म्यांमार के बारे में ताजा खबर है कि वहॉं की सैनिक सरकार ने वहॉं की लोकप्रिय नेता सू ची की ऩजरबंदी की अवधि एक वर्ष और बढ़ा दी है।
म्यांमार में हाल में आये समुद्री तूफान “नर्सिंग’ की त्रासदी के बाद वहां का युवा वर्ग और वहां के बौद्घ भिक्षु यह सोचने को मजबूर हो गये हैं कि क्या सू ची के अहिंसक आंदोलन से उनकी समस्याओं का समाधान हो सकेगा? म्यांमार पूरी तरह सैनिक शासकों की गिरफ्त में है और उसे चीन का भरपूर समर्थन प्राप्त है। इसी कारण संसार के अन्य देशों से कट कर अलग-थलग होने के बावजूद भी म्यांमार अंतर्राष्टीय जनमत की परवाह नहीं करता है।
गत वर्ष सितम्बर के महीने में बौद्घ भिक्षुओं और आम जनता ने सैनिक शासकों के खिलाफ व्यापक जन आंदोलन किया था। परंतु म्यांमार की सेना ने इन अहिंसक प्रदर्शनकारियों को जिनकी संख्या ह़जारों में थी, बुरी तरह कुचल दिया। आज म्यांमार की यह हालत है कि उसके प्रसिद्घ शहर रंगून में जो पहले म्यांमार की राजधानी हुआ करता था, लोग डर और आतंक के साये में जी रहे हैं। वहां आम लोगों की धारणा यह है कि सैनिक शासकों के मुखबिर और पुलिस के अफसर सादे कपड़ों में गली-मोहल्लों में घूमते रहते हैं। स्थिति इतनी खराब है कि पति अपनी पत्नी से और पत्नी, पति से भी सैनिक शासकों के खिलाफ मंत्रणा नहीं कर सकते हैं। क्योंकि उन्हें हर घड़ी यह डर लगा रहता है कि सेना के मुखबिर या पुलिस के सिपाही उन्हें कभी भी गिरफ्तार कर जेल में डाल सकते हैं जहॉं उन्हें बरसों सड़ना होगा।
म्यांमार की आम जनता की बद से बदतर होती हालत में बहुत बड़ा मोड़ तब आया जब पिछले दिनों समुद्री तूफान “नर्सिंग’ में लाखों लोगों की मृत्यु हो गई। पूरे संसार के देशों ने म्यांमार के पीड़ित लोगों की मदद करने के लिए राहत भेजी। खासकर अमेरिका के कई समुद्री जहाज म्यांमार के समुद्री तट पर राहत सामग्री लेकर कई सप्ताह खड़े रहे। परंतु सैनिक सरकार ने तूफान पीड़ितों में इस राहत सामग्री को बांटने की इजाजत नहीं दी। विदेशों से आया हुआ अधिकतर राहत सामान वापस लौट गया और तूफान पीड़ित जनता का एक बहुत बड़ा वर्ग भूख और बीमारी के कारण तड़प-तड़प कर मर गया। म्यांमार एक तरह से बंद समाज है जहॉं विदेशी पत्रकारों और मीडिया कर्मियों को जाने की इजाजत नहीं है। फिर भी जो छिटपुट पत्रकार और टीवी चैनलों के कर्मचारी म्यांमार के तूफान पीड़ितों के पास पहुँच सके उन्होंने म्यांमार की स्थिति के बारे में बाहर की दुनिया को जो बताया उससे सभी दंग रह गये। छोटे-छोटे बच्चे भोजन और दवा के अभाव में तड़प-तड़प कर मर गये परंतु म्यांमार के सैनिक शासकों को उन पर ़जरा भी दया नहीं आई। जब लाखों मृतक व्यक्तियों की लाशों से इरावती नदी का मुहाना अवरुद्घ हो गया तो उन लाशों को जलाने या गाड़ने के बजाय सैनिक शासकों ने तोपों से उन्हें उड़ा दिया जिससे इरावती नदी का मुहाना खुल जाए और उस नदी का जल आसानी से समुद्र में गिर जाये। संसार में ऐसी बर्बरता द्वितीय विश्र्वयुद्घ के हिटलर के समय में भी नहीं देखी गई थी।
जो छिटपुट पत्रकार आपदा के समय म्यांमार गये और जिन्होंने स्थानीय पीड़ित लोगों से बातें कीं, उनका कहना था कि सैनिक सरकार ने विदेशियों से सहायता इसलिए नहीं ली कि ये विदेशी आम जनता में घुलमिल जाते और उन्हें सैनिक सरकार के खिलाफ विद्रोह करने के लिए उकसाते। उन्हें सबसे अधिक डर अमेरिका का था। परंतु यह धारणा सरासर गलत थी। ये तूफान पीड़ित लोग अपनी जान बचाते या देश में लोकतंत्र बहाली की बात करते।
विदेशी पत्रकारों और मीडिया कर्मियों के सामने म्यांमार के युवा वर्ग के लोगों और बौद्घ भिक्षुओं ने आम जनता की लाचारी को अत्यंत ही दर्दनाक तरीके से वर्णित किया। उन्होंने कहा कि म्यांमार कभी भारत का अंग हुआ करता था और सदियों से उसका भारत के साथ सांस्कृतिक संबंध था। अभी भी म्यांमार की अधिकतर जनता बौद्घ है और बौद्घ धर्म भारत से ही आया है। म्यांमार की आम जनता भारत को ही आशा भरी निगाह से देखती है। उन्हें बड़ी उम्मीद थी कि भारत म्यांमार के सैनिक शासकों को समझा-बुझा कर राजी कर लेगा कि आंग सांग सू ची को जेल से रिहा कर दिया जाएगा और देश में लोकतंत्र की बहाली होगी। परंतु या तो चीन के डर से या यह सोचकर कि कहीं म्यांमार के सैनिक शासकों से भारत का संबंध अत्यंत कटु न हो जाए, भारत ने इस दिशा में कोई पहल नहीं की। इन लोगों ने मीडिया कर्मियों को यह भी बताया कि भारत के उत्तर-पूर्वी राज्यों के आतंकवादी म्यांमार में छिपकर रह रहेे हैं और उन्हें म्यांमार की सैनिक सरकार का संरक्षण प्राप्त है। भारत सरकार को इस सच्चाई का पूरा पता है परंतु वह सब कुछ देख कर अनजान बनी हुई है।
म्यांमार के नाराज हुए युवा वर्ग ने पत्रकारों को यह भी बताया कि इसमें कोई संदेह नहीं कि अमेरिका की सहानुभूति म्यांमार की पीड़ित जनता के साथ है, परंतु आर्थिक प्रतिबंध लगाकर अमेरिका ने सैनिक शासकों का कोई नुकसान नहीं किया। नुकसान आम गरीब जनता का हुआ। उन्होंने कहा कि म्यांमार की गरीब जनता, खासकर महिलाओं की रोजी-रोटी का एक बहुत बड़ा साधन सिले-सिलाये कपड़े थे जिसका अमेरिका और पश्र्चिम के देशों में निर्यात होता था। अमेरिका ने सैनिक शासकों को सीख देने के लिए इस तरह के सिले-सिलाए कपड़ों का आयात बंद कर दिया और उसकी देखा देखी अन्य पश्र्चिमी देशों ने भी इस तरह का आयात बंद कर दिया। नतीजा यह हुआ कि लाखों गरीब म्यांमारवासी जिनमें महिलाओं की संख्या अधिक थी, भूखे रहने को लाचार हो गए। उनका कहना था कि अमेरिका म्यांमार की गरीब जनता की समस्याओं को अच्छी तरह समझ नहीं सकता है और जल्दबाजी में ऐसे कदम उठा लेता है जिसके दुष्परिणाम म्यांमार की गरीब जनता को भुगतना पड़ता है।
इन विदेशी पत्रकारों को यह भी बताया गया कि उन्हें आसियान से बड़ी उम्मीद थी। म्यांमार आसियान का सदस्य है। यदि आसियान के सभी सदस्य एकजुट होकर सैनिक सरकार को यह धमकी देते कि म्यांमार में शीघ्रातिशीघ्र लोकतंत्र की बहाली की जाए और आम जनता के हित की कल्याणकारी योजना शुरू की जाए तो सैनिक सरकार की यह हिम्मत नहीं होती कि आम जनता पर इतना अत्याचार करे।
तूफान के दौरान म्यांमार में गये हुए पत्रकारों को यह पता लगा कि सैनिक सरकार के अत्याचारों के विरोध में वहॉं के युवा वर्ग में सोइ ऑग के नेतृत्व में “नेशनल कौंसिल ऑफ द यूनियन ऑफ बर्मा’ नाम की एक संस्था बनाई है जिसका मुख्यालय म्यांमार और थाईलैंड की सीमा पर स्थित है। यह संस्था म्यांमार के युवकों को गुरिल्ला युद्घ में प्रशिक्षित कर रही है। इनका कहना है कि सू ची के अहिंसक आंदोलन से बात नहीं बनेगी। अंग्रेज म्यांमार के सैनिक शासकों से ज्यादा सभ्य थे। इसलिए उन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन से ऊबकर भारत को आ़जादी दे दी थी। उनका यह भी कहना है कि महात्मा गांधी के अहिंसक आंदोलन के अलावा नेताजी सुभाषचंद्र बोस बर्मा तक आईएनए की लड़ाकू फौज को ले आये थे। यदि द्वितीय विश्र्वयुद्घ समाप्त नहीं होता तो नेता जी की आईएनए फौज भारत में कूच कर उसे आजादी दिला देती। उनके मुताबिक सू ची को यह भ्रम है कि सैनिक सरकार कभी तो पिघलेगी और उन्हें आजाद कर उनकी पार्टी “नेशनल लीग फॉर डेमोोसी’ को देश में सरकार बनाने की इजाजत देगी। सू ची का पूरा सम्मान करते हुए उन्होंने कहा कि वह अपना आंदोलन जारी रखें। परंतु “नेशनल काउंसिल ऑफ दि यूनियन ऑफ बर्मा’ अपना छापामार युद्घ जारी रखेगी। इतिहास बताता है कि जब किसी देश का युवा वर्ग हर तरह के त्याग को तैयार हो जाता है और देश की आजादी के लिए छापामार युद्घ शुरू कर देता है तो बड़े से बड़े अत्याचारी भी देर या सवेर उसके सामने घुटने टेक देते हैं।
इस छापामार युद्घ का संचालन करने वाली संस्था का कहना है कि उनका विरोध सू ची से नहीं है। वे एक अत्यंत ही सम्माननीय नेता हैं। वे अपना अहिंसक आंदोलन जारी रखें। उधर ये छापामार प्रशिक्षित गुरिल्ला दस्ता सैनिक सरकार को हर तरह से छापामार युद्घ के द्वारा तबाह करती रहेगी। स्थानीय लोगों का उन्हें समर्थन प्राप्त है। अतः चीन चाहकर भी सैनिक सरकार को बहुत अधिक मदद नहीं कर सकेगा। कुल मिलाकर स्थिति यह बन गई है कि म्यांमार के युवा वर्ग और बौद्घ भिक्षु मरने-मारने को तैयार हैं और उन्हें इस बात का पूरा भरोसा है कि अहिंसक आंदोलन से म्यांमार की जनता को सैनिक शासकों से निजात नहीं मिल सकेगी। आने वाला समय म्यांमार की राजनीति में निर्णायक होगा।
– डॉ. गौरीशंकर राजहंस
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