश्यकताओं व भूमिगत जलपुनर्भरण, सिंचाई, शहरी आवश्यकताएं, जलवायु, जलीय ऑक्सीजन, मिट्टी का जमाव जैसे मुद्दों पर भी विचार किया जाना चाहिए ।

ईआईए बांधों में मिट्टी के जमाव के मुद्दे पर भी खामोश है जबकि जमाव से निपटने का खर्च परियोजना लागत का 20 से 30 प्रतिशत तक होता है। मानेरी भाली द्वितीय के बैराज में नौ करोड़ टन मिट्टी प्रतिवर्ष बहकर आती है। गंगा के निचले इलाके व बंगाल की खाड़ी स्थित कृषकों के लिए बहकर आई यह मिट्टी बहुत उपयोगी होती है। किंतु नये बांध इसे वहीं रोक लेंगे। इस मुद्दे पर भी कोई ध्यान नहीं दिया गया है। बांधों की ईआईए रपटों पर अमेरिका की एनवायरमेंट लॉ अलायंस वर्ल्डवाइड द्वारा किए गए आकलन के अनुसार मिट्टी का यह जमाव निचले इलाके में गंगा को एक “भूखी नदी’ बना देगा। चूंकि पानी में मिट्टी की कमी होगी अतः निचले इलाकों में यह अपनी प्राकृतिक क्षुधा को अपने ही किनारों को काटकर शांत करेगी। इस वजह से जैविक खाद्य श्रृंखला प्रभावित होने से निचले इलाकों में कई-कई किलोमीटर तक मत्स्यपालन पर भी विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

राज्य विद्युत मंडल जो इनके प्रमुख ग्राहक हैं, को भी नुकसान उठाना पड़ेगा। क्योंकि विद्युत मिले या न मिले वे तो एक निश्र्चित रकम चुकाने के लिए बाध्य हैं। सब्सिडी आधारित वर्तमान शुल्क संरचना पनबिजली परियोजनाओं को निवेश के लिए आकर्षक विकल्प तो बनाती है किंतु उन्हें विद्युत उत्पादन को ऊँचा रखने अथवा संसाधनों के पूर्ण उपयोग हेतु प्रोत्साहित नहीं करती।

विशेषज्ञों का कहना है, “परियोजना स्थापित करने वाले उद्यमियों की भी रुचि बहाव और मिट्टी के जमाव के सही आकलन में नहीं होती। योजना बनाते समय बहाव के पुराने आंकड़ों का ही उपयोग किया जाता है। ऐसे में विद्युत उत्पादन अनुमान से काफी कम होता है। भारत में निगरानीशुदा जलाशयों में गत बारह वर्षों के दौरान संग्रहण क्षमता से 25 प्रतिशत तक कम जलभराव हुआ है और प्रति मेगावाट स्थापित क्षमता में 1994 की अपेक्षा 21 प्रतिशत की कमी हुई है। वास्तविकता यह है कि ज्यादातर बांध और पनबिजली परियोजनाएं गत 50 वर्षों के बहाव के आधार पर बनाई गई हैं, न कि वास्तविक बहाव और जलवायु एवं बहाव में संभावित परिवर्तन का आकलन करके।’ दक्षिण एशिया बांध, नदी व व्यक्तियों के नेटवर्क से जुड़े हिमांशु ठक्कर का कहना है कि परियोजनाओं को इस दावे के आधार पर स्वीकृति मिल जाती है कि वे अवलम्बित स्तर पर 90 प्रतिशत तक विद्युत उत्पादन में सक्षम होंगी। (इसका अर्थ यह भी है कि वे अपने अनुमानित जीवनकाल में क्षमता का 90 प्रतिशत विद्युत उत्पादन करती रहेंगी)। इसे ड़िजाइन जेनरेशन भी कहा जाता है। वहीं केन्द्रीय विद्युत प्राधिकारी से प्राप्त पिछले 23 वर्षों के आंकड़े बताते हैं कि वर्तमान कार्यशील परियोजनाओं में से 89 प्रतिशत निर्धारित स्तर से कम विद्युत उत्पादन कर रही हैं।

हिमालय पर्वतश्रृंखला अपेक्षाकृत नई है। जिससे यहॉं बारिश के मौसम में भूस्खलन आदि का खतरा बना रहता है। विस्फोट, खुदाई, सुरंग निर्माण और मिट्टी के बड़ी मात्रा में ढेर लगाने से यह खतरा और बढ़ सकता है। इस क्षेत्र में भूकंप की आशंका भी बनी रहती है। अतः सबसे बड़ा खतरा तो यही है। हालांकि उद्यमियों को इसकी कोई चिंता नहीं है। एनटीपीसी के अधिकारी कहते हैं कि अब तकनीक बहुत उन्नत हो गई है अतः बांधों को कोई खतरा नहीं है। वहीं नेशनल जिओफिजिकल रिसर्च इंस्टीट्यूट, हैदराबाद के हर्ष गुप्ता का प्रश्र्न्न है कि बांधों के आस-पास के पर्यावरण का क्या होगा? अगर भूकंप आता है तो नदी मलबे से भर जाएगी और वह जब बांधों में इकट्ठा होगा तो उनका जीवनकाल वैसे ही सिकुड़ जाएगा। इसी संस्थान के वी.पी. डिमारि का कहना है कि हिमालय अंचल में चट्टानें ठीक से जमी हुई नहीं हैंं, खासतौर से सतह से थोड़ा नीचे। इसलिए जब सुरंगें खोदी जाएंगी तो ऐसी ढीली चट्टानें भी उसमें मिलने की संभावना है। ऐसे में सुरंग के ऊपर अगर पर्याप्त ठोस छत नहीं होगी तो सुरंग के दरकने के खतरे ज्यादा होंगे।

आम तौर पर स्थानीय निवासियों से किये जाने वाले क्षतिपूरक जमीन और रोजगार के वादे भी पूरे नहीं होते। यहॉं प्रभावित सत्तर परिवारों में से सिर्फ 35 लोगों को रोजगार मिला, वह भी चौकीदारी का। इतनी कवायद, विस्थापन, पर्यावरण ह्रास और खतरों को निमंत्रण की कीमत पर भी विद्युत उत्पादन एक सपना ही रह जाता है। त्रुटिपूर्ण नीतियां अक्षम परियोजनाओं को ही प्रोत्साहित करेंगी। अगर प्रत्येक योजना का अधिकतम लाभ उठाया जाए तो पूरे दृश्यपटल को ही बदल देने वाली योजनाओं की आवश्यकता ही नहीं पड़ेगी। किसी परियोजना को अनुमति देने के पूर्व ही जलवायु परिवर्तन, जल संबंधी आकड़ों, ग्लेशियर के पिघलने और विस्तृत तलछट भार संबंधी अध्ययन अनिवार्य कर दिया जाना चाहिए। योजनाकर्ताओं को यह ध्यान में रखना होगा कि नदी एक महत्वपूर्ण सम्पदा है।

– रावलिन कौर व टॉम केन्डाल

You must be logged in to post a comment Login