विशेष परिस्थितियों में मनुष्यों का निर्णय खास तरह का होता है। जैसे अभी कुछ राज्यों में बाढ़ आई थी, लोगों का व्यवहार कैसा रहा। डूब के इलाके से जैसे-तैसे भी हो, उंचे इलाकों में भागकर जाने और किसी तरह जान बचा लेने की प्रवृति होती है। अभी पश्र्चिमी और विशेष रूप से अमेरिकी बाजार के वित्तीय संकट से सारा संसार प्रभावित हुआ। भारत का बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज भी लुढ़क कर करीब दस हजार के आसपास पहुंच गया। ऐसे में सामान्य प्रवृति यह होती है कि जिस भाव भी हो वह अपने शेयर बेचकर जितना भी हो, अपनी पूंजी बचा ले। और इसीलिए पिछले कुछ महीनों से बिकवाली पर जोर है। ऐसी सब स्थितियों के लिए शोधार्थी व्यापक शोध करते रहते हैं। अभी चार-छह महीनों में भारत में आम चुनाव होने वाले हैं। ऐसे में मतदाताओं का रुख क्या रहेगा, इसके बारे में व्यापक जिज्ञासा है। इसका खास कारण है। पिछले साढ़े चार वर्षों में मंहगाई ने साल दर साल ऐसी छलांगें लगाई हैं कि आम लोग तो त्राहि-माम, त्राहि-माम कर ही रहे हैं, गरीब, दैनिक मजदूर, खेतिहर मजदूर, वेतनभोगी सब के सब मंहगाई की मार से त्रस्त नजर आ रहे हैं।
सवाल यह खड़ा होता है कि ऐसी अभूतपूर्व मंहगाई में मतदाताओं का क्या व्यवहार रहेगा ? क्या वह मौजूदा सत्ताधारी वर्ग के पक्ष में फिर मतदान करेगा या उन्हें अपने आाोश का शिकार बनाएगा? बनाएगा तो किस मात्रा में ? विशेष रूप से पिछले दो वर्षों में आतंकवादी घटनाओं ने आम जनता में खौफ का एक वातावरण बना दिया है। क्या इसका मतदान पर कोई असर होगा? होगा तो कितना ? मंहगाई से ज्यादा होगा या कम? हाल ही में एक अखिल भारतीय सर्वेक्षण के अनुसार देश में पचास प्रतिशत से ज्यादा लोग सिलसिलेवार विस्फोटों और जानमाल की हानि से भयााांत हैं। क्या ये लोग आतंकवाद के साथ ढीलढाल बरतने वाली संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन के खिलाफ मतदान करेंगे? प्रायः सभी आकलनकर्ताओं का यह निष्कर्ष है कि आतंकवाद के सवाल पर लोगों में कांग्रेस के खिलाफ बहुत क्षोभ है। अक्सर लोग यह मानते हैं कि बढ़ती आतंकी घटनाओं के लिए कांग्रेस की वोटबैंक की नीति और आतंकवाद से निपटने में सरकारी ढीलढाल प्रमुख कारण है।
अगर कहीं समाज की आस्मता को चोट लगी है तो चोट मारने वालों के खिलाफ मतदान करके जनता की ओर से आाोश प्रकट किया जाता है। आस्मता का सवाल है ही ऐसा। और यही कारण है कि चुनाव अभियान में और सवालों के अलावा आस्मता के मुद्दे पर भी बहुत आग्रह किया जाता है। ऐसे तमाम सवाल मतदाताओं के रुझान को बनाते हैं। पक्ष या विपक्ष में मतदान कराते हैं और चुनाव परिणाम में खासा बड़ा असर डालते हैं।
बीसवीं सदी में एक जाने-माने शोध वैज्ञानिक हुए हैं। नाम है अब्राहम माश्लो। माश्लो ने 70 के दशक में मतदाताओं की आवश्यकताओं के आधार पर सिद्घांत गढ़ा कि इन आवश्यकताओं का मतदान पर क्या प्रभाव पड़ेगा। उन्होंने मतदाताओं को पांच भागों में श्रेणीबद्घ किया और उसके आधार पर उनके मतदान की प्रवृति का विश्लेषण किया। एक निष्कर्ष यह है कि वह आवश्यकताएं, जो पूरी नहीं हुई हों और खतरे की घंटी बजा रहीं हों, उनका मतदान पर सीधा असर पड़ता है। खासकर चुनाव के समय जो आवश्यकताएं बहुत तकलीफदेह हो जाती हैं, वह निर्णायक होती हैं। आज की पृष्ठभूमि में देखा जाए तो मंहगाई को ले सकते हैं। मंहगाईजन्य आवश्यकताएं पचास-साठ प्रतिशत जनता को पीड़ित-प्रताड़ित करती रहती हैं। उनको प्रभावित नहीं करतीं जो सब्जियों के बीस रुपये के बजाय चालीस-पचास रुपये किलो हो जाने से तनिक भी प्रभावित नहीं होती। लेकिन ऐसे भी पचास-साठ प्रतिशत लोग हैं जो या तो गरीबी रेखा के नीचे हैं या निम्न आय के वेतनभोगी लोग हैं। ऐसे तमाम लोगों का चुनावी रुझान सत्ता पक्ष के विरोध में होता है।
लेकिन माश्लो मानते हैं कि मंहगाई जैसे मुद्दों के मुकाबले आतंकवाद जैसे मुद्दे ज्यादा ठोस असर डालते हैं क्योंकि आतंक का भय उनका चैन और नींद छीन लेता है। किसी वर्ग के सामाजिक आस्मता का असर भी मतदान पर कई बार बहुत होता है। पिछले कुछ वर्षो में भारत सरकार ने मुसलमानों के पक्ष में इतनी तरफदारी की है कि आम तौर पर हिन्दू आस्मता को ठेस पहुंची है। वे दूसरे दर्जे का नागरिक होने का एहसास करने लगे हैं। बहुत से विश्लेषक मानते हैं कि माश्लो का सिद्घांत मतदान के व्यवहार के मामले में हर जगह हर चुनाव में लागू होता है। मोटे तौर पर माश्लो का सिद्घांत आगामी लोकसभा या विधानसभा चुनावों में भी प्रासंगिक होगा। बल्कि सच तो यह है कि अनेक चुनावी मुद्दों के अप्रभावी हो जाने के कारण यह पिछले डेढ़-दो वर्षों से प्रासंगिक बना हुआ है।
कुछ चुनाव परिणामों को देख लें जो इन वर्षों में आए हैं। पंजाब, हिमाचल, उत्तरांचल, दिल्ली नगर निगम, गुजरात और कर्नाटक के चुनावों में मतदाताओं ने कांग्रेस को झटका दिया और भाजपा का वरण किया। यह करीब-करीब विभिन्न श्रेणियों के मतदाताओं की आवश्यकताओं और उपलब्ध परिस्थितियों का परिणाम था। इस दौर के पहले जो चुनाव हुए, उसमें कांग्रेस को इतने ाोध का सामना नहीं करना पड़ा जितना इस दौर में। राजनैतिक दलों के नेता भी चुनावी मुद्दों का चयन मतदान पर उनके असर को ध्यान में रखकर करते हैं। इस आधार पर आगामी चुनाव के बाद लोकसभा में दलों का राजनैतिक अंकगणित क्या होगा, उसका आकलन किया जा सकता है। अभी हाल के विधानसभाई चुनाव के पिछले रिकॉर्ड और विभिन्न आधारों पर चुनाव परिणामों का आकलन किया जाना चाहिए। हम चाहें तो माश्लो का इसमें ध्यान रख सकते हैं।
पूरे देश की चुनावी तस्वीर को मैं राज्यों की ामवार सूची के हिसाब से नहीं देख रहा हूं। राज्यों का पहला समूह मैं राजनैतिक अंकगणित के आधार पर दे रहा हूं। राज्य हैं- कर्नाटक, महाराष्ट, गुजरात, मध्यप्रदेश, राजस्थान। ये पांचों राज्य भाजपा प्रभावित राज्य हैं। पिछले लोकसभा चुनावों में भी कर्नाटक में भाजपा को 18 सीटें मिली थीं और उसके बाद कर्नाटक में अकेले भाजपा की सरकार बन गई। मैं ये मानता हूं कि इन पांचों राज्यों में भाजपा को औसत 20 या 21 सीटें प्रति राज्य में मिलेंगी। इन पांच राज्यों में 100 से लेकर 105 सीटें भाजपा को मिलेंगी। अभी गुजरात चुनाव के बाद मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी ने ये दावा किया था कि हमारी पार्टी 25 की 25 सीटें जीतेगी। मध्यप्रदेश, राजस्थान में भी लोकसभा की सीटों में भाजपा का रिकॉर्ड कहीं बेहतर रहा है। और मैं इसलिए मानता हूं कि अगर यह आंकड़ा एकाध राज्य में कम रह जाए तो उसकी क्षतिपूर्ति दूसरे राज्य में हो जाएगी। यहां मैं भाजपा की संभावित सीटों का आकलन कर रहा हूं। छत्तीसगढ़, झारखण्ड, बिहार में भाजपा को न्यूनतम कुल मिलाकर 30 सीटें मिलने की संभावना है। अर्थात औसत 10 प्रति राज्य। असम, जहां इस बार असम गण परिषद से चुनावी समझौता है, और दूसरे उत्तर-पूर्वी राज्यों में भाजपा का आंकड़ा बढ़कर 10 होने की संभावना है। अभी यह सिर्फ 6 है। उत्तराखण्ड, हिमाचल, जम्मू-कश्मीर को मिलाकर भाजपा का आंकड़ा 10 तक पहुंच सकता है। दिल्ली, हरियाणा और पंजाब को मिलाकर भाजपा का यह आंकड़ा 12 पार कर सकता है। गोवा, दादर नगर हवेली, लक्ष्यद्वीप, आंध्रप्रदेश और तमिलनाडु मिलाकर भाजपा के ये आंकड़े 10 को पार कर 13 तक पहुंच सकते हैं।
अब थोड़ा उत्तर प्रदेश को देख लें। आमतौर पर यह माना जाता है कि भाजपा उत्तर प्रदेश में लगातार कमजोर होती गई है। और यह भी माना जाता रहा है कि जब तक भाजपा का आकंड़ा उत्तर प्रदेश में नहीं सुधरेगा तब तक केन्द्र सरकार की भाजपा की दावेदारी आधारहीन होगी। लेकिन आज उत्तर प्रदेश की स्थिति भाजपा के लिए बेहतर है। और मेरा आकलन है कि उत्तर प्रदेश में भाजपा को 28 से 32 तक सीटें मिलेगी। ज्यादातर लोग मेरे इस आकलन को ख्याली पुलाव बता सकते हैं। लेकिन मैं निराधार आकलन नहीं कर रहा हूं। पिछले चार-पांच वर्षों में भाजपा का संगठन दुर्बल, गुटबाजी से ग्रस्त है। और सामाजिक आधार के खिसकने वाले लक्षण थे। आज ऐसा नहीं हैं। पिछले छह-आठ महीनों में भाजपा कार्यकर्ताओं में जबरदस्त उत्साह का संचार हुआ है। अभी हाल के हफ्तों में भाजपा की अनेक सभाएं आशातीत और कई बार तो अभूतपूर्व आकार की रही हैं। उदाहरणार्थ मुरादाबाद, बरेली की सभाएं भाजपा के शत्रु-मित्र दोनों को चौंकाने वाली थीं। दूसरे, भाजपा उम्मीदवारों की सूची की जैसी रचना में लगी हुई है, उससे यह आशावाद निराधार नहीं लगता। सामाजिक आधार की जहां तक बात है, यह फिर पूर्व आकार में आ रहा है।
अभी हाल में एक बार मैंने पूर्वी से लेकर पश्र्चिमी तक, बुंदेलखण्ड से लेकर रूहेलखण्ड तक एक-एक सीट की परिगणना की। इसमें से यह आकलन निकला कि जनता में भाजपा का आकर्षण बढ़ रहा है। जिस तरह आतंकवाद का गढ़ उत्तर प्रदेश बनता जा रहा है, वहां के मतदाताओं का भी यही संकेत है। अभी दो साल पहले उत्तर प्रदेश के नगर निगमों का चुनाव हुआ था, परिणाम से लोग चकित थे। एकाध को छोड़कर तमाम महानगर निगम भाजपा की झोली में आ गए थे। आज भी महानगरों में वैसी ही हवा है। और महानगरों की संख्या 12 है। अगले एक महीने में मेरे आकलन की सच्चाई प्रकट होने लगेगी। आज की स्थिति में मेरा आकलन यह है कि भाजपा को 2009 के लोकसभा चुनाव में 200 से ज्यादा सीटें मिलेंगी।
– दीनानाथ मिश्र
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