पिछले कुछ सालों में भारत की खूबियों को लेकर विश्र्व स्तर पर कई सर्वे हुए हैं। बीबीसी, एसोसिएटेड प्रेस और अमेरिकन फॉरेन पॉलिसी जैसे मीडिया समूहों/संस्थानों ने भारत के बारे में दुनिया के लोगों की जो राय जानी है, उन सभी में फिदा एक मत से भारत की दो खूबियों पर दुनिया के लोग हैं। भारत की ये दो खूबियां हैं- यहां का जीवंत लोकतंत्र और महात्मा गांधी की विरासत।
लेकिन आजादी के 60 सालों बाद दुनिया के लोगों को भले भारत में लोकतंत्र बहुत ही आकर्षक लग रहा हो, खुद भारतीयों के लिए यह कई तरह की आशंकाओं से घिरा एक सवाल बन चुका है। क्या भारत का लोकतंत्र वाकई लोक को मजबूत कर रहा है? इसमें कोई दो राय नहीं कि पिछले छह दशकों में हमारे यहां राजनीतिक सत्ता की निरंतरता बनी हुई है मगर क्या वास्तव में इस निरंतरता में आम आदमी मजबूत और महत्वपूर्ण हुआ है? क्या उसकी गरिमा, क्या उसका भविष्य क्या उसका वर्तमान सुरक्षित और सम्मानित है? दुनिया के लोगों के लिए भले इन तमाम सवालों के जवाब जो भी हों, लेकिन आम हिंदुस्तानी इन सवालों का जवाब तत्परता से नहीं दे सकता। एक हिचक उनके हर सकारात्मक से सकारात्मक जवाब के साथ नत्थी हो जाती है।
लेनिन कहा करते थे, “आजादी बहुत अच्छी चीज है लेकिन आजादी समाज को होनी चाहिए, यह व्यक्ति की क्षमताओं पर निर्भर नहीं होनी चाहिए।’ भारत की आजादी दूसरी तरह की है। यहां जो व्यक्ति जितना सक्षम है उसे उतनी आजादी मिल रही है। एक तरफ हिंदुस्तान विकास के ऐतिहासिक सफर में आगे बढ़ रहा है, तमाम तात्कालिक नकारात्मक रूझान के बावजूद पिछले एक दशक से भारत की सालाना आर्थिक विकास दर 9 फीसदी या उसके ऊपर बनी हुई है। 25 करोड़ से ज्यादा लोग दुनिया के किसी भी समृद्घ देश के समृद्घ उपभोक्ताओं से टक्कर ले रहे हैं। हिंदुस्तान में आज दुनिया की हर बड़ी और मशहूर कार कंपनी अपनी कारें बनाने और बेचने को बेताब हैं। क्योंकि भारत में बड़े पैमाने पर उनके खरीदार मौजूद हैं।
अब इस हकीकत का एक दूसरा पहलू भी देखिए। भारत की संसद में भारत की सरकार द्वारा ही इस बात को स्वीकारा गया है कि देश में 70 फीसदी से ज्यादा ऐसे लोग हैं जिन्हें हर दिन आधे डॉलर यानी 18 से 20 रुपये में ही गुजर-बसर करना पड़ता है। विभिन्न राष्टीय पोषाहार सर्वेक्षणों का आकलन है कि ज्यों-ज्यों भारत में समृद्घि बढ़ रही है, एक बड़ा तबका न्यूनतम पौष्टिक खुराक के दायरे से वंचित होता जा रहा है। 45 फीसदी से ज्यादा लोग संतुलित खुराक इसलिए नहीं हासिल कर पा रहे क्योंकि उनकी ायशक्ति इस लायक नहीं है।
भारत की लचीली लोकतांत्रिक व्यवस्था की पूरी दुनिया में तारीफ होती है। लेकिन 60 सालों बाद भी क्या हिंदुस्तान में लोकतंत्र का ऐसा बुनियादी ढांचा तैयार हो सका है जिसमें कोई भी आम आदमी अपनी हिस्सेदारी हासिल कर सके? यह एक विडम्बना ही है कि जैसे-जैसे हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था अनुभवी होती जा रही है, प्रौढ़ होती जा रही है वह उतनी ही जटिल और आम लोगों से दूर होती जा रही है। पंचायत के चुनावों से लेकर लोकसभा चुनावों तक धीरे-धीरे आम आदमी ही नहीं, ईमानदार खास आदमी की भी यहां जगह खत्म हो रही है। छोटे से छोटे चुनावों के लिए करोड़ों रुपये खर्च हो रहे हैं। जोड़-तोड़, सांठ-गांठ के समीकरण दिन पर दिन जटिल होते जा रहे हैं। ऐसे में विदेशियों को भले भारत में लोकतंत्र एक निरंतर और जीवंत प्रिाया लग रही हो लेकिन आम हिंदुस्तानी जानता है कि लोकतंत्र महज एक मशीनी खेल बन चुका है।
खुलेआम ग्राम पंचायत के सदस्यों से लेकर लोकसभा और राज्यसभा के सदस्यों तक का मोलभाव हो रहा है। पिछले दिनों मनमोहन सरकार के विश्र्वास मत हासिल करते समय लोकसभा में नोटों की जो गड्डियां लहरायीं वह हमारे लोकतंत्र पर लगा अब तक का सबसे बड़ा सवालिया निशान था। मगर इसके बाद भी क्या राजनीतिक पार्टियां, क्या भारत के जनतंत्रवादी नागरिक विचलित हुए हैं? बिल्कुल नहीं। क्योंकि लोकतंत्र वास्तव में पैसों का खेल बन चुका है। हमारे यहां किस तरह यह बाहुबलियों और धनकुबेरों की जेब में चला गया है इसका अंदाजा नवंबर, 2004 में बेंगलूर के पब्लिक अफेयर सेंटर ने दिया था। इस संस्थान ने देश की 14वीं लोकसभा के सांसदों का एक विस्तृत लेखाजोखा तैयार किया था जो लेखाजोखा किसी की भी आंख खोल दे और किसी को भी झकझोर कर रख दे। पैसा, ताकत या प्रभाव। भारतीय संसद इन सबका शिखर बन चुकी है। भले दुनिया में भारत की गिनती गरीब देशों में होती हो लेकिन भारतीय संसद की गिनती दुनिया की सबसे अमीर संसद में होती है। यहां तक कि अमेरिका और जापान की संसदों से भी हमारी संसद के सदस्य अमीर हैं। भारत ही पूरी दुनिया में एकमात्र ऐसा देश है जहां की संसद के एक-चौथाई सांसद मिलेनियर हैं यानी करोड़ों में खेलते हैं और सच बात तो यह है कि यह तो आधिकारिक संपत्ति की बात है। भारतीय राजनेता अनाधिकारिक तौर पर किस कदर पैसे वाले हैं इसका अंदाजा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि स्विट्जरलैंड के बदनाम स्विस बैंकों में सबसे ज्यादा काला धन भारतीय राजनेताओं का ही माना जाता है। भारत की संसद का हर सदस्य औसतन पौने दो करोड़ रुपये की संपत्ति का मालिक है। सिर्फ कम्युनिस्ट ही अपवाद हैं। जो पार्टी जितनी पुरानी है उसके संसद सदस्य उतने ही ज्यादा संपन्न हैं। मसलन, कांग्रेस के 63 सांसद करोड़पति हैं जोकि उसकी कुल संसद सदस्यों की संख्या का 45 फीसदी है। आमतौर पर कहा जाता है कि जो जितना ज्यादा पढ़ा-लिखा होगा उसकी आय उतनी ही ज्यादा होगी। लेकिन भारतीय संसद का आंकड़ा इसके जरा उलट है। यहां जो सांसद जितना कम पढ़ा-लिखा है वह उतना ही ज्यादा संपन्न है। पढ़े-लिखे सांसदों के पास औसतन संपत्ति जहां 1.4 करोड़ रुपये है वहीं गैर-पढ़ेलिखे या कम पढ़े-लिखे संसद सदस्यों के पास औसतन संपत्ति 2 करोड़ रुपये से ऊपर की है।
भारत के लोकतंत्र की खूबी का गुणगान पूरी दुनिया गाती है। लेकिन लगता है कि हिंदुस्तान लोकतंत्र की इस खूबी से ही लहूलुहान हो गया है। आज यूं तो दुनिया का हर देश आतंकवाद से पीड़ित होने की बात कर रहा है लेकिन पूरी दुनिया में एक इराक और अफगानिस्तान को छोड़ दें, तो भारत से ज्यादा आतंकवाद से पीड़ित शायद ही कोई दूसरा देश हो और बार-बार आतंकवाद अगर हमें लहूलुहान कर रहा है तो इसकी भी सबसे बड़ी वजह हमारा खूबियों से भरा लोकतंत्र है। जो आतंकवादियों पर इसलिए कड़ी कार्यवाई नहीं कर पा रहा क्योंकि यह लोकतंत्र के विरुद्घ होगी। इससे निपटने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति इसलिए नहीं जुटा पा रहा क्योंकि लगता है कि कहीं एक बड़ा तबका राजनीतिक पार्टियों के खिलाफ न हो जाए और इस तरह राजनीतिक समीकरण में उसे वोटों का खामियाजा न भुगतना पड़े। भारत का आज कोई भी शहर सुरक्षित नहीं है। कोई भी बड़ा से बड़ा और संवेदनशील से संवेदनशील सार्वजनिक स्थल सुरक्षित नहीं है। पहले बम विस्फोट एक-दो होते थे। इसके बाद यह संख्या दो-चार पर पहुंची लेकिन अब सीरियल बम धमाकों का सिलसिला एक बार जब शुरू होता है तो 14-14 बमों के फटने तक निरंतर चलता रहता है।
पहले एक बार जब कहीं बम धमाका होता था तो उसके बाद आतंकवादी काफी दिन तक दुबके रहते थे। उन्हें डर रहता था कि अगर तुरंत कहीं दूसरी जगह कोई कारनामा किया तो पकड़े जाएंगे। लेकिन अब तो उन्हें इसका भी खौफ नहीं रहा। बेंगलूर में किए गये बम धमाकों के तुरंत बाद अगला निशाना अहमदाबाद को बनाया गया। महज 24 घंटे के भीतर। वह भी तब जबकि देश के तमाम बड़े और मझोले शहर हाई अलर्ट पर थे। इसके बावजूद भी हमारे गृहमंत्री और दूसरे जिम्मेदार नेता लोकतंत्र की दुहाई देते हुए आम जनता का आह्वान करते हैं कि वे सहनशीलता का परिचय दें। मगर शायद राजनेता भूल रहे हैं कि अगर वह आम लोगों से सहनशीलता दिखाने की अपील न भी करें तो हिंदुस्तान के लोग इसके अलावा और कुछ कर भी नहीं सकते। दरअसल आतंकवाद महज एक राजनीतिक इच्छा की कमी का ही नतीजा नहीं है बल्कि सामाजिक स्तर पर भी यह आम भारतीयों की उदासीनता और गहरे राष्टबोध के अभाव का नतीजा है।
देश में कहीं पर भी अगर आतंकवाद की कोई वारदात होती है तो राजनीतिक पार्टियों के रस्मी विरोध के अलावा आज तक हिंदुस्तान में आम नागरिकों की तरफ से ऐसी घटनाओं का कोई स्वतःस्फूर्त विरोध नहीं दिखा। जो तथाकथित उग्रता या बंद जैसे कारनामे दिखते भी हैं तो वह बाकायदा राजनीतिक पार्टियों द्वारा व्यवस्थित होते हैं। कहने का मतलब यह है कि इस देश में अगर लोकतंत्र एक जीता-जागता मजाक बन गया है, अगर वह लहूलुहान हो चुका है तो इसमें सिर्फ सरकार की या राजनीतिक पार्टियों की ही भूमिका नहीं है बल्कि बड़े पैमाने पर उन भारतीय नागरिकों का भी इसमें योगदान है जो चाहते तो हैं कि भारत मजबूत और सुरक्षित बने मगर वे खुद इसके लिए जरा भी जिम्मेदारी नहीं उठाना चाहते।
अगर भारतीय नागरिक जिम्मेदार हो जाएं तो भारत की संसद में हर चौथा आपराधिक पृष्ठभूमि का सदस्य न पहुंचे। लेकिन यह शायद लम्बे समय तक की गुलामी का बोध ही है कि हमें ताकत आकर्षित करती है, ताकत नफरत नहीं पैदा करती। अगर ताकत से नफरत पैदा होती तो अतीक अहमद, मित्रसेन यादव, मुहम्मद शहाबुद्दीन जैसे राजनेता भारत की संसद में न पहुंचे होते। अतीक अहमद के विरुद्घ 36 मुकदमे हैं। फिलहाल वह जेल में हैं। लेकिन इससे उन्हें कोई फर्क नहीं पड़ता। यहां तक कि विशेषाधिकार भी नहीं खत्म होते। पिछले दिनों जब सरकार ने संसद में विश्र्वास मत हासिल किया तो इन अपराधी सांसदों की अगवानी की गयी। संसद में आने और वोट डालने के लिए उनके रास्ते में लाल कालीन बिछाये गये और जाजिम बिछाने वाले किसी एक पार्टी के ही नेता नहीं थे, हम्माम में सब नंगे हैं। क्या इस सबके बावजूद भी आप कह सकते हैं कि 60 साल के बाद हमारे यहां जो लोकतांत्रिक ढांचा तैयार हुआ है, उसमें हम सुरक्षित हैं? शायद नहीं।
भले कभी जॉर्ज वाशिंगटन ने लोकतंत्र को आम लोगों की सबसे बड़ी राजनीतिक इच्छा बताया हो या जेफरसन ने इसे आम आदमी की ताकत कहा हो। लेकिन भारत में लोकतंत्र गणित का तिकड़मी समीकरण भर है। यहां चुनाव जीतने के लिए महज कुछ फार्मूलों की जरूरत पड़ती है और जब तक फार्मूलों की यह फसल फल-फूल रही है, विदेशी सर्वे भले भारत में निरंतर मजबूत होती लोकतांत्रिक विचारधारा को हमारी सबसे बड़ी खूबी मानें। हकीकत तो हिंदुस्तानी ही जानते हैं कि यह लोकतंत्र किस कदर बड़े-बड़े काले कारनामों की मजबूत ढाल बन गया है।
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आज भारत में इंसाफ और सुरक्षा सिर्फ कुछ खास लोगों की पारिवारिक जायदाद बन गयी है। देश में ढाई करोड़ से ज्यादा मुकदमे छोटी से लेकर बड़ी विभिन्न अदालतों में लंबित हैं। लेकिन न तो सरकार के और न ही अदालतों के सिर में जूं रेंगती है। हर साल 2 लाख से ज्यादा लोग विभिन्न तरह की आतंकवादी हिंसाओं का शिकार हो रहे हैं। 1.5 लाख से ज्यादा लोग हत्या और दूसरी आपराधिक घटनाओं का शिकार होते हैं। देश में पिछले 60 सालों के दौरान भले दूसरे क्षेत्रों में इतनी तरक्की न हुई हो लेकिन अपराध का ग्राफ इन 60 सालों में 30 हजार फीसदी तक बढ़ चुका है। यह इतना बड़ा प्रतिशत है कि चौंकाता भी नहीं है अपितु सीधे हताशा के गर्त में ले जाकर धकेल देता है। भ्रष्टाचार का आलम यह है कि टंासपेरेंसी इंटरनेशनल के मुताबिक भारत भ्रष्टाचार की सूचिका में भले तमाम देशों से नीचे हो, मगर जहां तक भ्रष्टाचार की धनराशि का सवाल है उस हिसाब से यह दुनिया के पहले-दूसरे नंबर के देशों में आता है। देश का कोई भी ऐसा सरकारी महकमा नहीं है जहां के लिए कहा जाए कि यह महकमा भ्रष्टाचार से मुक्त है। 28 लाख करोड़ रुपये की पिछले एक दशक में हिंदुस्तानियों द्वारा घूस दी गयी है। भ्रष्टाचार भारत की लोकतांत्रिक व्यवस्था के लिए ही नहीं, सामाजिक व्यवस्था के लिए भी एक नासूर बन गया है। कोई ऐसा क्षेत्र नहीं बचा जहां भ्रष्टाचार ने अपने पांव न पसार लिए हों और अब यह भारत के नित्य-निरंतर लोकतंत्र के लिए एक लाइलाज बीमारी बन गया है। भ्रष्टाचार अब इस कदर सर्वग्राह्य और सर्वस्वीकार्य हो चुका है कि इसे ज्यादातर लोग अपराध ही नहीं मानते। क्या यह सब लोकतंत्र की विफलता नहीं है? भारत में भ्रष्टाचार और नाइंसाफी को लेकर लोग जिस कदर इस समय निराश हैं उतने शायद ही कभी रहे होंगे। जिस समय मैं यह पंक्तियां लिख रहा हूं, सामने पड़े एक अखबार में 38 साल बाद एक महिला को अपने पति की धोखाधड़ी के विरुद्घ न्याय मिला है। पति को अदालत ने एक साल की स़जा सुनाई है। लेकिन अब वह महिला, जिसके ठगे जाने का यह मामला है, वह इस दुनिया में ही नहीं है। देश में ज्यादातर मुकदमों का यही हाल है। 50-50 साल, 60-60 साल तक मुकदमे लंबित पड़े रहते हैं। 5 से 10 साल तक तो लंबित पड़े रहना एक आम बात हो गयी है। क्या तब भी कहा जा सकता है कि हिंदुस्तान वास्तव में सजग और संवेदनशील लोकतंत्र का घर है?
– लोकमित्र
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