बाजार

रेहड़ी वाला कुछ जाना-पहचाना लगा। मैं उसके पास पहुँचा तो उसने नमस्ते कहने के एवज में सिर हिला दिया। रेहड़ी वाले ने भी मुझे पहचान लिया था।

मैंने फिर भी पूछ लिया, “”तुमने मुझे पहचान लिया लगता है?”

“”बाबूजी, जो ग्राहक मेरे पास एक बार आ जाता है, मैं उसे भूलता नहीं। आप तो फिर मेरे पास दो-तीन बार आ चुके हैं।”

मैंने उसकी रेहड़ी पर पड़े संतरे, केले, सेब और अन्य सामान पर नजर डाली और पूछा, “”यह रेहड़ी कब से लगानी शुरू कर दी?”

“”कुछ दिन हुए।”

“”अब मंगल-बाजार और वीरवार-बाजार में पटरी नहीं लगाते?”

“”नहीं।”

“”क्यों?”

“”बाबूजी, मुझे घर-घर घूमकर सामान बेचने में फायदा है।” वह कुछ देर रुका, फिर रहस्य उगला, “”बाजार में आप दो-तीन जगह दाम पूछकर सौदा खरीदते हैं, परन्तु यहां मैं अपनी मर्जी का रेट लगाता हूँ।”

सचमुच घर में मेहमान आये हुए थे। बाजार यहां से दूर था। मैंने बिना मोलभाव किये ही फल खरीदे और पैसे चुका कर घर की ओर बढ़ गया। लौटते हुए मेरी आँखों के सामने रेहड़ी वाले का रहस्यमयी मुस्कान से भरा चेहरा घूम रहा था, ठीक उसी तरह जैसे कोई कंपनी अपने प्रोडक्ट को घर पहुँचाने के मनमाने दाम वसूलती है।

– पृथ्वीराज अरोड़ा

 

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